दुःखों की आग में न जलने का मार्ग

April 1973

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सुख-शान्ति पाने का एक सरल सा उपाय यह भी है कि जीवन में ऐसी गतिविधि को अपनाए रहा जाए जिस से दुःख की उपस्थिति ही न हो। दुःख का अभाव भी सुख ही होता है। सच्ची बात भी यही है कि संसार में जो भी सुख पाने के उपाय किये जाते हैं, वे वास्तव में दुःख कसे बचने का ही उपक्रम होता है। दुःख अथवा उसकी आशंका न होने पर संसार में विशुद्ध अथवा मूल सुख पाने को उपाय प्रायः लोग नहीं करते हैं। भोजन, वस्त्र, आवास, धन वैभव, स्वास्थ्य, परिवार-मित्र सम्बन्धी, पत्नी-पुत्र आदि की सम्पन्नता, जो कि सुख हेतु मानी जाती है यथार्थ में किसी न किसी दुःख कष्ट से बचने के ही साधन होते हैं। भोजन क्षुधा के कष्ट से, वस्त्र ऋतु के प्रकोप से, आवास वर्षा, धाम और अपराधियों से बचने के लिए, धन दरिद्रता के दुःख से बचने के लिये, स्वास्थ्य रोग तथा निर्बलता के कष्ट से बचने के लिए परिवार अव्यवस्था के दुःख से बचने के लिए, मित्र सम्बन्धी आदि अकेलेपन , विरोधियों तथा असहायता के दुःख से बचने के लिए और पत्नी पुत्र आदि मानसिक दुःख से बचने और वंश परम्परा तथा वृद्धावस्था के दुःख से बचने के लिए ही संचय किए जाते हैं। इसी तरह अन्य और भी सारे उपक्रम तथा उपाय जिन्हें सुख साधन माना जाता है प्रायः वास्तव में दुःख से बचने के ही उपाय होते हैं। इसलिए उचित भी यही है और सरल भी कि कुछ ऐसी गतिविधि अपनाकर चला जाए जिससे दुःख के कारण कम से कम सामने आवें। दुःख के अभाव में सुख होना स्वाभाविक ही है।

दुःख के सामान्यतः दो मोटे प्रकार होते हैं। एक समुपस्थित दुःख, दूसरे आकस्मिक अथवा अप्रत्याशित’। सर्व साधारण जिन दुःखों से दिन रात पीड़ित रहते हैं वे दुःख अधिकांशतः समुपस्थित दुःख ही होते हैं। जिन का प्रादुर्भाव या तो आकांक्षा की आपूर्ति से होता है अथवा किसी अभाव या प्रतिकूलता से’ कोई मनुष्य लखपति बनना चाहता है किन्तु उसकी योग्यता और परिस्थितियाँ ऐसी नहीं है कि वह हजार दो हजार रुपये भी संग्रह कर पायें। ऐसी स्थिति में उसकी आकांक्षा अपूर्ण रह जाना स्वाभाविक ही है। आकांक्षा पूरी न होने से उसे असन्तोष अशान्ति, व्यग्रता आदि का दुःख होगा ही। वह अपने को असफल, अभागा और निर्धन मानने एवं दुःखी रहने लगेगा।

कोई विद्यार्थी एस. ए. पास करना चाहता है। उसके पास प्रतिभा, गुण अध्यवसाय, रुचि, लगन आदि विद्यार्थी के योग्य सारी विशेषताएँ हैं। अब तक जितनी भी कक्षाएँ उसने पास की हैं, प्रथम श्रेणी में ही पास की हैं। आगे भी निश्चित है कि वह एम. ए. तक की शेष परीक्षाएँ भी प्रथम श्रेणी में ही पास कर लेगा, किन्तु स्वयं वह और उसका परिवार इस योग्य नहीं है कि अगली पढ़ाई का खर्च उठा सके। पैसे और साधनों की कमी अथवा अभाव है। इस प्रकार अभाव के कारण आगे न पढ़ सकने को दुःख विद्यार्थी को और न पढ़ा सकने को दुःख परिवार को होगा ही। आकांक्षा की आपूर्ति के समान आवश्यकता की आपूर्ति का कष्ट भी कम नहीं होता । स्थिति और परिस्थिति आकांक्षा की पूर्ति में बाधक होती है और अभाव आवश्यकता की पूर्ति नहीं होने देता।

एक मनुष्य सरकार के किसी उच्च पर पहुँचना चाहता है। उसके पास अपेक्षित योग्यता भी है, साधन भी है, व्यक्तित्व और प्रतिभा भी है। वह बुलाया भी जाता है और प्रतियोगिता में बैठने का अवसर भी दिया जाता है। उत्तीर्ण भी हो जाता है। लेकिन संयोगवश उसके परिवार की स्थिति अथवा उसकी व्यक्तिगत परिस्थिति, वह चाहे रोग जन्य हो, किसी के स्थानान्तरण जन्य हो ब्याह शादी आदि के पैदा की हुई हो, इस प्रकार बदल जाती है कि उस पद पर पहुँच कर काम करना उसके लिए सम्भव नहीं रहता। इस प्रकार सारे साधन अनुकूल होने पर भी किसी परिस्थिति की प्रतिकूलता ने उसे उस पद पर जाने से रोक दिया । इस प्रतिकूलता के कारण मनुष्य को दुःख होना स्वाभाविक ही है।

अनेक बार कोई अनजान कारण अथवा दुष्टों का विरोध भी आड़े आकर मनुष्य को उसके लक्ष्य अथवा उद्देश्य में असफल बना कर दुःख पैदा कर देता है। बहुत से परीक्षार्थी अपनी शक्ति भर सारे परचे अच्छे कर आते हैं लेकिन जब परिणाम देखते हैं तो अपने को असफल पाते हैं। ऐसी दशा में उन्हें कुछ कम दुःख नहीं होता । अनेक लोग किसी लक्ष्य के लिए अथक परिश्रम करते हैं। प्रयत्न में कोई कमी नहीं रखते। सफलता की सारी शर्तें पूरी कर देते हैं । तब भी असफल हो जाते हैं। बहुत बार किन्हीं कामों में दुष्टों, विरोधियों तथा अपराधियों की दुरभि लोगों का धोखा और विश्वासघात असफल बना देता है। आकांक्षा की आपूर्ति, अभाव, विरोध, प्रतिकूलता आदि से उत्पन्न होने वाले समुपस्थित दुःखों से ही अधिकांश लोग दुःखी रहते हैं। आकस्मिक दुःख तो मनुष्य पर कभी-कभी ही आते हैं। उनकी संख्या भी अधिक नहीं होती। यदि समुपस्थित दुखों से ही बचने का उपाय ठीक से कर लिया जाय तब भी एक बड़ी सीमा तक सुख-शान्ति से रहा जा सकता है।

इच्छाओं की पूर्ति सुख का हेतु है। इसमें सन्देह नहीं। इच्छाओं के अनुकूल वस्तुएँ तथा परिस्थितियाँ मिलने पर मनुष्य को सुख संतोष की अनुभूति होती ही है। जिस अनुपात से इच्छा आकांक्षा की पूर्ति होती जाती है उसी अनुपात से उसकी सुखानुभूति बढ़ती जाती है। यही कारण हे कि मनुष्य प्रायः सुख के लिए इच्छाओं की पूर्ति का ही प्रयत्न किया करता है। किन्तु सुख पाने के इस उपाय में दो कठिनाइयाँ सामने आती हैं। एक तो यह कि बहुधा लोग अपने लिये दुर्लभ अथवा शक्ति सामर्थ्य के बाहर की आकांक्षा कर बैठते हैं, ऐसी दशा में या तो वे पहले अपनी शक्ति सामर्थ्य को आकांक्षा के अनुरूप बनाएँ तब उसकी पूर्ति कर सुख की प्राप्ति करें, अन्यथा जीवन भर प्रयत्न करने के बाद भी उसकी आपूर्ति का दुःख सहने के लिए तैयार रहें। दूसरी कठिनाई यह होती है कि इच्छा आकांक्षाएँ सीमित नहीं रहने पातीं। एक की पूर्ति होते ही दूसरी खड़ी हो जाती है और इस प्रकार उनकी शृंखला बढ़ती ही चली जाती है। संसार में किसी की सारी इच्छाएँ कभी भी पूरी नहीं हो सकतीं। यदि दो पूरी होंगी तो दो अपूर्ण भी रह जायेंगी। तब उनकी आपूर्ति का का दुःख होना स्वाभाविक ही है।

इसके अतिरिक्त एक कठिनाई यह भी होती है कि किसी नई इच्छा की आपूर्ति का दुःख पिछली इच्छा की पूर्ति से कम नहीं होता, और न मनुष्य किसी अपूर्ण इच्छा का दुःख पूर्ण इच्छा के संतोष से भुला ही पाता है। किसी इच्छा की पूर्ति का सुख अधिक स्थायी नहीं होता। कुछ ही दिनों में वह पुराना होकर नीरस पड़ जाता है। तब फिर किसी नई इच्छा की पूर्ति की आवश्यकता सताने लगती है। इस प्रकार इच्छाओं के तारतम्य और उनकी पूर्ति आपूर्ति के बीच मनुष्य सुखी नहीं रह सकता । इसीलिये मनीषियों ने कामनाओं को मनुष्य के दुःख का बड़ा हेतु माना और कहा है।

इच्छाओं की आपूर्ति से उत्पन्न दुःख के कारण से बचने का उपाय यह है कि मनुष्य यथा सम्भव निष्काम बन कर रहे। इस उस अथवा यह -वह की इच्छा ही न करें। अपनी सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति की ही कामना करे और उनकी पूर्ति में ही अपने प्रयत्नों को लगाए। अभी मनुष्य की न तो क्षमता ही इतनी कम हो गई है और न संसार में साधनों का इतना अभाव हो गया है कि प्रयत्न और पुरुषार्थ करने बाद भी सीमित आवश्यकताओं की इच्छा पूर्ति न हो सके। उनकी बात तो छोड़ दीजिये जो आलसी, प्रमादी, निकम्मे और अकर्मण्य होते हैं, क्योंकि ऐसे धरती के भारत-भूत लोगों को जितना अधिक कष्ट, दुःख और संताप मिले उतना ही अच्छा है। अन्यथा जो अपनी आवश्यक इच्छाओं की पूर्ति के लिये अपेक्षित पसीना देने के लिए तत्पर रहता है उसको आपूर्ति का दुःख सहना पड़े यह सम्भव नहीं।

यदि वह आवश्यकताओं के अतिरिक्त इच्छा करता ही है तो उसकी आपूर्ति के दुःख से बचने का उपाय यह है कि किसी भी अतिरिक्त इच्छा को अस्तित्व में लाने से पूर्व यह देख ले कि उसकी स्थिति, परिस्थिति और शक्ति सामर्थ्य से उसकी उस नई आकांक्षा का तालमेल भी है या नहीं। यदि आकांक्षा और स्थिति में सामंजस्य है तब तो उसका पालन और पूर्ति का उपाय करना चाहिये और यदि वह शक्ति सामर्थ्य के बाहर है तो उसे ऐसे छोड़ देना चाहिए जैसे दुखदाई मित्र का त्याग कर दिया जाता है।

उन्नति और विकास के लिए इच्छाओं को आवश्यक माना गया है। इच्छा की प्रेरणा से ही मनुष्य प्रयत्न पथ पर चलता और उन्नति के लक्ष्य को प्राप्त करता है। इस दृष्टिकोण से इच्छाओं का महत्त्व है और उन इच्छाओं का महत्त्व तो सामान्य आवश्यकताओं से आगे बढ़ा होता है। आपूर्ति के डर से इच्छाओं को सर्वथा तिलाञ्जलि दे देना भी ठीक नहीं लगता। इस उलझन का समाधान यह है कि यदि आप दुःख भीरु हैं कष्ट आपत्ति और असफलता सहने की क्षमता आप में नहीं है तो आपको उन्नति और विकास के स्वप्न बंद करने होंगे और सामान्य रूप से साधारण जीवन में चलना होगा यह बिना किसी संकोच अथवा खेद के मान ही लेना होगा कि जो कष्ट अथवा विरोध भीरु हैं उन्हें उन्नति अथवा विकास के स्वप्न देखने का कोई अधिकार नहीं यह अधिकार उन लक्ष्यवान वज्र पुरुषों का है जो कष्ट और आपत्ति के प्रहारों को हँसते-हँसते सहन कर सकते हैं। या तो इच्छाओं का त्याग कर दिया जाए या अपनी शक्ति एवं स्थिति के अनुरूप छोटी-छोटी इच्छाओं के सहारे थोड़ी-थोड़ी प्रगति करते हुए बढ़ा जाए’ इस सामान्य प्रगति से यदि कोई उल्लेखनीय शिखर पर नहीं भी पहुँचता तो भी उसे असंतोष नहीं करना चाहिए। क्योंकि मनुष्य का एक जन्म ही तो नहीं होता। उसे और भी जन्म मिलते हैं। जन्म-जन्म प्रगति का प्रयत्न जारी रखने से एक दिन उन्नति का चरम शिखर मिल ही जाएगा और मनुष्य वर्तमान जीवन में दुःख से बचा रहेगा।

समुपस्थित दुःखों में अभाव जन्य दुःख भी कम नहीं होते । अभाव का अर्थ असम्पन्नता नहीं है। अभाव वास्तव में उस कमी को कहते हैं जिसके कारण मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकतायें पूरी नहीं हो पातीं । फिर कहना न होगा कि मनुष्य की मूल अथवा अनिवार्य आवश्यकतायें बहुत कम होगी। उनकी पूर्ति में प्रायः बाधा नहीं ही पड़ती है। बाधा अधिकतर उन आवश्यकताओं में पड़ती है जो कृत्रिम अथवा बढ़ी-चढ़ी आवश्यकताएँ होती हैं। यदि मनुष्य इच्छाओं की तरह अपनी आवश्यकताओं को भी अपनी स्थिति तक ही सीमित रखे तो कोई कारण नहीं कि उसे अभाव के दुःख का शिकार बनना पड़े। अभाव जन्म दुःखों से बचने का सरल सा उपाय यही है कि कृत्रिम आवश्यकताओं को त्याग देना चाहिए और बढ़ी चढ़ी आवश्यकताओं में कमी कर उन्हें अपनी स्थिति के अनुरूप बना लेना चाहिए।

प्रतिरोध अथवा प्रतिकूलता से उत्पन्न असफलता के दुःख से बचने का अमोघ उपाय तो तटस्थता ही है जिसे गीता में अनासक्त कर्म योग के नाम से बताया गया है। अपनी शक्ति भर प्रयत्न करते रहने पर भी उसके परिणाम के प्रति उदासीन रहा जाए । क्योंकि कर्तव्य के सिवाय उसके फल में मनुष्य का अधिकार नहीं है।

तथापि इतना तो मनुष्य कर ही सकता है कि किसी लक्ष्य को निर्धारित करने से पूर्व उसकी हर स्थित पर विचार करके यदि यह देखें कि इस दिशा में प्रतिरोध तथा अनुकूल के काँटे अधिक है तो यथा सम्भव अपनी दिशा ही बदल दे। अन्यथा सहानुभूति, सद्भावना और विनीत बुद्धि का संबल लेकर अपने लक्ष्य पथ की सारी प्रतिकूलताओं को अनुकूल बनाते चला जाय। इस प्रयत्न में जो त्याग अथवा सहिष्णुता आवश्यक हो उसे देता चले। इस प्रकार वह प्रतिरोधों तथा प्रतिकूलताओं से उत्पन्न असफलता के दुःख से किसी हद तक बचा रह सकता है। यदि मनुष्य अपने जीवन में दृढ़ता पूर्वक इस नीति का समावेश कर ले तो वह सबसे अधिक माने जाने वाले उन तीन चार प्रकार के समुपस्थित दुखों से तो निश्चय ही बच सकता है।


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