विश्व के घटक को प्रकृति ने प्रचुर सामर्थ्य दी है

April 1973

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हाथी, ऊँट, गेंडा, जिराफ़, चिम्पेन्जी, गुरिल्ला, सिंह, व्याघ्र, ह्वेल, जैसे समर्थ और बड़े शरीर वाले प्राणियों की गतिविधियों और सामर्थ्यों के सम्बन्ध में हमें बहुत कुछ जानकारी उपलब्ध है। मनुष्य की बुद्धिशीलता के सम्बन्ध में बहुत कुछ जाना खोजा गया है, पर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि प्रकृति ने ऐसी विशेषताएँ बड़ी आकृति वाले प्राणियों को ही दी है।

छोटे जीवों में चींटी, दीमक और मधुमक्खियों जैसे कीड़े मकोड़ों की गतिविधियों तक यदि गंभीरता पूर्वक दृष्टि डाली जाय तो आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है और प्रतीत होता है कि अपने जीवन क्षेत्र की परिधि में उन्हें मनुष्य से भी अधिक बुद्धिमतां और कुशलता उपलब्ध है।

जिन प्राणियों को मूर्ख ठहराया जाता है उनके सम्बन्ध में विचार करते समय हम अपने स्तर की क्षमता की कमी-वेशी का ही लेखा-जोखा लेते हैं। यह भूल जाते हैं कि सब प्राणियों का कार्यक्षेत्र एवं जीवन-क्रम एक नहीं। जिसको जिस स्तर का जीवन-यापन करना पड़ता है, उसे प्रकृति ने उसके कार्य क्षेत्र में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकने योग्य कुशलता पर्याप्त मात्रा में दी है। इस तरह से वे न तो तुच्छ ठहरते हैं न मूर्ख न अशक्त। मछलियों के समाज में हमें रहना पड़े और जल में निवास करना पड़े तो निस्सन्देह मछलियाँ हमें सर्वथा असफल एवं दयनीय प्राणी मानेगी यही बात मक्खियों के सम्बन्ध में है। हम उनकी दृष्टि में एक निरीह जीवधारी ही ठहर सकते हैं और वे उन्मुक्त आकाश में उड़ते हुए हमारी असमर्थता को दुर्भाग्य का चिह्न ही ठहरा सकते हैं।

दृश्यमान स्थूलकाय प्राणियों से भी आगे बढ़े तो ऐसे जीवधारियों की बहुत बड़ी संख्या मिलेगी जिन्हें विकसित कहा जा सकने योग्य मस्तिष्क तथा सम्वेदना सूचक इन्द्रिय समूह प्राप्त नहीं है। इतनी अभाव ग्रस्तता के बीच भी उन्हें चेतना का अपना अद्भुत स्तर उपलब्ध है और वंश वृद्धि से लेकर जीवनयापन के दूसरे साधनों तक बहुत कुछ प्राप्त है, और वह इतना अधिक और विस्तृत है कि मनुष्य उस पर दाँतों तले उँगली ही दबा सकता है।

जीवाणुओं की अपनी दुनिया है। ये बहुत छोटे हैं। उनमें से कितने तो ऐसे हैं जो सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता के बिना खुली आँखों से देखे ही नहीं जा सकते। इतने छोटे होते हुए भी उन्हें अपने स्तर का क्रियाकलाप जीवन-यापन कर सकने की आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त है। शरीर के अनुपात से जितनी सामर्थ्य उन्हें प्राप्त है, उसी हिसाब से हमारे शरीर के लिए कितनी सामर्थ्य चाहिए इसका हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि अनुमान की दृष्टि से मनुष्य की प्रकृति का अनुदान बहुत ही स्वल्प प्राप्त है। जीवाणुओं को उनके छोटे कलेवर के अनुसार जो कुछ मिला है, यदि वही अनुदान मनुष्य को प्राप्त रहा होता तो उसकी क्षमता उतनी अधिक होती जितनी कि हम देवताओं की सामर्थ्य की कल्पना करते हैं।

जीवित प्राणियों में सबसे सूक्ष्म जीव इकाई है जीवाणु। इनमें तरल प्रोटोप्लाज्मा भरा रहता है। ऊपर से ल्यूकोज की झिल्ली होती है। इनका आकार प्रायः एक इंच का पच्चीस हजारवाँ भाग होता है। ये स्वयं ही अपने शरीर में प्रजनन करते हैं। 24 घण्टे में प्रायः एक जीवाणु लगभग डेढ़ करोड़ नये जीवाणु उत्पन्न कर देता है और हर नया जीवाणु अपने जन्म के प्रायः 15 मिनट बाद प्रजनन योग्य प्रौढ़ता प्राप्त कर लेता है। सूर्य का तीव्र ताप इनकी मृत्यु का प्रधान कारण होता है।

जीवाणुओं में कोमलता और अशक्तता बहुत है। पर इतने पर भी उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकने लायक वह विशेषताएँ भी प्राप्त हैं जिनके आधार पर वे प्रलय जैसी भयंकर विपत्तियों से भी जूझते हुए अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकें।

धरती की उष्णता जब शान्त होकर जीवधारियों के योग्य हुई तो सबसे पहिले जीव द्रव्य-प्रोटोप्लाज्मा उत्पन्न हुआ। प्रथम जीवधारी जीव द्रव्य की बूँदों के सम्मिश्रण से नहीं बना वरन् वह एक स्वतंत्र सत्ता सम्पन्न एक कोषीय जीव था, उपलब्ध ‘अमीबा’ उसी स्तर के जीवों का एक जीव है। ‘अमीबा’ नदी-तालाबों नालियों एवं कीचड़ जैसे स्थानों में पाया जाता है। इसका आकार प्रायः इंच के सौवें भाग के बराबर होता है।

इसके ऊपर एक पतली झिल्ली चढ़ी रहती है जिसे प्लाज्मा कहते हैं। इसमें कई-कई शंकुपाद हाथी की सूँड़ जैसे निकले रहते हैं वह अपना आहार इन्हीं के सहारे पकड़ता और खींचता है।

प्रौढ़ अमीबा अपने को ही दो टुकड़ों में विभाजित कर लेता है, यह है उसकी वंश परम्परा का क्रम। विभाजन से पूर्व वह अपनी आकृति को गोलाकार बनाता है, इसके बाद मध्य में पतला होते हुए दो टुकड़ों में बँट जाता है। इस भाँति विभाजन प्रजनन कर्म में उसे प्रायः डेढ़ घण्टा लगता है।

भौतिक और रसायन शास्त्र के परमाणुओं की चर्चा आमतौर से होती रहती है। ठीक इसी प्रकार सजीव जगत के परमाणु भी कई प्रकार के होते हैं। इनमें से एक का नाम है-डायटम का अर्थ है-दो परमाणुओं की शक्तिवाला’। यों यह वनस्पति वर्ग में आते हैं पर इसमें पेड़ पौधों जैसा प्रत्यक्ष लक्षण एक भी दीख नहीं पड़ता’ इनका आकार इंच के पचासवें भाग से लेकर इंच के छह हजारवें भाग तक होता है। वे सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता से ही देखे जा सकते हैं।

आकृति में ये इतने सुन्दर और इतने चित्र-विचित्र होते हैं कि देखने वाला मुग्ध होकर रह जाता है। लगता है किसी बहुत ही कुशल कारीगर ने पच्चीकारी, मीनाकारी की एक से एक सुन्दर डिजाइनों के रूप में इन्हें गढ़ा है। गुलदस्ते, रत्नजटित हार, डिजाइनर कालीन, केकड़ा, कनखजूरा, स्फटिक, कच्छप जैसे प्राणियों की तथा कई प्रकार के पुष्प गुच्छकों के रूप में इन्हें सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से ही देखा जा सकता है। देखने वाले को अचम्भा होता है कि इतने छोटे असमर्थ और अविकसित प्राणी पर नियति ने कितनी सुन्दरता से अपनी कलाकृति का अनुदान बिखेरा है।

इनकी चाल की विचित्रता वैज्ञानिकों के लिए न केवल आश्चर्य का विषय है। वरन् बहुत कुछ सिखाती भी है। कितने ही यंत्र का गतिचक्र निर्धारण करने में इन छोटे डायटम ने महत्त्वपूर्ण मार्ग निर्देशन किया है। इनमें से कुछ टैंक की तरह कुछ जलयान की तरह कुछ राकेट की तरह और कुछ बिजली की तरह आगे पीछे हटते बढ़ते अपनी गति का प्रदर्शन करते हैं।

अपने आपको दो टुकड़ों में विभाजित करके ये एक से दो बनते हैं। इसी क्रम में इनकी वंश-वृद्धि होती रहती है।

जड़ अण्ड ‘परमाण्ड’ के नाम से पुकारे जाते हैं, इन्हें प्राणधारियों में काम कर रहे चेतन अण्डजों की कोशिकाएँ कहते हैं। यों ये कोशिकाएँ भी अण्डजों से ही स्वनिर्मित हुई पर उनमें चेतना का अतिरिक्त अंश मिल जाने से उन्हें दूसरे वर्ग में रखा गया है। दूसरे शब्दों में ये भी कह सकते हैं कि जड़ जगत अण्डजों से और चेतन सृष्टि जीवाणुओं एवं कोशिकाओं से बनी है। जिस प्रकार परमाणु के भीतर भी कई अनोखी सृष्टि होती है उसी प्रकार कोशिकाओं के भीतर भी एक पूरा चेतन सरोवर भरा हुआ है और इन दोनों को इकाइयाँ माना जाता है पर वे अविच्छिन्न नहीं है। उनके भीतर भी विश्लेषण करने जैसे असीम और अगणित तत्त्व एवं भेद प्रभेद भरे पड़े हैं। इस लघुता का अंत भी विराट के अन्त की तरह अभी तो बुद्धि की सीमा से बाहर ही दीखता है जितना खोलते हैं उतनी ही एक के भीतर एक नई पर्त निकलती चली जाती है।

सभी पौधे और प्राणी कोशिकाओं से बने हैं। आर्द्यलस जेली जैसे चिपचिपे पदार्थ से भरी होती हैं। ये कोशिकाएँ अपनी पूर्व वर्ती कोशिकाओं के विभाजन से बड़ी होती हैं। और विभाजन क्रम ही उनकी आगे की वंश वृद्धि करता रहता है। प्राणी के वृद्धि, विकास, आनुवांशिकता, बलिष्ठता, दुर्बलता, जरा, मृत्यु मनः स्थिति आदि का आधार इन कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना पर ही निर्भर रहता है। इस प्रकार हम चाहें तो इन कोशिकाओं को भी एक स्वतंत्र जीवधारी जैसी संरचना कह सकते हैं। जीव का समान स्वरूप इन जीवाणु कोशिकाओं के समूह संगठन का ही दूसरा नाम है।

अमीबा सरीखे कुछ प्राणी केवल एक ही कोश के बने होते हैं। अन्य विकसित और बड़े प्राणियों से उनकी संख्या अधिक होती है। एक सौ साठ पौण्ड के वयस्क पुरुष में प्रायः 60 हजार अरब तक कोशिकाएँ होती हैं। इनके भीतर भरे हुए पदार्थ को प्रोटोप्लाज्मा कहते हैं। इसके ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली इतनी लचीली होती है कि उसमें होकर आवश्यक आदान-प्रदान होता रहता है किन्तु अवांछनीय प्रवेश को वह रोके भी रहती है। प्रोटोप्लाज्मा को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। प्रोटोप्लाज्मा को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं, (1) साइटो प्लाज्म (2) न्यूक्लियस साइटो प्लाज्म में लवण, वसायें, शर्करा, प्रोटीन, खनिज जैसे अनेक पदार्थ सम्मिश्रित होते हैं। न्यूक्लियस उसी के भीतर एक अचेतन मृत सघन गेंद की तरह रहता है। उसकी संरचना क्रोमोज़ोम समूह के न्यूक्लियस पदार्थों से होती है। मानव शरीर की कोशिकाओं से 46 क्रोमोज़ोम होते हैं। इनके भी बहुत छोटे-छोटे कण होते हैं जिन्हें ‘जीन’ कहते हैं। वंश परम्परा से वे उत्तराधिकार इन जीवों द्वारा ही भावी पीढ़ी पर उतरते हैं। इन जीवों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है और उनके सम्बन्ध में अधिक बारीकी तथा तत्परता के साथ खोज की जा रही है। यदि गहराई में उतारा जाय तो यह जीन भी एवं स्वतंत्र सत्ता कहे जा सकने जैसी स्थिति में है।

इससे भी आगे बढ़कर जब निर्जीव समझे जाने वाले रासायनिक पदार्थों को देखते हैं तो वे जड़-अचेतन स्तर की दयनीय और चेतना जगत में अत्यन्त पिछड़े हुए प्रतीत होते हैं। बहुत करके तो उन्हें जड़ कहकर चेतन जगत से बहिष्कृत ही मान लिया जाता है। पर विज्ञान के अन्वेषणों ने बताया है कि इन रासायनिक पदार्थों में वह अद्भुत शक्ति भरी पड़ी है जिससे वे स्वयं निर्जीव कहलाते इस जीवन को-जीवधारियों को-उत्पन्न कर सकें। पर इस शक्ति को वे तभी कार्यान्वित कर सकते हैं, जब परस्पर धुल मिल जाने के लिए तत्पर हो जाते हैं अलग-अलग रहने की प्राथमिकता नीति जब तक वे अपनाये रहते हैं तभी तक वे जड़ हैं पर जिस क्षण वे रासायनिक द्रव्य सन्तुलित रूप से एकत्रित होते हैं उसी क्षण द्रव्य के रूप में चेतना का संचार होने लगता है।

जीव-द्रव्य प्रोटोप्लाज्मा कुछ रासायनिक तत्त्व वेत्ताओं का सम्मिश्रण मात्र समझा जाता है। कार्बन क्लोरीन, आयोडीन, मैग्नेशियम प्रभृति रासायनिक पदार्थों का समन्वयीकरण इस जीव-द्रव्य को विनिर्मित करने की भूमिका सम्पादित करता है।

हमें चाहिए कि न तो अपने को सृष्टि का सबसे बड़ा प्राणी मानें और न प्रकृति का वरद-पुत्र न अपनी उपलब्धियों पर अहंकार करें न उद्धत बनें। साथ ही छोटे प्रतीत होने वालों को हेय दृष्टि से भी न देखें न उन्हें अकिंचन समझें न दयनीय, दुर्भागी। वरन् यही समझते रहें कि सृष्टि के प्रत्येक घटक को ईश्वर की दिव्य ज्योति विद्यमान् है। यह परमाणुओं से लेकर जीवाणुओं तक हर लघुतम समझी जाने वाली इकाई में प्रकृति के अद्भुत अनुदान भरे पड़े हैं। भगवान ने हर कण को उसके क्रियाकलाप के अनुसार समर्थता दी है। चिंतन एवं विवेचन की बात एकाएक ही है कि हमें जो सामर्थ्य प्रजनन प्रयोजन के लिए मिली है उस का उपयोग अभीष्ट उद्देश्य के लिए कर रहे हैं या नहीं। यदि इस कसौटी पर चिन्तन खरा उतरे तो समझाना चाहिए कि हमारी सोचने की क्षमता सार्थक सिद्ध हो रही है।

शिष्य अपने गुरु से शिकायत भरे स्वर में कह रहा था-गुरु-देव आपने ही तो उसे दिन कहा था, जो व्यक्ति त्यागी होते हैं और प्रतिष्ठा से दूर भागने का प्रयास करते हैं सामाजिक सम्मान उनके पीछे दौड़ा-दौड़ा आता है। मैं गत 15 वर्षों से अपना सर्वस्व समाज सेवा पर न्यौछावर करता आ रहा हूँ पर सम्मान मेरे पीछे कभी दौड़ कर नहीं आया।

गुरु का उत्तर-बात ठीक है पर तुम्हारी दृष्टि सदैव इसी बात पर रही होगी कि देखें सम्मान पीछे आ रहा है या नहीं।”


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