हमारी अन्तः ऊर्जा ज्योतिर्मय कैसे बने

April 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गर्मी को अवसर मिले तो वह चमक के रूप में परिणत हो सकती है। गर्मी क्रिया ह चमक उसकी प्रतिक्रिया, प्रतिक्रिया क्रिया के बिना नहीं हो सकती। जहाँ गर्मी नहीं है वहाँ चमक की आशा नहीं की जा सकती । यह हो सकता है पदार्थ की अपनी निज की गर्मी न हो वह किसी अन्य से ग्रहण की गई हो, पर चमक संभव तभी हो सकेगी जब अपनी या पराई-कमाई हुई या माँगे की गर्मी का अस्तित्व मौजूद हो।

जीवन में गर्मी का स्रोत है, परिश्रम पुरुषार्थ और साहस साहसी व्यक्ति चमकते हैं, कीर्तिमान होते हैं। यशस्वी और तेजस्वी कहलाने का अवसर केवल उन्हीं को मिलता हे जो मनोयोग, अभिरुचि एवं उत्तरदायित्व का समन्वय करके अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं। अधूरे मन से बेगार टालने की तरह उपेक्षा पूर्वक यदि कुछ किया जाय तो उसमें चिन्तन की गर्मी उत्पन्न होगी ही नहीं और जिस प्रकार बिना आग के भोजन नहीं पकता, उसी प्रस्तुत कार्य उस सुन्दरता एवं सफलता के साथ न हो सकेगा, जिस प्रकार कि हो सकता था सूर्य की किरणें आतिशी शीशे द्वारा केन्द्रित की जाय तो देखते देखते आग प्रकट हो जाती है। मनोयोग पूर्वक किये गये कार्यों में भी ऐसी ही ऊर्जा होती है फलस्वरूप उनकी सफलता ज्योतिर्मय होकर चमकती है। भाग्य से, संयोग वश अथवा अनैतिक उपायों द्वारा किसी को कम श्रम, कम समय और कम मनोयोग में भी कुछ बड़ी सफलता मिल सकती हे पर उन्हें मनस्वी की भूमिका संपादित कर सकने का श्रेय सौभाग्य तो नहीं ही मिलता ।

शरीर एक मणि मुक्तकों की खदान है जिसे श्रम की कुदाली से खोदा जाता है। कहा जाता रहा है कि जो खटखटाता है उसके लिए खोला जाता है। “ पर सुनिश्चित यह है कि जो खोदता है सो पाता है। भूमि को खोदे बिना कुँए का शीतल जल कौन पीता है। भूमि को जोते बिना फसल किसने पाई है। परिश्रमी और पुरुषार्थी ही सम्पत्तियाँ और विभूतियाँ उपार्जित करते हैं विविध विधि सफलताएँ उन्हीं के पल्ले बँधती हैं। यही ऊर्जा है, इसी को तप या तेजस कहते हैं। शरीर एवं मन की तेजस्विता निखारने के लिए ही मनस्वी लोग साहस पूर्वक आगे बढ़ते है और तपस्वी की भूमिका का निर्वाह करते हैं।

भौतिक जगत में भी यही नियम काम करता है। संसार के हर पदार्थ में न्यूनाधिक मात्रा में ऊर्जा मौजूद है, उसे यदि उपयुक्त अवसर मिले तो यह सुनिश्चित है कि वह चमकीली हो सकती है और न केवल अपने अस्तित्व को आकर्षक बना सकती है वरन् दूसरों को भी उस चमक का लाभ दे सकती हैं।

ऊर्जा का प्रकाश रूप में बहुत बार रूपान्तर होता रहता है और हमें जो चमक दीख पड़ती है उसमें ऊर्जा रूपी फुलझड़ी का जलना ही प्रधान कारण होता है। पदार्थ किसी विशेष ऊर्जा को अपने भीतर सोखे रहते हैं। उस अवशोषण से प्रभावित परमाणु उत्तेजित होते हैं और उस सोखी हुई ऊर्जा को बाहर फेंक कर अपना स्वाभाविक स्थान ग्रहण करना चाहते हैं। इस संघर्ष से वह अवशोषित ऊर्जा जब वापिस जाने लगती है तो वह चमक के रूप में दिखाई देती है। यह आवश्यक नहीं वह सारी ऊर्जा ही वापस लौट जाय, यह भी हो सकता है कि कुछ अंश पदार्थ में ही विद्यमान् रहें और कुछ वापिस जायें । ऐसी दशा में जितना अंश वापिस जाएगा उतना ही चमकेगा।

किस पदार्थ की कितनी ऊर्जा, कब, कैसे, प्रकाश रूप में परिणत होती है यह पदार्थ की अपनी परिस्थिति और संरचना पर निर्भर है। जिस पदार्थ के कण आलसी और संग्रही होने के बाहरी प्रभाव से प्रभावित न होंगे ऐसी दशा में वे न तो उत्तेजित होंगे और न चमकेंगे ऐसे मंद मति पदार्थों की वजह से ही इस संसार में अँधेरा कायम है। यदि सब पदार्थों में चैतन्यता-और ऊष्मा के अवशोषण की शक्ति और उससे प्रभावित होने की क्षमता होती तो दुनिया का हर पदार्थ चमक रहा होता । फिर रात्रि में भी ऐसा अँधेरा न होता जैसा अब होता है।

चमक पदार्थों का स्वाभाविक विकिरणों से विद्युत रासायनिक क्रियाओं से अथवा घर्षण जैसे माध्यमों से पदार्थ को शोषक ‘केन्द्र’ होता है उन केन्द्रों को यदि हटा दिया जाय तो फिर जिनमें चमकने का गुण है वे उसे खो बैठेंगे। कुछ पदार्थों में एक विशेष गुण होता है कि वे एक बार ऊर्जा प्रभाव ग्रहण कर लेने के बाद पीछे भी बहुत समय तक चमकते रहते हैं। इन उत्तर दीप्ति वाले पदार्थों को फास्फोरस कहते हैं। इस फास्फोरस प्रतिभा को अधिक स्थाई बनाने के लिए वैज्ञानिक क्षेत्र में विशेष प्रयास चल रहे हैं। यो बल्बों का विकसित स्वरूप ट्यूब लाइट’ से अधिक और सुहावना प्रकाश इस फास्फोरस पद्धति की ही एक उपलब्धि है। साधारण बल्ब तो ताप क्रिया के आधार पर प्रकाशित होते हैं।

चमकने के अवसर संसार में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। हर परिस्थिति में मनुष्य को ऊँचा उठने और आगे बढ़ने की संभावना विद्यमान् है। आवश्यकता अपनी ग्रहण कर सकने वाली क्षमता की है। ग्रहण करने का उत्साह हो तो अपने आस-पास में ही पर्याप्त मात्रा में सहायक साधन मिल सकते हैं। पर यदि भीतर उदासीनता अन्यमनस्कता एवं उपेक्षा हो तो बाहर कुछ भी क्यों न हो वह सब कुछ बन्द दरवाजे से टकरा कर वापिस लौट जाएगा पदार्थ में यही होता रहता है। ऊर्जा हर पदार्थ में मौजूद है। पर वह प्रतिक्रिया का अवशोषण कर सकने की क्षमता में निहित होने के कारण अँधेरी स्थिति में पड़ा रहता है और अपने अस्तित्व को चमकदार बनाने के लाभ से वंचित ही रह जाता है

जिनमें अपनी निज की क्षमता है वह सूर्य की सतरंगी-असंख्य धाराओं वाली किरणों में से अपने स्तर के अनुकूल सामग्री आकर्षित कर लेती हैं और उससे लाभान्वित होती है चुम्बक में अपनी ओर खींचने की शक्ति होती है उसी से आकर्षित होकर लौह कण खिंचते चले जाते हैं। मानवी सत्ता में ऊर्जा की पर्याप्त मात्रा भरी पड़ी है। आज का तुच्छ समझा जाने वाला व्यक्ति यदि अपनी अवशोषण क्षमता बढ़ा के-संग्राहक बन जाय तो फिर उसे वे साधन सहज ही पर्याप्त मात्रा में मिल जायेंगे जो कल उसे सहज ही प्रकाशवान बना सकते हैं। यह आकर्षक चुम्बकत्व उत्पन्न करना ही जीवन साधना का प्रधान क्रिया कृत्य है।

संदीप्ति का एक उदाहरण है- ‘टिनोपाल’ साधारण धुले कपड़ों में कुछ पीलापन रहता है। इसका कारण यह है कि वह प्रकाश की नीली जामुनी रंग की किरणों को पी जाता है और पीली किरणें बाहर छोड़ता है। विनोदय के रसायन में यह विशेषता है कि जहाँ वह प्रयुक्त होता है वहाँ सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणों का अवशोषण होता है और कपड़ों को नीले जामुनी रंग में बदल देता है। इस प्रकार धुले कपड़ों में नीली झलक दिखाई पड़ती और वे झकाझक उजले दिखाई पड़ते हैं।

ऊर्जा को प्रकाश रूप में परिणत करने की विशेषता कतिपय पदार्थों में ही नहीं होती वरन् वह जीवधारियों में भी पाई जाती है। जुगनू, फुँगी, मधुरिका और कितने ही जन्तु जीव अपने शरीरगत ऐंजाइम और आक्सीजन की प्रक्रिया द्वारा ऊर्जा को प्रकाश में बदलते रहते हैं, फलतः वे चमकते हुए दिखाई पड़ते हैं।

मादा जुगनू जब नर को अपने पास बुलाना चाहती है तो उसकी यौन उत्तेजना चमक के रूप परिणत होती है और वह टिम-टिम चमकती है उसके भीतर उस समय रासायनिक लूसीफेरिन, लूसीफेरस ऐंजाइम और ए. टी. पी. नामक यौगिक क्रियाशील होते हैं और उनकी हलचलों से उत्पन्न ऊर्जा प्रकाश बनकर बाहर आती है।

दबाव एवं आयात से उत्पन्न ऊर्जा को पदार्थ पी जाते हैं। अण्ड विस्फोट का उस क्षेत्र के पदार्थों द्वारा ऊर्जा शोषण कर लिया जाता है इसकी परख कर यह जाना जा सकता है उन्हें कितना दबाव या आघात सहना पड़ा है, इस आधार पर विस्फोट की शक्ति का मूल्यांकन कर लिया जाता है।

दबाव एवं आघात इस संसार में रहेंगे ही। बिखरेपन को केन्द्रित करने की दृष्टि से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता भी है। यों प्रतिकूलता और अभावग्रस्तता हर किसी को खलती है। कठिनाई का स्वागत कौन करता है? असफलता एवं अवरोधों को कौन चाहता है। फिर भी वे अनिवार्य रूप से आते हैं। क्योंकि ढीला पोला और असावधान मनुष्य कभी भी इस स्थिति में नहीं होता कि वह प्रकृति प्रदत्त अनुदानों को आकर्षित करके अपने भीतर धारण कर सके। आघात और दबाव इच्छा न होते हुए भी आते हैं। डरने या बचने पर भी वे आ ही धमकते हैं उनसे टकराने के लिए आवश्यक साहस इकट्ठा किये बिना और कोई मार्ग नहीं । अपनी ऊर्जा को चमकाने के लिए व्यक्तित्व को निखारने के लिए यह अरुचिकर होते हुये भी आवश्यक तो है ही।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118