विधाता ने मनुष्य को किसलिए बनाया (kahani)

April 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विधाता सृष्टि की रचना में लगा था, जब मनुष्य का नम्बर आया तो उसे बनाने में अधिक श्रम, समय और अपनी सूझबूझ का परिचय देना पड़ा। ईश्वर का लाड़ला पुत्र कहलाने में मनुष्य को गौरव का अनुभव होता था । उसके कृत्य अपने पिता की तरह ही नेक ओर भलमनसाहत से पूर्ण थे। उसके नेत्र अच्छी वस्तुएँ देखते थे, कान हरि कीर्तन तथा गुणानुवाद को बड़े चाव से सुनते थे। जिह्वा से निकलने वाला प्रत्येक शब्द मधुर और सार्थक होता था। हाथ दान देने और पिछड़े हुए व्यक्तियों को उठाने में लगे थे। पैर अपने स्वभावानुसार सुमार्ग पर चलने के अभ्यस्त हो गये थे।

शैतान तंग आ गया, उसे अपनी कारगुजारी दिखाने का अवसर ही नहीं मिल रहा था। वह तो कितने ही दिनों से बेकार पड़ा था, वह वेष बदल कर मनुष्य के पास पहुँचा और बोला-इसमें कौन-सी बुद्धिमानी है जो कार्य एक आँख, एक कान, एक हाथ और एक पैर से हो सकता है उसके लिए तुम अपनी दोहरी शक्ति लगा रहे हो यह तो उसका दुरुपयोग है।’

सीधा सादा मनुष्य शैतान की बातों में आ गया उस दिन से वह एक आँख से अच्छा देखने लगा, एक कान से अच्छी बातें सुनने लगा, एक हाथ से दान देने तथा अन्य भलाई के कार्य करने शुरू किये और एक पैर को भलाई के मार्ग पर बढ़ाया। अधिक, समय तक कोई हथियार काम ने आये तो उस पर जंग लग जाती है यह ठहरा मानव शरीर, हाड़ माँस का पुतला जिन अंगों से कुछ काम नहीं लिया गया वह निष्क्रिय हो गये। शैतान तो ऐसे अवसर की ताक में था ही उसने इन खाली पड़े अंगों पर अपना अधिकार जमाना शुरू किया। इसीलिए तो यह कहा जाता है कि तभी से मनुष्य अच्छाई के साथ बुराई देखने लगा, प्रशंसा के साथ परनिन्दा सुनने लगा, अच्छे कार्यों के साथ में बुरे कार्य करने लगा और सन्मार्ग के साथ कुमार्ग पर चलने लगा। आलस में पड़ी निकम्मी वस्तु का विकृत हो जाना स्वाभाविक ही था।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles