सत्य शब्दों में आबद्ध नहीं, भावना में सन्निहित है।

April 1973

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शब्द के अक्षरों से सीमाबद्ध हो जाना न तो सत्य की रक्षा है न वचन का पालन। शब्द भावनाओं का आवरण है सत्य का निरूपण नहीं। कितनी ही बार भावनात्मक आवेश आते है और कई बार भ्रम ग्रस्त स्थिति होती है, उन परिस्थितियों में यदि कोई शब्दात्मक निर्णय घोषित कर दिया जाता है तो उसका विवेक न्याय और दूरदर्शिता की कसौटी पर सही होना आवश्यक नहीं। उसमें बहुत कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसके लिए पीछे पश्चाताप या परिशोधन करना पड़े।

नशा पी लेने के आवेश में और भ्रमग्रस्त स्वप्न स्थिति में वाणी से जो कुछ कहा गया था, उसे पूरा करना ही चाहिए, पालन करना ही चाहिए यह आवश्यक नहीं। इसी प्रकार भय आतंक या विवशता की स्थिति में यदि कुछ कह दिया गया है, तो उसे ग्रहण के उतर जाने पर वैसी ही मलीनता धारण किये रहना, किसी भी दृष्टि से उचित नहीं। आतंक रहित सरल और स्वाभाविक स्थिति आने पर अपनी तथाकथित वचन बद्धता की स्थिति में बदल देना-सत्य का पालन है विरोध नहीं। इसीलिए तत्त्वदर्शी सत्य का पालन है विरोध नहीं। इसीलिए तत्त्वदर्शी सत्य को शब्द की परिधि तक सीमित रहने वाला नहीं मानते, वे तथ्य के साथ सत्य को जोड़ते हैं ओर कहते हैं विवेक, न्याय और आदर्श की स्थिति पर जो खरा उतरे वही सत्य है। अवांछनीय स्थिति के प्रतिपादन को अनौचित्य सिद्ध हो जाने पर भी इसलिए पकड़े रहना कि वचन का पालन किया ही जाना चाहिए सत्य का अवलम्बन नहीं। भूल प्रतीत हो जाने पर स्थिति को बदल देना सत्य की रक्षा ही कहा जायेगा। शब्द बंधन में बंध कर रह जाना तो एक प्रकार की बौद्धिक जड़ता ही कही जा सकती है।

महाभारत में कई ऐसी घटनाएँ आती है जिनमें शब्द सत्य को यथार्थ सत्य मान बैठने का परिणाम वैसा ही अनर्थमूलक हुआ जैसा कि असत्य अपनाने से होता है।

स्वयंवर में अर्जुन का वरण द्रौपदी ने किया। वे पति-पत्नी घर लौटे। कुन्ती काम में लगी थी। अर्जुन ने कहा-माँ एक बड़ी उपलब्धि लाये हैं। कुन्ती भी काम में लगी थी उसने ऐसे ही सरल स्वभाव से कह दिया-जो लाये हो उसका उपयोग तुम पाँचों मिल जुल कर लो। शब्द को ही आदेश मानकर शिरोधार्य किया गया। द्रौपदी को पाँच भाइयों की पत्नी बनाना पड़ा। आदेश सो आदेश। वचन सो वचन। द्रौपदी ने अर्जुन को वरण किया था पर शब्द बंधनों में बँधी होने के कारण उसे पाँचों की पत्नी बनना स्वीकार करना पड़ा। अन्तरात्मा का हनन भी उसने किया। न्याय, औचित्य सब कुछ निरर्थक शब्द प्रधान। यही द्रौपदी का दाम्पत्य जीवन।

पाण्डव जब अन्तिम समय हिमालय पर गये तो सबसे पहले द्रौपदी का अवसान हुआ। पहले उसी को क्यों गिरना पड़ा। इसका निरूपण करते हुए तथ्य वेत्ताओं ने कहा-उसने आदेश को मुख्य माना शब्द को सत्य समझा। औचित्य और अन्तरात्मा को गौण माना। यह भूल थी। ऐसे अवसर पर उसे शब्दादेश का प्रतिरोध करना चाहिए था।

ऐसी ही भूलें पाण्डव स्वयं भी कई बार करते रहे। भाइयों ने निश्चय किया कि जब एक भाई की बारी द्रौपदी के साथ रहने की हो तब दूसरा वहाँ न जाय।

गाण्डीव की निन्दा अर्जुन की असह्य थी। उसने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि जो कोई गाण्डीव की निद्रा करेगा उसका शिर काट लूँगा। महाभारत के एक प्रसंग में खीज़ कर युधिष्ठिर ने अर्जुन के गाण्डीव को धिक्कार दिया। अर्जुन को प्रतिज्ञा का ध्यान आया और वह युधिष्ठिर का सिर काटने चल दौड़ा। भगवान कृष्ण बड़ी कठिनाई से शब्द सत्य की निरर्थकता समझाते हुए उसे शान्त कर पाये।


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