मनुष्य जीवन में क्षण−क्षण पर भले−बुरे कर्म बनते हैं। एक दिन में ही अनेक दण्ड पुरस्कार की सैकड़ों मिशल फाइलें बन सकती हैं। जीवन भर तो वे असंख्यों हो जायेंगी। मनुष्य को जहाँ इच्छापूर्वक भले−बुरे कर्म करने की स्वतन्त्रता मिली है वहाँ उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने और परिणाम प्रस्तुत करने की स्वसंचालित प्रक्रिया भी साथ ही जोड़ दी गई है।
समस्त सृष्टी में यही हो रहा है, बीज जमीन में बोया जाता है खाद, पानी मिलते ही वह अंकुरित होता है और पौधा वृक्ष बनने लगता है। ईश्वर सर्वत्र समाया हुआ है, इसलिए यह कार्य ईश्वर करता है यों कहने में भी हर्ज नहीं, पर ईश्वर भी इतना झंझट कहाँ तक सिर पर लादता। उसने स्वसंचालित प्रक्रिया बनाकर अपना कर्मफल सम्बन्धी प्रयोजन सरल कर लिया है।
सदाचार−दुराचार का सम्बन्ध जिस प्रकार व्यक्ति से होता है, उसी प्रकार कुटुम्ब, भावी सन्तति, जाति, देश, समाज तथा समस्त विश्व के प्राणियों के साथ भी होता है। अतएव व्यक्ति तथा समष्टि−(समाज) दोनों के कर्त्तव्या-कर्त्तव्य का विचार करना पड़ता है, इसी विचार में पुण्या−पुण्य की कल्पना का बीज निहित रहता है। इस विषय की आलोचना युगारम्भ से अर्थात् ऋग्वेद के काल से हो रही है। ऋग्वेद में पुण्य के लिए ऋत (मानस सत्य), सत्य (वाचिक सत्य) तथा व्रत (सदाचरण) के पालन का विधान किया गया है तथा इन पुण्य कर्मों के विपरीत, विचार कथन और आचरण को पाप बतलाया गया है।
ऋग्वेद संहिता से ज्ञात होता है कि अति प्राचीन काल में जनसाधारण का आचार−विचार उच्च श्रेणी का था। उस समय चोरी, डाका, व्यभिचार, द्यूत, अनीति, अनाचार, दूषित मन्त्र−तन्त्रों का प्रयोग, माता−पिता आदि गुरुजनों का अपमान, अतिथि का अनादर, असत्य नास्तिकता, कृपणता, मन और इन्द्रियों का असंयम आदि कर्मों को पाप माना जाता था।
दुर्बल मन वाले मनुष्य की प्रवृत्ति सहज ही पापकर्मों में हो जाती है और पापों का संचय होने पर मनुष्य भगवान से दूर चला जाता है। ऋग्वेद में पाप के संस्कारों को भार स्वरूप बतलाया है। इस भार को कम करने में परमात्मा ही समर्थ है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि पुण्यापुण्य का विचार युगारम्भ से ही चला आता है। कर्त्तव्या−कर्त्तव्य का निर्णय करने में सामान्य मनुष्य की बुद्धि में भी यदि भ्रम हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन जैसे शास्त्रवेत्ता भी सन्देहग्रस्त हो गये थे। उसके मन में भी ‘युद्ध करूं या न करूं, मेरे लिए ऐसे अवसर पर क्या कर्त्तव्य है। इसका निर्णय वे न कर सके। आधिभौतिकवादियों की बाह्य दृष्टि से न्याय करने पर वह न्याय निर्दोष ही होगा, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है। परन्तु हम कह सकते हैं कि समस्त संसार के वर्तमान और भविष्य काल के सुख तथा पारलौकिक कल्याण को लक्ष्य में रखकर धर्म शास्त्रों ने जिन नियमों का विधान किया है, उनके अनुसार निर्णय करने में ही संचारित हो सकता है।
जिन नास्तिकवादियों ने कर्म का सम्बन्ध सामाजिक नीति के साथ रखा है यह घातक है। बहुत से ऐसे नियमों का विधान हो जाता है, जो दूसरे देशों के लिए रक्त शोषण का काम करते हैं तथा मनुष्येत्तर प्राणियों के लिए क्या नहीं कर दिखलाते?
गीता रहस्य में लोकमान्य तिलक ने लिखा है—”वकीलों का वकालत करते समय असत्य बोलना बुरा नहीं है। सबको सत्य का बर्ताव करना चाहिए, यह ठीक है, परन्तु जिन राजपुरुषों को अपनी कार्यवाही गुप्त रखनी पड़ती है तथा जिन व्यापारियों को अपने लाभ का विचार करके ग्राहकों से व्यवहार करना पड़ता है, उनको भी सत्य ही बोलना चाहिए−ऐसा हम नहीं कह सकते। अधिक लोगों को अधिक सुख हो, इस तत्व के आधार पर ही हमारी नीति निर्धारित होनी चाहिए।”
आधिभौतिकवादी लस्ले स्टीकनन भी लिखते हैं कि “इस विचार से किसी कार्य के परिणाम को लक्ष्य में रखकर कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय करना चाहिए। यदि यह निश्चय हो जाय कि मिथ्या बोलने से अधिक हित होता है, तो उस कर्त्तव्य में मैं सत्य बोलने के लिए तैयार न होना। उस समय यह माना जायगा कि असत्य ही कर्त्तव्य है।”
परन्तु इस धर्माधर्म कास विचार करते समय आन्तरिक भावना और बाह्य क्रिया दोनों की ओर ध्यान रखना पड़ेगा। जब तक उद्देश्य की ओर दृष्टि ने डाली जायगी, तब तक न्याय न हो सकेगा।
कभी−कभी सदुद्देश्य से काम करने पर भी हानिप्रद परिणाम देखने में आता है तथा दुष्ट उद्देश्य से दूसरों को हानि पहुँचाने की इच्छा होने पर लाभ देखा जाता है। ऐसे कर्मों में केवल मात्र, फल को देखकर ही कुछ निर्णय नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा करने से बहुधा न्याय की हत्या ही होती है। इसके अतिरिक्त जहाँ समान दुर्भाव से प्रेरित होकर कर्म किये गये हो, वहाँ भी मानसिक स्थिति पर विचार करके ही विधान करना चाहिए। यदि इस बात का ख्याल न किया गया, तो न्याय का अन्याय हो जायगा।
इस प्रकार भावना में भेद होने से सबके कामों में भी विभिन्नता आती है। निष्काम भावना वाला मनुष्य सबको नारायण मानकर सेवा करता है।
यदि भूगोल या खगोल में सर्वत्र प्रचलित सुदृढ़ नियमों के अनुसार सृष्टि−व्यापार की मीमांसा की जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि कर्म विपाक में ईश्वर का विशेष हाथ है। सूर्य,चन्द्र, पृथ्वी, तारागण समस्त अपनी−अपनी निश्चित सीमा के भीतर ईश्वर के आदेशानुसार परिभ्रमण करते रहते हैं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के अणु−परमाणु की नैसर्गिक प्रक्रिया तथा जीवों के समस्त कर्मों में प्रभु का शासन निहित है। अतएव शुभाशुभ कर्मों के फलदाता प्रभु ही हैं, इन्हीं सब दृष्टिओं से कर्म का सम्बन्ध धर्मशास्त्रोक्त , धर्मनीति और आचरण के साथ माना गया है। कर्म और अकर्म का रहस्य इसी परिष्कृत परमार्थ बुद्धि और हेय स्वार्थपरता की ललक में सन्निहित है।