मानव जीवन की नौ क्षुद्रताएँ

April 1978

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मैं भगवान् का राजकुमार−परमात्मा का बेटा कितना भाग्यवान्। मुझे मनुष्य शरीर मिला। ऐसा शरीर जिसमें असीम शक्ति व विकास की अनेक संभावनाएँ निहित। देवता भी ईर्ष्यालु मेरे सौभाग्य पर कि मुझे पुरुषार्थ का कैसा सुनहरा अवसर मिला; परन्तु दुर्भाग्य−

मेरे इस छोटे से जीवन में एक नहीं नौ ऐसे अवसर आए जब अपने आपको मैंने क्षुद्र बनते देखा।

जब मैं संसार में अपनी सफलता, यश, कीर्ति एवं प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से इसी परमात्मा के बनाए मनुष्य के सामने दीन−हीन गिड़गिड़ाया व यह समझ उससे याचना करने लगा कि जैसे यही मनुष्य मेरा भाग्य विधाता हो। क्षुद्रता का यह प्रथम अवसर मेरे जीवन में आया।

क्षुद्रता की दूसरी अनुभूति उस अवसर पर हुई जब मैंने अनुभव किया कि मैं अपने से अधिक शक्ति सम्पन्न व्यक्तियों के सामने तो दीन−हीन बनता हूँ, परन्तु अपने से कमजोर एवं अपने पर आश्रित लोगों से अहंकार-घमण्ड की बातें करता हूँ मानो मेरी यह शक्ति मेरे विकास के लिए नहीं अपितु दुर्बलों−निर्बलों पर रौब जमाने का ही एक साधन हो!

अपने कर्त्तव्य निर्वाह हेतु कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए, कष्ट सहकर भी कर्त्तव्य पूर्ति करते रहना अथवा सरल सुगम मार्ग अपनाकर अस्थाई सुख प्राप्त करने के दो मार्गों में से किसी एक मार्ग को चुनने का अवसर आने पर जब मैंने सस्ते सुख का मार्ग चुना व कर्त्तव्यपरायणता को विस्मृत कर दिया तब मुझे तीसरी बार अपनी क्षुद्रता का आभास हुआ।

चौथा अवसर क्षुद्रता का मेरे जीवन में तब आया जब मेरे द्वारा कोई अनैतिक व अनुचित काम एवं अपराध हो जाने पर मैंने उसका पश्चात्ताप व परिमार्जन न करके आत्मा की आवाज को यह कहकर दबा दिया “ऐसा तो चलता ही रहता है, दूसरे भी तो यही करते हैं, यह तो आज की परिस्थिति में एक आम शिष्टाचार बन गया है, इसमें दुःख क्या करना।”

मेरे जीवन की क्षुद्रता का वह पाँचवाँ क्षण था जब मैंने अपने मन की बातों को सहनकर क्षमा कर दिया व मन को बुद्धि पर हावी हो जाने दिया। इतना ही नहीं मैंने मन की बात को ही आत्मा की आवाज मान लिया।

छठी क्षुद्रता मुझसे उस समय हुई जब मैंने कुरूपता को घृणा की दृष्टि से देखा, मैंने यह नहीं जाना कि हमारी घृणा का ही परदा कुरूपता है तथा स्नेह का पर्दा सौन्दर्य है।

किसी के द्वारा प्रशंसित हो जाने पर सचमुच ही अपने आपको जब मैंने बड़ा मान लिया व दूसरों की प्रशंसा ही अपनी अच्छाई की कसौटी मान ली तो वह मेरी क्षुद्रता की सातवीं घड़ी थी।

आठवीं क्षुद्रता उस समय मेरे जीवन में प्रविष्ट हो गई जब मैंने अपने “स्व” का तो ध्यान कम रखा व मैं दूसरों को ही देखता परखता रहा स्वधर्म की चिन्ता किए बगैर परधर्म में ही रुचि लेता रहा।

क्षुद्रता की नवीं घड़ी तब आई जब मैंने विपत्ति आने पर आत्मविश्वास खोकर ‘याचना’ का मार्ग अपनाया।

इस तरह नौ अवसरों पर मैंने अपने आपको क्षुद्र बनते देखा।

सोचता हूँ परमपिता परमेश्वर के दिए इस शरीर से अब तो ऐसा कोई काम न हो जो मुझे और अधिक क्षुद्र बनावे।

—संत फ्रांसिस

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