उत्कृष्टता की जननी– उदारता

April 1973

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संसार के प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई ऐसी वस्तु रहती है जिसे देकर वह दूसरे का उपकार कर सकता है। अन्न, वस्त्र, धन, विद्या आदि जिसके पास जो वस्तु अधिक है वह अभाव ग्रस्त व्यक्ति को कृपा पूर्वक देकर उसकी कठिनाइयों, कष्टों और दुःखों में सहयोग कर सकता है। अपने पास जो कुछ है वह दूसरे की सुख-सुविधा में बिना किसी विनिमय भावना से लगा देना यही उदारता है। मनुष्य के बड़ा होने, उत्कृष्ट होने का यही प्रमाण है।

‘जो कुछ है सो मेरे लिए’ यह पशु-प्रवृत्ति है। जानवर अपनी घास किसी को खाते देख लें तो मरने मारने पर उतारू हो जाय बहुत शहद इकट्ठा कर लेती हैं पर माँगने पर मधुमक्खी उसका एक कण भी नहीं दे सकती कुत्ते को सबसे बड़ा डर अपने सजातियों से ही रहता है।

कितनी ही परिश्रम की कमाई हो हर छोटे कुत्ते का टुकड़ा बड़ा वाला दबोच कर छीन लेता है यह पशु-प्रवृत्तियाँ हैं ‘अपना दो मत दूसरों का छीन लो’ यह पाशविक वृत्ति जहाँ भी रहेगी वहीं कलह क्लेश कटुता का नारकीय वातावरण बना रहेगा।

मनुष्य की स्थिति इससे भिन्न है। उसने बहुत कुछ पाया है पर तब जब उसने बहुत कुछ दिया है। आज हमें जितनी सुख-सुविधायें उपलब्ध हैं वह सब उदारता पूर्वक आदान-प्रदान के कारण ही विकसित हुई हैं। गुरु को अन्न वस्त्र देते हैं बदले में वे विद्या देते हैं। इसमें गुरु शिष्य दोनों की उदारता है। जहाँ एक सी उदारता है, वहाँ संतोष, स्नेह, आत्मीयता का स्वर्गीय सुख भी है। पिता कमाता है उस कमाई के शतांश से भी कम का उपयोग अपने शरीर के हित में करता है शेष अपनी धर्म पत्नी, बच्ची, बच्चों, भाइयों-भतीजों को दे डालता है जहाँ यह उदारता है वहाँ परस्पर प्रेम होता है, दया होती है, विनम्रता होती है। सौजन्यता, सफलता और समृद्धियाँ भी होती हैं।

मनुष्य देने के स्वभाव से ही बड़ा है यह तो कोई कह ही नहीं सकता कि मेरे पास देने को कुछ नहीं है। जो धन, विद्या, अन्न आदि नहीं दे सकते, वे प्रेम-स्नेह दया, परोपकार, सन्मार्ग की प्रेरणा, बुराइयों से बचाने के सर्वोत्कृष्ट दान देकर अपनी उदारता व्यक्त कर सकते हैं। इससे समाज का जो हित होगा वह किसी उदारता पूर्वक दी गई भौतिक वस्तु से अधिक मूल्यवान होगा।

काम जितना ही बड़ा हो, यदि वह केवल अपने अभिमान की रक्षा अथवा दिखावे के लिये ही किया जा रहा है उसमें उदारता का कोई स्थान नहीं तो उससे कोई लाभ नहीं। इससे आत्म संतोष नहीं मिल सकता जबकि उदारता पूर्वक दिया हुआ छोटा बड़ा जो कुछ भी हो उतना ही फलदायी होता है और उससे बड़ा आत्म-सुख मिलता है। काम की बड़ाई उसके आकार पर नहीं व्यक्ति की विशालता से संयुक्त होती है तो उसमें दिव्यता के दर्शन होते हैं। वह बुराई करने वालों की भी भलाई करता है। निन्दा करने वालों में भी गुण देखता है। घृणा द्वेष और हिंसा न करते हुए दया करुणा, स्नेह और सम्मान देता हुआ अपनी दैवी-सम्पदा का विकास करता है। समाज में सम्पन्नताओं का विकास इसी तरह हुआ है और व्यक्ति में उत्कृष्टता व अभिवर्द्धन इसी तरह होता है।

अनुदार व्यक्तियों को उनका आसुरी अन्तःकरण ही असंतुष्ट रखता है जबकि उदार मति वाले मानवता के दिव्य दर्शन का आनन्द प्राप्त करते हैं। जिसमें उदारता अपने लिए किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखता वरन् सब पदार्थों में और सब के ऊपर परमात्मा की दया और करुणा देखने की उत्कंठित रहता है। यह सरलता, सज्जनता और मनोवाँछित धर्म अपने आप में इतना मधुर और बड़ा सुख हैं कि उसकी क्षणिक अनुभूति जिसे हो जाती है वह बार-बार उसी की ओर भागता है। अपना सर्वस्व विश्वात्मा के उद्धार और विकास में लगा देने के लिए तत्पर होता है। वह किसी व्यक्ति से ईर्ष्या नहीं करता क्योंकि वह जानता है कि सब चीजें परमात्मा से ओत-प्रोत हैं । वह अच्छे कार्यों का कर्त्ताः व्यक्ति को नहीं परमात्मा को मानता है जहाँ से वे मूलतः विकसित होती है इससे वह द्वन्द्व रहित निर्मल और शान्त अन्तःकरण की आनन्द विभूति प्राप्त करता है। जिन्हें सच्ची उदारता का ज्ञान हो गया वे अनुभव करते हैं कि सब पार्थिव वस्तुएँ असार हैं। आध्यात्मिकता इसीलिए हमें उदारता का सबक पहले सिखाती है।

दी हुई वस्तु का मोल माँगना पड़ता है पर जो वस्तु बिना किसी प्राप्ति-भावना से केवल औरों के कल्याणार्थ दे दी जाती है उसका मूल्य माँगना नहीं पड़ता । इसे चाहे ईश्वर विश्वास कहें अथवा विश्व की अन्तर्व्यथा दान करने वाला, उदारता पूर्वक अपनी शक्तियों को परोपकार में खर्चने वाला उससे भी अधिक पा लेता है। यदि वह स्थूल रूप से न भी दिखाई दे तो भी सामाजिक जीवन में जो सच्चा आदर सम्मान, विश्वास, सहानुभूति और आत्मीयता उसे मिलती है वह किसी प्रत्यक्ष लाभ से कम नहीं होती। शर्त केवल इतनी ही है कि अनुचित कामना पूर्ति के रूप में उदारता का प्रदर्शन न किया गया हो। प्रदर्शन की उदारता उदारता नहीं रह जाती वह व्यवसाय बन जाता है और उसकी प्रतिष्ठा जाती रहती है।

फूल सब की प्रियता का पात्र है। सब उसे स्नेह करते हैं क्योंकि वह अपनी सुवास का कोई मूल्य नहीं माँगता पर मधुमक्खी से उतना मीठा मधुर पाकर भी उसे कोई नहीं सराहता क्योंकि वह उदारता पूर्वक नहीं देती। देने की भावना अकाम हो तो वह कर्ता को अपने आप ही विकसित होने योग्य परिस्थितियाँ प्रदान कर देती हैं।

उदारता का सच्चा स्वरूप वह है जो हमें अपने कुटुम्ब में देखने को मिलता है। परिश्रम कुछ थोड़े से लोग करते हैं पर उसका लाभ बहुत से लोग उठाते हैं। प्रत्यक्ष में इसमें परिश्रम कर्त्ताः को हानि दिखाई देती है पर अपने परिजनों की श्रद्धा, आत्मीयता, प्रेम और स्नेह का उसे जो भावनात्मक प्रतिफल मिलता है वह भौतिक भोग से कहीं अधिक सुखदायी होता है। मनुष्य इसीलिए तो जीता है कि लोग उसे अधिक से अधिक प्रेम करें। अच्छा आदमी कहें, प्रशंसा करें और जब कभी आवश्यकता पड़े तो सच्ची सहानुभूति व्यक्त करें।

सामाजिक जीवन में भी ऐसी चाह स्वाभाविक है। वह आदान-प्रदान के ही नियम से मिलती है। समाज और संसार भी एक प्रकार का कुटुम्ब ही है। इससे उसमें अधिक सदस्य हैं इसलिए वहाँ आत्मविकास की परिस्थितियाँ भी बहुत अधिक होती हैं। समाज में जो भी विद्या-बुद्धि धन साधनों की दृष्टि से गये गुजरे हैं उनकी सहायता करके हम अधिक प्रेम और आत्मीयता का सुख अर्जित कर सकते हैं।

हम भारतीयों की विशिष्टता इसी बात में रही हैं कि हमने सारे संसार को एक कुटुम्ब माना है। और समान रूप से जन-सेवा और सहयोग के कर्तव्य का पालन बिना किसी मूल्य प्राप्ति की भावना से किया है। इसीलिए गई गुजरी परिस्थितियों में भी हमारी उत्कृष्टता बनी रही है। हमारे पुरखों का स्वभाव ही था- दीन-दुखियों और अभाव ग्रस्तों को कुछ देकर उन्हें ऊँचे उठाना। इन परिस्थितियों ने ही इस देश को विशालता के एक सूत्र में बाँधा है। अब तो उसके लिए परिस्थितियाँ भी और अधिक अनुकूल हैं। सही अर्थों में यह युग सेवा और उदारता का युग है इस युग में मनुष्य को धन साधनों का दान देने की आवश्यकता नहीं, लोगों को प्रेम और आत्मीयता का, स्नेह और सौजन्यता का दान देने की जरूरत हैं ताकि अविकसित मानवता का क्रम पुनः स्वर्गीय परिस्थितियों की ओर मुड़ चले और पीड़ित लोगों को भी आत्म-विकास का समुचित वातावरण मिल सके।

यह उदारता मनुष्य में विकसित हो तो इस युग की बुराइयों का अन्त हो और उत्कृष्टता का विकास। हमें ऊपर उठने की चाह है। हम मानवीय उत्कृष्टता को सिद्ध करना चाहते हैं तो हमें सबसे पहले उदार बनना चाहिए। अपनी साधन सम्पत्ति का एक अंश समाज को भी देने के लिए तत्पर होना चाहिए।


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