मानव समाज में उभरते विद्रोही स्वरों की एक झाँकी हम हिप्पी आन्दोलन में देख सकते हैं। बाल-बिखरे कपड़े छितराए, नशा पिये, निरुद्देश्य घूमने ओर पड़े रहने वाले पाश्चात्य युवकों को भारत में भी जहाँ-तहाँ बड़े नगरों में और तीर्थ स्थानों में देखा जा सकता है। इसी वर्ग को थोड़े हेर-फेर के आधार पर वीटल, वीटकिक कहते हैं। उनकी अस्त-व्यस्त गतिविधियों का कारण जानने पर पता चलता है कि वे आज की सामाजिक और बौद्धिक परम्पराओं से सर्वथा असन्तुष्ट हैं और उन्हें बदलने के लिये सबसे पहले ध्वंस का मार्ग अपनाते हैं। उनका कहना है कि प्रचलित परम्पराएँ लगभग सर्वथा अवांछनीय स्तर की बन गई हैं। इनको आदि से अन्त तक ध्वस्त किया जाना चाहिए। उपयोगी परम्पराओं का निर्माण, इतना कर चुकने के बाद ही संभव होगा। किसी विशेष राजनैतिक या सामाजिक परम्परा के ही विरुद्ध नहीं वरन् उनका विद्रोह प्रचलित सारे ढर्रे के विरुद्ध ही है जिसमें वे उपयोगिता स्वल्प और अनुपयोगिता की भर मार देखते हैं।
हिप्पियों की जीवन चर्या अथवा कार्यपद्धति कोई सुख-सुविधा भरी नहीं है। समाज का सहयोग भी प्राप्त नहीं होता और न कमाई के प्रचुर आर्थिक स्रोत ही उनके पास हैं। निरुद्देश्य और असामाजिक रीति नीति जहाँ उन्हें उपहासास्पद बनाती है वहाँ सहानुभूति से भी वंचित करती है। ऐसा कष्ट साध्य मार्ग वे किसी भौतिक सुख-सुविधा के लिए चुन रहे हों, ऐसा नहीं लगता। धूर्तों जैसे छल प्रपंच भी उनके क्रिया-कलाप में सम्मिलित नहीं हैं भरी जवानी में इस प्रकार अवधूतों जैसे आचरण में इतने प्रतिभाशाली जीवन क्यों लग पड़े, इस तथ्य पर गम्भीरता, पूर्वक विचार किया जाना चाहिए। सिरफिरों की सनक कहकर सस्ता समाधान नहीं ढूँढ़ा जाना चाहिए।
हिप्पीवाद का आरंभ थोड़े सी वीटल किशोरों द्वारा हुआ। उन्होंने सड़कों पर गीत गाकर समाजगत कुत्साओं और व्यक्तिगत कुण्ठाओं पर करारे व्यंग किये और कहा-स्वस्थ मनुष्यता पर दुष्ट नियंत्रण इतने अधिक हावी हो गये हैं कि जो यथार्थ है उसे ढूँढ़ निकालना अब संभव नहीं रहा। अस्तु हम इसे आदि से अन्त तक अस्वीकार करेंगे ताकि मनुष्यता को नये सिरे से उभरने का अवसर मिले।
प्रचलित परम्पराओं के विरुद्ध सुलगती आग ने इस प्रकार एक नये किस्म के विद्रोह को जन्म दिया । वह तेजी से फैला। यूरोप, अमेरिका से आगे बढ़ कर वह ऐसा अन्यत्र विश्व के हर कोने में फैला और अब लाखों व्यक्ति हिप्पियों के रूप में अवधूत गतिविधियाँ अपनाये हुए विचरण करते दीखते हैं। यह एक अनोखे किस्म का विद्रोह है। दूसरे आन्दोलनों में दबाव रहता है और विपक्ष की गतिविधियों को बदलने के लिए विवशता उत्पन्न की जाती है। पर इस आन्दोलन में व्यक्ति अपने आप को विद्रोही के रूप में प्रस्तुत करता है। स्वयं कष्ट सहता है और सर्व साधारण का ध्यान यह विचार करने के लिए आकर्षित करता है कि उनका विद्रोह अकारण है या नहीं? वीटल इसकी तुलना गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन से करते हैं।
हिप्पी वर्ग का कहना है कि आज शब्दों की फेर बदल ने आदिम काल की दुष्ट पशुता पर ऐसे रंग-बिरंगे सैद्धान्तिक आवरण चढ़ा दिये हैं जिनके कारण साधारण बुद्धि के लिए उचित-अनुचित का भेद कर सकना भी सम्भव नहीं रहा। ऐसी दशा में कुछ खास प्रचलनों में सुधार कर देने से काम चलने वाला नहीं है। प्रचलन आमूलचूल होना चाहिए। यही हिप्पी वाद का मूल आधार है। वे धर्म के नाम पर भूतकाल के वीभत्स रक्त पात को राजनैतिक शासन के नाम पर गाँधी वाद से लेकर साम्यवाद तक के लिए बरती गई क्रूरताओं को प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं प्रजातंत्र के पर्दे में पल रहा भ्रष्टाचार इससे भी गया बीता है। सामाजिक परम्पराओं में अभी भी असमानता और शोषण को पूरी मान्यता मिली हुई है। इन प्रचलित मूल्यों के रहते हुए मानवता का सही रूप में उभर सकना सम्भव नहीं। विद्रोह के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं । इस मान्यता के अनुसार वे विद्रोह का आरम्भ पनपती समाज विरोधी गतिविधियों से आरंभ करते हैं और सोचते हैं कि यह बीच अन्ततः एक ऐसे समग्र विद्रोह के रूप में परिणत होगा जिसके द्वारा खण्ड-खण्ड सुधार की अपेक्षा समग्र नव निमार्ण सम्भव हो सके।
विचारशील वर्ग द्वारा पूर्ण रूप से न सही आँशिक रूप से यह स्वीकारा गया है कि विज्ञान, बुद्धिवाद और व्यवसाय की वृद्धि के साथ अवांछनीयता की मात्रा बढ़ती ही गई है। दो महायुद्धों के समय जो छल-छद्म राजनैतिक स्तर पर सैन्य प्रयोजन के लिए अपनाये गये अब वे सर्वविदित हो गये हैं और जिस तरह सरकारों ने उस समय उन बातों को आवश्यक माना था उसी तरह जनता ने सामान्य जीवन में उन्हें आवश्यक मान लिया है। युद्धों में बर्बरता और छल-छिद्रों का बोलबाला रहता है। विजयी ने जो भी तरीका अपनाया हो उसका गुण दोष नहीं देखा जाता वरन् सफलता की सराहना की जाती है भले ही उसका आधार अवांछनीय ही क्यों न रहा हो। महायुद्धों ने इस युग के महान् धर्मोपदेशक का काम किया है। छुट-पुट लड़ाइयाँ भी देश देशों के बीच लड़ी जाती रही है उनके साथ जुड़े हुए राजनैतिक दाब पेंचों और सैन्य चातुर्य को हर किसी ने समझा है। और देखा है कि नीति-अनीति के पचड़े में कोई नहीं पड़ता । अपनी धींगा मस्ती को हर कोई सिद्धान्तों के आवरण में लपेट कर इस तरह प्रस्तुत करता है कि सत्य के असत्य और असत्य के सत्य कहने में कुछ कठिनाई अनुभव नहीं। समय ने यह सिखाया है कि सफलता का नाम ही सत्य है, फिर चाहे उसका आधार कुछ भी क्यों न रहे।
युद्ध नीति ने अब पूरी तरह व्यक्तिगत जीवन नीति का प्रामाणिक स्वरूप प्राप्त कर लिया है। हर व्यक्ति अपने निजी स्वार्थ, सुख, विनोद और वर्चस्व के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर हैं। मनुष्यों का समूह ही समाज है । लोग जिस स्तर के होते हैं समाज भी उसी स्तर का बन जाता है। हिप्पी वर्ग के अनुसार यही आज की ऐसी असह्य स्थिति हैं जिसे बदला न गया तो मनुष्य की पिशाच प्रवृत्तियाँ घटेगी नहीं बढ़ती ही जायेंगी।
हिप्पी वर्ग के इस मूल प्रतिपादन से निष्पक्ष विचारता बहुत हद तक सहमत हैं। मतभेद का प्रधान मुद्दा यह है कि भ्रष्टता को महाभ्रष्टता से नहीं रोका जा सकता। विद्रोही की भी अपनी कुछ मान्यता और आस्था होनी चाहिए। वह क्या चाहता है उसका लक्ष्य किस प्रकार के किस निमार्ण का है इसका स्वरूप भी स्पष्ट करना चाहिए। विरोध के लिए विरोध अपूर्ण है। अमान्य को अस्वीकार तो किया जा सकता है पर साथ ही अपना पक्ष भी बताया जाना चाहिए और जो स्वरूप अपने प्रतिपादन का हो उसके अनुरूप अपना आचरण ढालना चाहिए। तभी दोनों के नवीन प्रतिपादन की अच्छाई-बुराई समझने का अवसर मिलेगा और अपनाने न अपनाने का निर्णय कर सकना संभव होगा। इस दृष्टि से हिप्पी आन्दोलन अपूर्ण एवं एकाकी है। उसमें निषेध है पर प्रतिपादन नहीं। निषेध भी कुछ विचित्र प्रकार का। समस्त प्रचलनों से इनकार करना जीवन क्रम को निराधार और निरुद्देश्य बना देता है यह ऐसा कदम है जिससे पूर्व प्रचलित अवांछनीय परम्पराओं से भी अधिक अस्त व्यस्तता उत्पन्न हो सकती है। इस अपूर्णता के कारण ही हिप्पी आन्दोलन का मूल आधार विचारोत्तेजक होते हुए भी उसे वैसा समर्थन नहीं मिल सका जैसा मिलना चाहिए था । कीचड़ धोने की तरह ही हिप्पी बाद का यह प्रयास है कि अवांछनीयता का निराकरण अस्त व्यस्तता द्वारा किया जाना चाहिए।
धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक और दार्शनिक बंधनों का जाल-जंजाल मनुष्य की मूलभूत विशेषता को नष्ट भ्रष्ट किये दे रहा है। यह सिद्ध करते हुए पाल सत्रि ने स्वतन्त्र स्वतंत्रता की आवश्यकता की माँग की है। दार्शनिक गिंस वर्ग ने वाँछनीयता के आवरण से ढके हुए अवांछनीय प्रतिबंधों की भर्त्सना की है और कहा है कि अवैज्ञानिक प्रतिबंधों से मनुष्य सदाचारी कहा है कि अवैज्ञानिक प्रतिबंधों से मनुष्य सदाचारी नहीं पाखण्डी ही बन सकता है। टामस लियरी ने सलाह दी है कि विचारशील लोग दुनिया का साथ छोड़ दें । वर्तमान ढर्रे की हर प्रथा से इनकार करें ताकि विद्रोहियों का एक विशेष वर्ग खड़ा हो सके। कामू ने प्रचलित संस्कृति को असभ्यों की सभ्यता नाम दिया है।
यह बन्धन विद्रोह विभिन्न क्षेत्रों में फूटा है। एक्शन पेंटिंग के जन्मदाता पिकासो और जैक्शन पालाक ने चित्रकला के प्रचलित मूल्यों को उठा कर ताक पर रख दिया है। रंगमंच पर आफ व्राडवे शैली ने पुरानी अभिनय परम्परा को उपहासास्पद बताया है। आज हैरीसन ने संगीत की ऐसी स्वतंत्र शैली विकसित की है जिसमें गायन और वादन अनाथालय के छात्रों की प्रार्थना सभा जैसा लगता है। इन बुद्धिवादियों के नेतृत्व ने परम्परा विरोधी विद्रोह को एक व्यवस्थित दर्शन दिया है कहते हैं हिप्पीवाद उसी चिन्तन की देन है। विद्रोह के स्वर ऊँचे करते हुए वे कहते हैं -राजनीतिज्ञों, धर्म गुरुओं, समाज के ठेकेदारों, साहित्यकारों, कलाकारों, धनाधीशों बुद्धिवादियों और सुव्यवस्था के ठेकेदारों पर अब विश्वास नहीं किया जा सकता । ये वर्ग निरन्तर आज तक जनता के साथ विश्वासघात करते रहे हैं। मानवता और लोग कल्याण की दुहाई देकर ये लोग खोखली शब्दावली में हमें यथार्थता से विरत कर ऐसे कल्पना लोक में उड़ाते रहे हैं जिसमें भ्रमजाल में उलझे रहने के अतिरिक्त और किसी को कुछ नहीं मिला।
हिप्पी, शंकर को एक विरोधी हिप्पी के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं और बुद्ध को अपनी बिरादरी का मानते हैं और पाण्डव जाति को भी । उनका कथन है देव-समाज के पाखण्ड से रुष्ट होकर शिव ने श्मशान का निवास, भस्म का परिधान, सर्पों को साथी बनाया था और नशे पीकर अपने विद्रोह की ज्वाला पर नियंत्रण करते थे एक बार तो वे ताण्डव नृत्य करके पुरानी दुनिया को जला देने पर भी उतारू हो गये थे। बुद्ध ने पुत्र, पत्नी और राजपाट को त्याग कर यह सिद्ध किया था कि मनुष्य को समाज का कोई भी बन्धन स्थायी रूप से स्वीकार नहीं करना चाहिए। पाँच पाण्डवों ने एक ही सम्मिलित पत्नी से काम चलाया था और नारी के इस अधिकार को स्वीकार किया था कि एक ही समय उसका प्रणय व्यापार कई व्यक्तियों के साथ चलता रहे तो इसमें कुछ हर्ज नहीं है।
यह विवादास्पद है कि हिप्पी आन्दोलन समाज में व्यक्ति में वह परिवर्तन ला सकेगा जिसे सामने रखकर नई पीढ़ी के एक बड़े वर्ग ने यह सविनय अवज्ञा जैसा विचित्र अभियान खड़ा किया है। सभी परम्पराएँ त्याज्य नहीं हैं। संस्कृति समग्र रूप से अवांछनीय नहीं हैं । उसमें जितना अनुपयुक्त उतने का ही विरोध उन्मूलन किया जाना चाहिए। भौतिक उपलब्धियों की तरह बौद्धिक क्षेत्र में भी कुछ न कुछ उत्कृष्टता बढ़ी है। उसे भी नष्ट करने पर उतारू हो जाना अविवेकपूर्ण है। फिर जिसका विरोध करना हो उसका विकल्प भी तो कुछ रहना चाहिए अन्यथा रिक्त की पूर्ति कैसे होगी।
हिप्पी आन्दोलन का परिणाम क्या होगा यह कहना असामयिक है पर इतना निश्चित है कि कुत्साएं और कुण्ठाएँ, विकृतियाँ और विडम्बनाएँ इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि उनके विरुद्ध विद्रोह किसी न किसी द्वार से फूटेगा अवश्य। समाज के कर्णधारों का कर्तव्य है कि स्थिति की विषमता को समझें और विस्फोट को रोकने के लिए सुधार प्रक्रिया अविलम्ब अपनायें।