करो पदच्युत मठाषीश तम को, प्रकाश को सिंहसान दो,
अर्पण करो स्नेह दीपक को, बाती को जीवन्त किरन दो।
यह प्रकाश की जन्मभूमि है, नहीं तिमिर का क्रीड़ास्थल है,
अन्धकार पर जय पाने के लिए शौर्य है अतुलित बल है,
मनसा वाचा और कर्मणा-शक्ति यहाँ निश्छल रहती हैं,
क्षमाशील संयम सहिष्णुता की अजस्र धारा बहती हैं,
गौरवान्वित अतीत की स्वर्णिम आभा है इसके कण-कण में,
और वज्र जैसी कठोरता है प्रत्येक प्राण में प्रण में,
ये न कहीं सो जायें तुम्हारा आमन्त्रण पाने के पहिले-
उन्हें मार्ग दो भव्य भावनाओं से भीगी शुद्ध पवन दो।
असतो मा सदगमय यहाँ का मूलमंत्र है जीवन-धन है,
निर्विकार निर्विघ्न तपःपूतों का पावन वृन्दावन है,
विद्या परा और अपरा ने इसी भूमि पर जन्म लिया है,
जिसने इसे प्रेम से माता कहा-अमृत का पान किया है,
दिग्भ्रान्तों के लिए दशा का ज्ञान दिया है इसी धरा ने,
मर्यादा को दिया रूप इस की पवित्रतम् परम्परा ने,
उसी धरा की धवल कीर्ति की आत्मा आज कराह रही हैं,
निराधार मत करो उसे आदर दो और नया जीवन दो।
राम जानते थे कि हिरण सुन्दर है किन्तु नहीं कंचन का,
यह तो है षड्यन्त्र आर्यों की संस्कृति के उन्मूलन का,
भौतिकता के दास-दानवों को भौतिक सुख से ममता थी,
और ‘राम’ आदर्शों के उन्नायक थे अपूर्व क्षमता थी,
राजतिलक के समय उपस्थित हुआ विघ्न केकयि के द्वारा,
धर्म मूर्ति थे राम-धर्म के दृष्टिकोण से उसे निहारा,
नहीं राज्य से मोह, बन्धु के लिए प्राण भी दे सकता हूँ
है सहर्ष स्वीकार राज्य दो बन्धु भरत का मुझको ‘बन’ दो।
इस प्रकार संस्कृति की रक्षा के निमित्त उनने सुख छोड़ा,
किन्तु खेद है आज उसी संस्कृति से हम ने नाता तोड़ा,
संस्कृति हीन हमें कर देगी वर्तमान की भीषण ज्वाला,
पनप रही है इस के इंगित पर आदर्शों की वधशाला,
लौटो लौटो पुनः उन्हीं आदर्शों के मन्दिर में आओ,
वे पवित्र आदर्श हमारी रक्षा का आधार बनेंगे,
उनके लिए अटूट स्नेह श्रद्धा से भरा हुआ आँगन दो।
*समाप्त