यौन स्वेच्छाचार का समर्थक फ्रायडी मनोविज्ञान

April 1973

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आधुनिक मनोविज्ञान शास्त्री इस विचार में फँस गये हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व में कुछ मूल प्रवृत्तियाँ- जन्मजात रूप से जुड़ी हुई हैं और वे स्वभाव का एक अंग बनकर रह रही हैं। उन्हें हटाया नहीं जा सकता । इसलिए जीवन की रीति-नीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें मूल प्रवृत्तियों के अनुरूप क्रम व्यवस्था का समावेश रहे। इस प्रकार की तृप्ति से ही सन्तोष प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा अन्तरंग की अतृप्ति अन्तर्द्वन्द्वों में परिणत होकर विविध विधि उद्वेग उत्पन्न करेगी। फलस्वरूप मानसिक स्तर एवं जीवन क्रम में विग्रह उत्पन्न होंगे और कई प्रकार के रोग विक्षोभ बढ़ेंगे

इसे अत्यन्त खेद जनक माना जाना चाहिए कि फ्रायड वर्ग के प्रतिपादन को ही शिक्षा शास्त्रियों ने प्रधानता दी है और पाठ्य पुस्तकों में उसी को उभारा है। यों दूसरे ऐसे मनोविज्ञानी भी हैं जो मनः शास्त्र की संतुलित व्याख्या करते हैं और काम प्रवृत्ति की चर्चा करते हुए इतना ही कहते है कि अन्य अनेकों प्रवृत्तियों में से एक वह भी है। किन्तु न तो अनिवार्य और न अपरिहार्य। परिस्थितियाँ उसे उभार भी सकती हैं और दबा भी सकती हैं। जैसा कि अन्य मानवी प्रवृत्तियों के बारे में समय समय पर उतार चढ़ाव आते रहते हैं उसी प्रकार काम प्रवृत्ति की भी तरंगें अपने समय पर मन में उठती और समाप्त होती रहती हैं वे ऐसी नहीं कि निरन्तर उन्हीं के सम्बन्ध में मनुष्य को सोचने और करने के लिए तत्पर रहना पड़े।

फ्रायड वर्ग के मनोवैज्ञानिक तो शिशु द्वारा माता के स्तन पान किया जाना भी प्रकारान्तर से काम सेवन ही मानते हैं और कहते हैं जन्म और जीवन का आधार इसी प्रवृत्ति से जुड़ा हैं तो आगे चल कर भी तृप्ति और प्रसन्नता इसी के साथ क्यों न जड़ी रहेगी?

उच्छृंखल बुद्धि जीवी वर्ग की सम्भवतः अपनी निज की दुर्बलताएँ उचित ठहराने के लिए इस तर्क पद्धति को प्रधानता देनी पड़ी है, अथवा कोई और कारण रहा है, पर इतना निश्चित है कि नीति समर्थक मनोविज्ञान वेत्ताओं की तुलना में उच्छृंखल प्रतिपादन की ही ध्वजा पताका उसके अलमावरदारों ने आकाश तक उड़ा दी हैं। और प्रच्छन्न रूप से आस्थाओं की उत्कृष्टता पर अनजाने ही कुठाराघात किया है। मनोविज्ञान का छात्र पग पग पर फ्रायड की दुहाई देता है और उसी के सिद्धान्तों पर आधारित अन्य मान्यताओं को सही मानता है। इसमें दोष इन शिक्षा शास्त्रियों का है- लेखकों का है- जिन्होंने कुरुचि पूर्ण तथ्यों को अग्रिम पंक्ति में खड़ा करने का खेदजनक निर्णय किया है।

मनोविज्ञान फ्रायड की ही बपौती नहीं है। इस पर अन्यान्य शोधकर्ताओं ने भी भारी परिश्रम किया है और महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला है। मानवी मूल प्रवृत्तियों की चर्चा करते हुए अन्यान्य मनः शास्त्रियों ने कितनी ही प्रवृत्तियों को प्रमुख बताया है और उनमें एक नगण्य सी प्रवृत्ति के रूप में ही कामुकता को स्थान दिया है। वे कहते हैं इस प्रवृत्ति को वैसी प्रधानता किसी भी प्रकार नहीं दी जानी चाहिए जैसी कि फ्रायड प्रभृति ने दी है।

मनोविज्ञान वेत्ता जुँग ने डा. सिगमंड फ्रायड के इस प्रतिपादन पर करारा व्यंग किया है कि “मनुष्य की इच्छाएँ तथा चेष्टाएँ प्रधानतया काम वासना से प्रेरित हैं”। उन्होंने कहा है ऐसा सोचना अन्तःकरण और व्यवहार के बीच की एक धुँधली सी परत की चर्चा भर है। यह मन की वास्तविक स्थिति नहीं वरन् उसकी काली कुरूप छाया भर है। क्रिया प्रतिक्रिया की उस उथल पुथल में कई मीठी कड़ुई लहरें मन में उठती रहती हैं । उनमें से एक लहर काम वासना भी है। उसे इतना ही महत्त्व मिलना चाहिए । वह अकिंचन सी विकृति ही चेतना की मूल प्रेरणा नहीं है।

यदि वह मनुष्य की अपरिहार्य प्रवृत्ति है तो उससे छुटकारा पाने का कोई क्यों प्रयत्न करेगा और क्योंकर उससे छूट पायेगा। प्रतिबंधों और मर्यादाओं से रहित काम तृप्ति की स्वच्छंदता यदि तथाकथित मनोभाव के आधार पर माँगी और दी जाएगी, तो फिर इस संदर्भ में पूरी तरह पशु प्रवृत्ति का साम्राज्य छा जाएगा बहिन, बेटी, माता का रिश्ता पशुओं में नहीं होता वे इस सम्बन्ध में पूरी स्वच्छंदता बरतते हैं। फिर यही आधार प्रकृति की प्रेरणा के नाम पर मनुष्यों को भी अपनाना होगा तब बात इसी सीमा तक न रुकेगी वरन् प्रचलित परिवार व्यवस्था को भी प्रतिगामी ठहराना पड़ेगा। पशु समाज में दाम्पत्य जीवन प्रायः काम सेवन के थोड़े समय तक ही सघन रहता है उसके उपरान्त तत्क्षण उकसा अन्त हो जाता है । गर्भवती के प्रति नर का न कोई कर्तव्य होता है और न उत्तरदायित्व । बच्चों के पालन पोषण में भी वह क्वचित् ही सहायता करता है। मादा को भी दाम्पत्य सुख के लिए कुछ क्षण तक साथ रहे क्षण स्थायी पति की न तो याद रहती है और उन उसके साथ कोई सहानुभूति दीखती है। बच्चे तभी तक माँ का सहारा ताकते हैं। जब तक वे अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते । समर्थ होते ही माता और बालकों के सम्बन्ध का अन्त हो जाता है। मनुष्य को भी इसी स्थान तक यह मनोविज्ञानी प्रतिपादन पहुँचा कर रहेंगे। इतने सामाजिक, नैतिक, भावनात्मक बन्धनों में जकड़ कर मनुष्य को दाम्पत्य जीवन के प्रति एक सीमा तक निष्ठावान् बनाया गया है। इसमें भी आये दिन लुक छिप कर व्यतिरेक होते रहते हैं और व्यभिचार, बलात्कार, गर्भपात, अपहरण, हत्या, आत्महत्या जैसे क्रूर कर्म सामने आते रहते हैं। समाज शास्त्री यही सोचते हैं कि यदि यह प्रतिबन्ध ढीले होते चले गये और मर्यादाएँ शिथिल पड़ी तो मनुष्य पशुता तक ही नीचे न उतरेगा वरन् पिशाच होकर रहेगा। धर्म के प्रति अनास्था और यौन उच्छृंखलता वर्तमान वातावरण में अपने आप ही बढ़ती चली जा रही है यदि इसे मनोविज्ञान के नाम पर आवश्यक और उचित भी ठहराया जाने लगेगा तब फिर इस संदर्भ में बरते जाने वाली नीति नियमों की कोई आवश्यकता ही न समझी जाएगी इन्हें तोड़ना प्रतिगामिता मानी जाएगी ऐसी दशा में नर नारी के बीच सभ्यता की शील सदाचार की-मर्यादा और उत्तर दायित्व की जो झीनी दीवार खड़ी है उसका भी पूरी तरह अन्त हो जाएगा धर्म और संयम का परित्याग कर देने पर मनुष्य समाज का अन्ततः क्या बनेगा, इसका स्वरूप सोचने भर से जी काँपने लगता है। विज्ञान या मनोविज्ञान यदि इसी स्तर पर मनुष्य को पहुँचाने के लिए प्रयत्नशील हैं तो फिर वह दुःखद दुर्भाग्य एवं अभिशाप ही सिद्ध होगा।

मनोविज्ञानी फ्रायड के विश्लेषण पर इन दिनों बहुत चर्चा है वे मूल प्रवृत्तियों में सर्व प्रधान काम प्रवृत्ति को मानते हैं। चर्चा तो अन्य कई प्रवृत्तियों के अस्तित्व की भी करते हैं पर सबसे प्रबल काम प्रवृत्ति को ही मानते हैं और कहते हैं उसकी तृप्ति के लिए समुचित अवसर मनुष्य के जीवन क्रम में रहना चाहिए।

इस प्रतिपादन ने कामुकता के नियन्त्रण को भूतकालीन मान्यता पर आघात किया है और यह इस प्रकार सोचा जाने लगा है कि काम क्रीड़ा एवं यौन तृप्ति के लिए स्वच्छंदता को मान्यता मिलनी चाहिए और इस संदर्भ में लगे हुए वर्तमान प्रतिबन्ध समाप्त अथवा शिथिल किये जाने चाहिए। नर नारी के बीच सामान्य वार्ता व्यवहार की तरह कामुक आमोद-प्रमोद को भी स्वाभाविक एवं निर्दोष समझा जाना चाहिए। फ्रायड का प्रतिपादन क्रमशः इसी प्रकार की मान्यताओं का समर्थन करता है। फलतः कामुक स्वेच्छाचार को उचित एवं आवश्यक समझ लिया जाता है । ऐसी दशा में दाम्पत्य जीवन की ‘पवित्रता की जड़े ही हिल जाती हैं।’

किन्तु ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि मनोविज्ञान के कर्ता–धर्ता केवल फ्रायड ही हैं उन्हीं की तरह दूसरे अन्वेषक भी हुए हैं और वे भी शोध कार्य में इस क्षेत्र के अग्रणी समझे जाते हैं, उनने मूल प्रवृत्तियों को प्रमुख माना है। उनकी खोज में कामुकता एक प्रवृत्ति तो है पर उसका स्थान बहुत ही हलका एवं गौण है। इसे बदलने, सुधारने में उनके कथानुसार कोई बड़ी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। सामाजिक एवं नैतिक आवश्यकता के अनुरूप यदि उस पर एक सीमा तक प्रतिबन्ध लगाया जाय तो उससे बड़ी हानि की आशंका नहीं है।

मनोविज्ञानियों के विश्लेषणों में प्रधान मूल प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भारी मतभेद हैं उदाहरणार्थ हाव्स ने मूल प्रवृत्तियों के अनुसार मनुष्य को निर्दयी तथा स्वार्थी माना है। एडम स्मिथ ने अपने ग्रन्थ, “सिंपेथेटिक बेसिस आफ ह्यूमन एक्टिविटीज” में “सहानुभूति को मूल-प्रकृति एवं मनुष्यों का पारस्परिक व्यवहार का प्रधान आधार माना है। ट्रोटर ने अपने ग्रन्थ- “इन्स्टिंक्ट्स आफ दि हर्ड पीस एण्ड वार” में मनुष्य को सामाजिकता एवं सामूहिकता की प्रवृत्तियों से ओत प्रोत सिद्ध किया है।

डा. पेमाख मूल प्रवृत्तियों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, पर वे कहते हैं कि उत्तेजना मिलने पर ही वे जागृत होती हैं यदि उन्हें छेड़ा न जाये तो उनका क्वचित् प्रभाव ही दृष्टिगोचर होगा। वह भी इतना हलका होगा कि उसे थोड़े प्रयत्न से मोड़ा मरोड़ा जा सके।

“जिंसवर्ग” यह मानते हैं कि मूल प्रवृत्तियाँ मनुष्य की अभिरुचि को अपनी दिशा में आकर्षित करती हैं पर वे इतनी प्रबल नहीं होती कि रोकने मोड़ने पर कोई विग्रह खड़ा कर दें।

मैग्डुगल ने अपने ग्रन्थ “आउट लाइन आफ साइकोलॉजी में इस तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट किया है कि मूल प्रवृत्तियों में ज्ञानात्मक क्रियात्मक और रागात्मक तीनों प्रकार की मानसिक क्रियाएं जुड़ी हुई हैं। फिर भी वे शरीर मस्तिष्क को चलाने वाली स्वसंचालित सहज क्रियाओं जैसी नहीं । रक्ताभिषरण, श्वास-प्रश्वास आकुंचन प्रकुञ्चन जैसा अपरिहार्य उनका वेग नहीं हैं वे परिवर्तनशील हैं और सुधारी जा सकती है। शहद की मक्खी में छत्ता बनाने की जो प्रवृत्ति है वह सहज क्रिया है पर कुत्ते की मूल प्रवृत्ति जहाँ भी आहार मिले वहाँ से झपट लेने की आदत बदली जा सकती है। उसे लिखा-पढ़ा कर शिष्ट बनाया जा सकता है और रोटी पाने के लिए उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने के लिए अभ्यस्त किया जा सकता है।

मनोविज्ञानी जेम्स के अनुसार 6 प्रकार की मूल प्रवृत्तियाँ मनुष्यों में पाई जाती हैं पर यह आवश्यक नहीं कि हर किसी में वे समान रूप से उभरी हुई हैं। किसी में इनमें से किसी का संवेग तीव्र हो सकता है और किसी में उसका स्तर इतना क्षीण हो सकता है कि उनके अस्तित्व की संभावना ही संदिग्ध प्रतीत होने लगे । जेम्स इन्हें छः की संख्या में गिनते हैं (1) सार्वभौमिकता - यूनिवर्सिटी (2) जन्मजात - इन्नेट (3) संशोधन क्षमता-एडाब्टेबिलिटी (4) प्रयोजन - परपज (5) प्राथमिक पूर्णता-परफेक्शन फर्स्ट पटोंरमेन्स (6) समर्पण मानसिक क्रिया - कम्पलीट मेन्टल एक्शन ।

थार्न डाइक का कथन है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ एक सौ तक गिनी जा सकती हैं जिनमें से चालीस तो ऐसी हैं जिनका अस्तित्व न्यूनाधिक मात्रा में प्रायः हर किसी में देखा जा सकता है। डा. वर्नार्ड ने अपने “एस्टडी आब सोशल साइकोलॉजी ग्रन्थ में लगभग उतनी ही संख्या में मूल प्रवृत्तियों की गणना की है जितनी कि थार्न डाइक बताते हैं।

‘ड्रेवर’ ने अपने ग्रन्थ ‘इन्स्टिक्ट इन मैन’ में वासनात्मक और प्रतिक्रियात्मक दो वर्गों में मूल प्रवृत्तियों का विभक्तिकरण किया है ।’ किल पेट्रिक ने (1) आत्म रक्षा की प्रवृत्ति-सैल्फ प्रिजर्वेटिव इंस्टिक्ट (2) सन्तानोत्पत्ति की प्रवृत्ति-रिप्रोडक्टिव इंस्टिक्ट (3) सामूहिक जीवन की प्रवृत्ति-ग्रेगेरियस इंस्टिक्ट (4) परिस्थितियों के अनुकूल जीवन चलाने की प्रवृत्ति-एडाप्टिव इंस्टिक्ट (5) आदर्श पालन की प्रवृत्ति रेगुलेटिव इंस्टिक्ट को ही प्रधान माना है। शेष को या तो प्रधान प्रवृत्तियों में गिनते ही नहीं, या फिर उन्हें वे तुच्छ उपेक्षणीय कहते हैं।

वुडवर्थ ने उनका विभाजन नौ श्रेणियों में किया है (1) आँगिक आवश्यकता (2) काम प्रेरणा (3) पलायन प्रेरणा (4) लड़ना (5) अनुसंधान (6) विनोद (7) सामाजिक चेतना (8) संस्थापन (9) विनीतता।

मैग्डुगल के ग्रन्थ ‘सोशल साइकोलॉजी एण्ड आउट लाइन आफ साइकोलॉजी’ में मूल प्रवृत्तियों की संख्या चौदह बताई गई है । (1) पलायन-एस्केप (2) युयुत्सा-काम्बैट या पुगनैसिटी (3) निवृत्ति-रपिल्सन (4) सम्वेदना -अपील (5) भोग-मैटिंग आरसेक्स (6) जिज्ञासा-क्यूरियासिटी (7) दैन्य-सबमिशन (8) आत्म गौरव (9) सह जीवन-ग्रेगेरियास नेस (10) आहारान्वेषण-फडसीकिंग (1) संचय एक्विजसन (12) विधायकता कान्स्ट्रक्टिव नसे (13) हास-लाफ्टर

मनः शास्त्री वेब्लोनस्की का कथन है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ इतनी अधिक हैं जितना अनन्त आकाश। उन्हें गणना की सीमा से परे सार्वभौम कहना चाहिए । सार्वभौमिकता भूख-प्यास निद्रा जैसी उन प्रवृत्तियों को कहते हैं जो समस्त विश्व के मनुष्यों में एक समान पाई जाती हैं । ‘जन्मजात’ - वे हैं जो बच्चों में जन्मते ही साथ आती हैं- दूध चूसना, अंग संचालन आदि। ‘समायोजन की क्षमता’ का तात्पर्य है- परिस्थितियों के अनुरूप उपाय खोजना और अपने को ढालना, प्रयोजन किसी सामयिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए सहज बुद्धि से तत्पर हो जाना। ‘सम्पूर्ण मानसिक क्रिया का स्वरूप है विपत्ति सामने आते ही उसका सामना करने के लिए हर अंग का क्रियाशील हो जाना । शेर सामने आते ही मुँह चिल्लाने हाथों से पत्थर उठाने, पैरों से भागने जैसे बहुमुखी क्रियाकलाप का एक साथ-तत्काल आरम्भ हो जाना। जिज्ञासा, संग्रहशीलता, अहमन्यता का प्रदर्शन दूसरों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध होने की इच्छा जैसी अनेकों अन्य प्रवृत्तियाँ भी ऐसी हैं जो न्यूनाधिक मात्रा में हर मनुष्य के अन्दर विद्यमान् रहती हैं।

मनः शास्त्रियों के अन्याय प्रतिपादनों को देखते हुए फ्रायड के काम स्वेच्छाचार का प्रतिपादन बहुत ही बचकाना और एकांगी प्रतीत होता है। खेद इसी बात का है कि ऐसे अधूरे और अवांछनीय निष्कर्षों को अग्रिम पंक्ति में बिठाने की ऐसी भूल की जा रही है जिसका परिणाम मानव समाज का भविष्य अन्धकारमय ही बना सकता है।


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