समता के सिद्धान्त का प्रतिपालन

April 1978

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‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ के तत्व ज्ञान में प्रत्येक प्राणी की मूल चेतना में आत्मा की उपस्थिति दीखने, सबको समान सुख−दुःख होने और प्रत्येक को न्याय का अधिकारी होने की मान्यता है। किसी सभ्य राष्ट्र में प्रत्येक प्रजाजन को समान नागरिक अधिकार प्राप्त होता है। जीवात्मा की इसी मौलिक स्थिति को समता के तत्वज्ञान से स्वीकार किया गया है। इसका फलितार्थ ‘जिओ और जीने दो’ के रूप में सामने आता है। दूसरों से वही व्यवहार करें जो दूसरों से अपने लिए चाहते हैं। हमें कोई कष्ट पहुँचावे तो कितना दुःख होता है और दूसरों की उदार आत्मीयता से कितनी प्रसन्नता होती है। इसे ध्यान में रखकर दूसरों के साथ अपने व्यवहार की नीति अपनायें।

आततायी को सुधार की कठोर शिक्षा देने की इस सिद्धान्त में पूरी−पूरी छूट है। एक आँख प्यार की दूसरी सुधार की रखे बिना सन्तुलन रह ही नहीं सकता। प्यार के आधार−स्नेह सहयोग देकर व्यक्ति की उत्कृष्टता उभारना, प्रगति का पथ−प्रशस्त करना कर्तव्य है, किन्तु इस उदारता का उपयोग दुष्टता के अभिवर्धन में होने लगा तो समझना चाहिए अर्थ का अनर्थ हो गया। दुष्ट दुराचारियों को भी सन्त−सज्जनों जैसा सम्मान सहयोग दिया जाने लगे तो समझना चाहिए कि प्रतिपादित आदर्श द्वारा सर्वनाश की भूमिका खड़ी कर दी गई। समानता का यह अर्थ नहीं कि उपकारी और आततायी को एक ही समान समझा जाय। ऐसा अन्धा साम्यवाद तो कम्युनिस्ट देशों में भी नहीं है। वहाँ अर्थ विवरण में समानता के सिद्धान्त को मान्यता दी गई है किन्तु अधिक उपयोगी और अधिक परिश्रमी की विशेषता स्वीकार की गई है और उसे कुछ अधिक सुविधा भी दी गई है। इसी प्रकार हरामखोर और कामचोरों की सामान्य सुविधाओं में कटौती भी की गई है। इसका औचित्य भी है। भावना और कर्म कौशल के आधार पर वहाँ लोगों को सम्मानित भी किया जाता है और नीति मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले कठोर दण्ड भी प्राप्त करते हैं। दण्ड या सम्मान सब को समान मिले, श्रेष्ठता और दुष्टता का अन्तर न किया जाय ऐसा तो कदाचित ही किसी के लिए सम्भव हो। जीवन मुक्त ऋषि, मनीषी और देवता भी व्यक्ति भेद को ध्यान में रखकर किसी को वरदान से पुरस्कृत और अभिशाप देकर दण्डित करते हैं। ईश्वर को समदर्शी कहा गया है वह भी किसी को स्वर्ग किसी को नरक भेजता है। ऐसी अन्धी समता जो श्रेष्ठ, निकृष्ट सभी को एक लाठी से हाँके, विवेक शून्य स्थिति में ही सम्भव हो सकती है। औचित्य और न्याय को तिलांजलि देकर ही ऐसी अन्धी समता व्यवहार में लाई जा सकती है।

सम्भवतः इस प्रकार की माँग दुरात्माओं द्वारा की गई होगी और उसका समर्थन किन्हीं निहित स्वार्थों के परिपोषक धर्माचार्यों ने कर दिया होगा। इसमें आततायी लोगों को दोहरा लाभ है। वे अनीतिपूर्वक अवांछनीय लाभ भी उठाते हैं और सबको समान सद्भावना मिलने के नाम पर दण्ड से भी बेदाग बच जाते हैं। इसमें सज्जनता को दोहरी हानि है। एक तो वह पहले ही आक्रमण की शिकार हुई दूसरे भविष्य की रोकथाम के लिए जिन तीखे प्रतिरोध का आवश्यकता थी उसका भी क्षमा के नाम पर पत्ता कट गया। अब यह उदार क्षमा उसके रहे बचे अस्तित्व का भी सफाया करेगी। समानता का यदि यही अर्थ निकलता है कि उससे पाप और पुण्य को देव और दानव को एक समान माना जाय और दोनों के प्रति समान एक-सा व्यवहार किया जाय तो वह धर्म मूल धारण के अनुकूल नहीं प्रतिकूल पड़ता है।

भगवान को समय−समय पर अवतार लेने पड़े हैं। उस अवतरण के दो उद्देश्य रहते हैं एक अधर्म का विनाश दूसरा धर्म की प्रतिष्ठापना। यह दोनों कार्य एक समान नहीं वरन् एक−दूसरे के सर्वथा प्रतिकूल हैं। एक में कठोर प्रताड़ना और दूसरे में उदार अनुकम्पा जुड़ी हुई है। इसमें तात्विक समता देखी जा सकती है। सबकी अन्तरात्मा में समान रूप से श्रेष्ठता की स्थापना उद्देश्य है। यह किसे किस प्रकार मिले इसके व्यवहार में अन्तर तो रहेगा ही। एक बच्चे को मिठाई दी जाती है, दूसरे को उससे वंचित रखा जाता है और कड़वी दवा पिलाई जाती है। अभिभावकों को दोनों बालकों पर समान प्यार होते हुए भी उनकी शारीरिक स्थिति को देखकर अन्तर करना पड़ता है। स्वस्थ को कड़वी दवा खिलाने और बीमार को मिठाई देने में कोई औचित्य नहीं। ऐसी समानता बरतने वाले अभिभावक अपने बालकों के साथ अनर्थ ही बरतेंगे।

पिछड़ेपन को दूर करने और पीड़ा का निराकरण करने के लिए उदार सहयोग देना उचित है। यह मानवी सद्भावना, सहृदयता और सज्जनता के सर्वथा अनुकूल है कि समर्थ व्यक्ति अपने पिछड़े लोगों को ऊँचा उठाने के लिए के भरपूर प्रयत्न करें। करुणा और सद्भावना का परिचय देकर उन्हें ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने का प्रयास करें। इस उदारता का बढ़ा−चढ़ा परिचय देना सन्त परम्परा और सज्जनोचित, सद्भावना का अंग रहा है। इससे पिछड़े वर्ग को ऊँचा उठने का अवसर मिलता है और उच्च वर्ग को आदर्शवादी उत्कृष्टता का परिचय देकर आत्म−सन्तोष का श्रेय प्रतिफल का लाभ मिलता है। महामानवों के जीवन क्रमों में यह परमार्थ भावना अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रही है। इस अवलम्बन को अपनाकर वे महानता की उपलब्धि प्राप्त कर सके हैं।

भगवान की उदारता प्रसिद्ध है। वे प्राणियों को सुख−सुविधा के अनेक साधन प्रदान करते हैं। पुकार सुनकर सहायता के लिए दौड़ते हैं। गज को विपत्ति से उबारने और द्रौपदी की लाज रखने वाले भगवान न्याय पक्ष का सदा समर्थन करते हैं। वे अर्जुन के सारथी बने थे। सुग्रीव, विभीषण, नरसी, सुदामा, प्रह्लाद, आदि भक्त जनों की उन्होंने सदा सहायता की है।

सन्त चरित्रों में उदार, सेवा, सहायता के असंख्य प्रसंग भरे पड़े हैं। अम्बरीष, पुण्डरीक, रुक्मांगद, रन्तिदेव, राजशिवि आदि की जीवन गाथाओं को देखने से प्रतीत होता है कि वे उपासना एवं ज्ञान−साधना के लिए जितने तत्पर रहे, उतना ही उन्होंने लोक सेवा में भी रस लिया है। सत्परम्पराओं की स्थापना ने पीड़ितों सहायता एवं छोटों को बड़ा बनाने में भी भरपूर प्रयास किया है।

भागवत कथा के अनुसार रन्तिदेव कहते हैं− पीड़ितों की सहायता करते रहना ही मेरी एक मात्र कामना है। पद्मपुराण के राजा महीरथ का कथन है— समर्थ होते हुए भी जो दुखियों की सहायता नहीं करता वह पापी है। दूसरों का उपकार करने से विरत करने वाले स्वर्ग से तो सेवा निरत रह कर नरक में निवास करना उत्तम है। कबूतर की रक्षा के लिए अपना मांस देते हुए महाभारत के राजा शिवि कहते हैं, पर हित चिन्तन न करने वाला मनुष्य तो पशु से भी गया बीता है। लंकावतार सूत्र के अनुसार भगवान बुद्ध का वचन है— जब तक संसार का एक भी प्राणी बन्धन में बँधा है, तब तक मैं मोक्ष को स्वीकार न करूँगा। मुझे तो पिछड़ों की सेवा ही अभीष्ट है। स्कन्द पुराण के भक्त प्रह्लाद की भावना है—दुखियारों में ही मुझे भगवान दीखते हैं। पीड़ितों की सेवा में मुझे भजन का आनन्द मिलता है। ऋषि की कामना है−मुझे राज्य, सुख, स्वर्ग, मुक्ति और कुछ नहीं चाहिए मेरी तो दुखियों के दुःख दूर करते रहने की ही कामना है।

यह साभ्य योग हुआ। समर्थ व्यक्ति अपनी समर्थता− असमर्थों को बाँटे। ज्ञानवान, अज्ञानियों को अपने समतुल्य बनायें। धनी अपनी सम्पदा द्वारा दूसरों को अर्थ संकट से उबारें। सज्जन स्वयं ही सज्जन बने रहने में सन्तुष्ट न रहें वरन् अन्यान्यों को भी सज्जन बनाने के प्रयत्न में संलग्न रहें। इस प्रकार एक ऊँचा दूसरा नीचा न रहेगा। टीले और खाई को पाट कर समतल बनाने के प्रयासों को समता कहा जा सकता है। इसी समता सिद्धान्त का तत्वज्ञान में प्रतिपादन किया गया है। छोटों और बड़ों का, पत्नी और भगिनी का, दुष्ट और सन्त का भेदभाव छोड़ कर सबके साथ एक−सा व्यवहार करने लगना तो मूढ़ता है। मूढ़ता और समता एक बात नहीं है।

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