अपनों से अपनी बात

April 1973

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युग परिवर्तन के शब्द कहने और सुनने में सरल मालूम पड़ते हैं पर विश्व में अगणित धाराओं के उलटी दिशा में बहने वाले प्रचण्ड प्रवाह को मोड़ने के लिए कितनी, किस स्तर की शक्ति चाहिए इसका लेखा जोखा तैयार करने पर विदित होता है कि बड़े काम के उपयुक्त ही बड़े साधन संजोने पड़ेंगे यह सरंजाम जुटाना न तो सरल है और न उसका स्वरूप स्वल्प है। विश्व बड़ा है- उसकी समस्याएँ बड़ी हैं । इतने विशाल क्षेत्र की उलझनों को सुलझाने के लिए कितना कुछ करना पड़ेगा इस पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि पुराने खण्डहर को तोड़कर उसी की मिट्टी से नया भवन बनाने के लिए जो कुछ अभीष्ट है वह सभी कुछ जुटाना पड़ेगा। इससे कम तैयारी से मानवी कल्पना को हतप्रभ कर देने वाले लक्ष्य की पूर्ति हो ही नहीं सकती।

भगवान कृष्ण को महाभारत रचाना था। पाण्डव निमित्त बनाये गये थे। पर वे बेचारे करते क्या? अज्ञातवास वनवास की व्यथा भोगते-भोगते इतने साधन हीन हो गये थे कि कौरवों के दुर्घर्ष सत्ता को चुनौती दे सकने लायक सेना शस्त्र, धन-साधन आदि कुछ भी उनके पास नहीं था। कृष्ण के बार-बार उकसाने पर भी पाण्डव लड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। अर्जुन तो ऐन वक्त तक कतराता रहा। इसका कारण स्पष्टतः तुलनात्मक दृष्टि से साधनों की न्यूनता होगी। सन्तुलन स्थापित करने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश ही नहीं दिया था, रथ के घोड़े ही नहीं हाँके थे वरन् और भी बहुत कुछ किया था। सर्वथा निर्धन और साधन हीन पाण्डवों का साथ देने उनके पक्ष में लड़ने के लिए जो विशाल काय सेना खड़ी थी वह तमाशा देखने वाली भीड़ नहीं थी उसे जुटाने, प्रशिक्षित एवं सुसज्जित करने से लेकर अर्थव्यवस्था और युद्ध योजना बनाने तक का सारा कार्य परोक्ष रूप से कृष्ण को ही करना पड़ा था। युद्ध में पाण्डव ही विजयी हुए सही-राजगद्दी पर वे ही बैठे सही पर साथ ही यह भी सही है कि कंस, जरासन्ध, कौरव और शिशुपाल जैसे दैत्यों के माध्यम से नग्न नृत्य करने वाली असुरता को नीचा दिखाने के अद्भुत योजना का सूत्र संचालन पर्दे की पीछे रह कर मुरली वादक ही का रहा था।

अभी इन दिनों युग परिवर्तन के प्रचण्ड अभियान का शिलान्यास शुभारम्भ हुआ है। ज्ञान यज्ञ की हुताशन वेदी पर बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की ज्वाला प्रज्वलित करने वाली आज्याहुतियाँ दी जा रही हैं । जन्मेजय के नाग यज्ञ की तरह फुफकारते हुए विषधर तक्षकों को ब्रह्म तेजस् स्वाहाकार द्वारा घसीटा ही जाएगा तो उस रोमांचकारी दृश्य को देख कर दर्शकों के होश उड़ने लगेंगे। वह दिन दूर नहीं जब आज की अरणि मन्थन से उत्पन्न स्फुल्लिंग शृंखला कुछ ही समय उपरान्त दावानल बन कर कोटि-कोटि जिह्वा लपलपाती हुई वीभत्स जंजालों से भरे अरण्य की भस्मसात् करती हुई दिखाई देगी।

अभी भारत में -हिन्दू धर्म में-धर्म मंच से, युग निमार्ण परिवार में यह मानव जाति का भाग्य निमार्ण करने वाला अभियान केन्द्रित दिखाई पड़ता है। पर अगले दिनों उसकी वर्तमान सीमाएँ अत्यन्त विस्तृत होकर असीम हो जायेगी तब किसी एक संस्था संगठन का नियन्त्रण निर्देश नहीं चलेगा वरन् कोटि-कोटि घटकों से विभिन्न स्तर के ऐसे ज्योति पुँज फूटते दिखाई पड़ेंगे जिनकी अकूत शक्ति द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्य अनुपम और अद्भुत ही कहे समझे जायेंगे । महाकाल ही इस महान् परिवर्तन का सूत्रधार हैं और वही समयानुसार अपनी आज की मंगलाचरण थिरकन, को क्रमशः तीव्र से तीव्र तर तीव्र तम करता चला जाएगा ताण्डव नृत्य से उत्पन्न गगनचुम्बी जाज्वल्यमान आग्नेय लपटों द्वारा पुरातन को नूतन में परिवर्तित करने की भूमिका किस प्रकार किस रूप में अगले दिनों सम्पन्न होने जा रही है आज उस सब को सोच सकना-कल्पना परिधि में ला सकना सामान्य बुद्धि के लिये प्रायः असंभव ही है फिर भी जो भवितव्यता है वह होकर रहेगी । युग को बदलना ही है, आज की निविड़ निशा का कल के प्रभात कालीन अरुणोदय में परिवर्तन होकर ही रहेगा।

आवश्यक साधन जुटाने के लिए गुरुदेव की विश्व यात्रा प्रक्रिया का क्रम चल रहा है। दूसरे सन्त महन्त कथा कीर्तन कहने- धन कमाने शिष्य सम्प्रदाय बढ़ाने अनेक कलेवर आवरण ओढ़ कर वायुयानों में उड़ते, पाश्चात्य देशों में विचरण करते देखे जाते हैं। इस योग और अध्यात्म के नाम पर चलने वाली विडम्बना को गुरुदेव मात्र उपहासास्पद बालक्रीड़ा मानते हैं। इनसे न भारत गौरव बढ़ता है और न साधुता की अध्यात्म की गरिमा रहती है। कलावन्त का कौशल चमत्कार ही उस अभिनय में पीछे झाँकता है। एक और भी कुचक्र इसी जाल जंजाल में और भी आ मिला है भारत पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले देश इन साधु सन्तों के चोर दरवाजे से घुस कर अपनी दुरभि संधियों की जड़े जमाने में लगे हैं । हिप्पियों के नाम पर जासूसों का टिड्डी दल उमड़ रहा है और तरह-तरह के बहानों से पैसा उड़ता आ रहा है। यह सी एक देश का कुकृत्य नहीं वरन् नहीं वरन् गरम-नरम पोले ढीले सभी स्तर के देश अपने खूनी पंजे जिन दरवाजों से घुसते आ रहे हैं उनमें ‘सन्त बाजी भी एक है। ऐसे दुर्दिनों में गुरुदेव की विश्व यात्रा प्रक्रिया को भी इन्हीं घिनौने कुकर्मों में से एक होने की आशंका की जा सकती है। पर तथ्य तो तथ्य ही रहेगा। काँच और हीरे का अन्तर सोने और पीतल का भेद छिपा कहाँ रहता है-छिपा कैसे रहेगा।

गुरुदेव इन दिनों विभूतियों को प्रेरणा देने में लगे हैं और उनका प्रयास आरम्भ भले ही छोटे क्षेत्र से हुआ हो पर अब अधिकाधिक व्यापक विस्तृत होता चला जा रहा है। युग-परिवर्तन की भूमिका लगभग महाभारत जैसी होगी । उसे लंका काण्ड स्तर का भी कहा जा सकता है। स्थूल बुद्धि इतिहासकार इन्हें भारतवर्ष के अमुक क्षेत्र में घटने वाला घटना क्रम भले ही कहते रहें पर तत्त्व दर्शी जानते हैं कि अपने अपने समय में इन प्रकरणों का युगान्तरकारी प्रभाव हुआ था। अब परिस्थितियाँ भिन्न हैं । अब विश्व का स्वरूप दूसरा है। समस्याओं का स्तर भी दूसरा है और फलस्वरूप परिवर्तन का उपक्रम भी दूसरा ही होगा भावी युग-परिवर्तन प्रक्रिया का स्वरूप और माध्यम भूतकालीन घटना क्रम से मेल नहीं खा सकेगा किन्तु उसका मूलभूत आधार वही रहेगा जो कल्प कल्पान्तरों से युग परिवर्तन कारी उपक्रमों के अवसर पर कार्यान्वित होता रहा है।

असुरता जिस स्तर की हो उसी के अनुरूप प्रतिरोध खड़ा करने के अतिरिक्त परिवर्तन की प्रक्रिया और किसी प्रकार सम्पन्न नहीं हो सकती । जन-मानस की कुत्साओं कुण्ठाओं ने जिस प्रकार जिस रास्ते मलिन अवरुद्ध किया है उसी रास्ते को उलट कर सृजन का उपक्रम खड़ा करना पड़ेगा इसलिए तोप तलवारों से नहीं उन अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होना पड़ेगा जिससे मानवी अन्तःकरण में गहराई तक घुसे पड़े कषाय कल्मषों का उन्मूलन किया जा सके । इस प्रक्रिया के लिये उपयुक्त व्यक्ति भी चाहिए और उपयुक्त साधन भी । विभूतियों का आह्वान यही है जिसकी चर्चा युग-निर्माण परिवार में इन दिनों कही सुनी जा रही है। विभूतियों की खोज करने के लिए ही गुरुदेव इन दिनों राजहंस की गति से उड़ते हुए मानसरोवरों को मझार रहे हैं । अभीष्ट मात्रा में मणि मुक्तक हाथ लगने को उन्हें पूरी-पूरी आशा है। विश्व यात्रा के पीछे यही प्रकट रहस्य सन्निहित है।

युग निर्माण परिवार का गठन भी इसी क्रम से हुआ है। गुरुदेव ने अपनी अत्यंत पैनी दृष्टि से इन सुसंस्कारी आत्माओं को ढूँढ़ा है जिनके पास आत्मबल की पूर्व संचित सम्पदा समुचित मात्रा में पहले से ही विद्यमान् थी। गायत्री यज्ञों के बहाने-सत्साहित्य के आकर्षण से व्यक्तिगत संपर्क की पकड़ से मणि मुक्तक की उस स्फटिक माला में उन्हें गूँथा हैं जिसे युग-निमार्ण परिवार के नाम से कहा-पुकारा जाता है। युग निर्माताओं की की इस सृजन सेना के अभियान उत्तरदायित्व का भार बहन कर सकने में समर्थ आत्माओं को वे प्रत्यावर्तन सत्र में अभीष्ट अनुदान के लिए इन दिनों बुला भी रहे हैं । यही प्रक्रिया विकसित होकर विश्वव्यापी बनने जा रही है। परिवर्तन न तो भारत तक सीमित रहेगा और न उसकी परिधि हिन्दू धर्म तक अवरुद्ध रहेगी। परिवर्तन विश्व का होना है। निमार्ण समस्त जाति का होगा। धरती पर स्वर्ग का अवतरण और मनुष्य में देवत्व का उदय, किसी देश, जाति, धर्म, वर्ग तक सीमित नहीं रह सकता उसे असीम ही बनना पड़ेगा। इन परिस्थितियों में युग-निमार्ण प्रक्रिया का विश्वव्यापी होना और गुरुदेव का कार्य-क्षेत्र उसी स्तर पर विकसित होना स्वाभाविक है।

गुरुदेव अपने मार्गदर्शक के चरणों पर समर्पित अकिंचन पुष्प हैं । उन्होंने सर्वतोभावेन अपने तमाम अस्तित्व को सूत्र संचालक के हाथों में सौंपा है। सो उन्हें जब जो नाच नचाने के लिए कहा जाता है। कठपुतली की तरह वैसी ही थिरकन उनकी हलचलों में देखी जा सकती है। वंशी की तरह वे बिलकुल पोले हैं और अपने वादक के अधरों से सटे हैं, श्वास की जैसी धारा बहती है वैसी ही रागिनी उनमें से निसृत होती है वे क्या करेंगे? कैसे करेंगे? इसका पूरा स्वरूप और उपक्रम समझना अपने लिए इसलिए कठिन है कि वे स्वयं तक नहीं समझते कल उन्हें क्या करना है और न इसकी ओर कभी सोचते हैं। जिस दिन जो कार्य सौंपा गया उस दिन वही करने लगना बह उनका सहज स्वभाव और प्रसन्नता का केन्द्र हो गया है। विश्व यात्रा के नये कार्यक्रम के सम्बन्ध में लोग कई प्रकार के प्रश्न पूछते हैं कई तरह के जिज्ञासाएँ करते हैं, इसी संदर्भ में उपरोक्त चर्चा करनी पड़ी और बताना पड़ा कि वे इन दिनों विभूतियों की खोज में हैं। उसी स्तर के व्यक्ति और साधन युग परिवर्तन की भूमिका सम्पादन कर सकेंगे महाभारत काल में अर्जुन के साथ विशाल काय सैन्य दल था यह सर्वविदित है और यह भी किसी से छिपा नहीं कि लंका विजय के लिये रीछ वानरों की सेना गई थी। भगवान बुद्ध के ढाई लाख शिष्य और गाँधी की सत्याग्रही सेना का परिचय किसे नहीं है। सदा सर्वदा युगान्तरकारी महान् परिवर्तनों की पृष्ठभूमि यही रही है लोगों के चर्म चक्षु सामने प्रस्तुत घटना को देखते हैं उनमें कोई विरले ही जानते हैं कि उन सरंजामों को जुटाने के पीछे किन अदृश्य हाथों ने किस प्रकार सूत्र संचालन किया था। इन दिनों गुरुदेव की हलचलों को ऐसे ही अदृश्य सूत्र संचालन स्तर को समझ लिया जाय तो हमारी समस्त जिज्ञासाओं का एक शब्द में ही समाधान हो सकता है। गुरुदेव कब गये-कहाँ गये-क्यों गये? क्या किया? कब लौटे? कब जायेंगे? कब आयेंगे? कहाँ जायेंगे? क्या करेंगे? आदि प्रश्न असामयिक है इन्हें पूछा नहीं जाना चाहिए । समय से पूर्व अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों को जन चर्चा का विषय बनाना न तो उचित है और न आवश्यक, इस संदर्भ में पूछताछ नहीं करनी चाहिए।

जिज्ञासाओं में उलझने की अपेक्षा हमें इन ऐतिहासिक क्षेत्रों में अपनी ओर अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों की ओर ही निहारना चाहिए। युग निर्माण परिवार के सदस्य को यह अनुभव करना चाहिए कि वह साधारण नहीं असाधारण है। इसके लिए असाधारण कर्तव्य और उत्तरदायित्व सम्मुख हैं। इनकी ओर से विमुख रहने पर वह घाटे की आशंका से स्वार्थ साधन में कमी पड़ने के भय से शायद बच जाय पर इसके बदले में ईश्वरीय आह्वान की -आंतरिक प्रेरणा की-युग की पुकार की अवज्ञा करने पर जो आत्म प्रताड़ना सहनी पड़ेगी उससे किसी भी प्रकार बच नहीं सकेगा। यह आत्मदण्ड इतना भारी पड़ेगा जिसकी तुलना में वासना और तृष्णा की पूर्ति के लिए कमाये गये लाभ रंच मात्र ही प्राप्त होंगे।

युग परिवर्तन की घड़ियों में भगवान अपने विशेष पार्षदों को महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करने के लिए भेजता है। युग-निर्माण परिवार के परिजन निश्चित रूप से उसी शृंखला की अविच्छिन्न कड़ी हैं । उस देव ने उन्हें अत्यंत पैनी सूक्ष्म दृष्टि से ढूँढ़ा और स्नेह सूत्र में पिरोया है। यह कारण नहीं है। यों सभी आत्मायें ईश्वर की सन्तान हैं पर जिनने अपने को तपाया निखारा है उन्हें ईश्वर का विशेष प्यार-अनुग्रह उपलब्ध रहता है। यह उपलब्धि भौतिक सुख सुविधाओं के रूप में नहीं है। यह लाभ की प्रवीणता और कर्मपरायणता के आधार पर कोई भी आस्तिक नास्तिक प्राप्त कर सकता है। भगवान जिसे प्यार करते हैं उसे परमार्थ प्रयोजनों की पूर्ति के लिए स्फुरणा एवं साहसिकता प्रदान करते हैं। रिजर्व फोर्स की पुलिस एवं सेना आड़े वक्त पर विशेष प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भेजी जाती है। युग-निमार्ण परिवार के सदस्य अपने को इसी स्तर का समझें और अनुभव करें कि युगान्तर के अति महत्त्वपूर्ण अवसर पर उन्हें हनुमान् अंगद जैसी विशेष भूमिका सम्पादित करने को यह जन्म मिला है। इस देव संघ में इसीलिये प्रवेश हुआ है । युग परिवर्तन के क्रिया कलाप में असाधारण आकर्षण और कुछ कर गुजरने के लिए सतत् अन्तः स्फुरण का और कुछ कारण हो ही नहीं सकता हमें तथ्य को समझना चाहिये । अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचानना चाहिए और आलस्य प्रमाद में बिना एक क्षण गँवाये अपने अवतरण का प्रयोजन पूरा करने के लिए अविलम्ब कटिबद्ध हो जाना चाहिए। इससे कम में युग-निर्माण परिवार के सदस्य को शांति नहीं मिल सकती । अन्तरात्मा की अवज्ञा उपेक्षा करके जो लोभ मोह के दलदल में घुसकर कुछ लाभ उपार्जन करना चाहेंगे तो भी अन्तर्द्वन्द्व उन्हें उस दिशा में कोई बड़ी सफलता मिलने न देगा। माया मिली न रमा वाली दुविधा में पड़े रहने की अपेक्षा यही उचित है दुनियादारी के जाल-जंजाल में घुसते चले जाने वाले अन्धानुयायियों में से अलग छिटक कर अपना पथ स्वयं निर्धारित किया जाय। अग्रगामी पंक्ति में आने वालों को ही श्रेष्ठ भाजन बनने का अवसर मिलता है महान् प्रयोजनों के लिए भीड़ तो पीछे भी आती रहती हैं और अनुगामियों से कम नहीं कुछ अधिक ही काम करती हैं पर तब श्रेय सौभाग्य का अवसर बीत गया होता है। गुरुदेव चाहते हैं कि युग निमार्ण परिवार की आत्मबल सम्पन्न आत्मायें इन्हीं दिनों आगे आयें और अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाले युग-निर्माताओं की ऐतिहासिक भूमिकाएँ निबाहें इन पंक्तियों का प्रत्येक अक्षर इसी संदर्भ से ओत-प्रात समझा जाना चाहिए।

पिछले दिनों अभियान के प्रथम चरण में एक घण्टा समय और दस पैसा प्रतिदिन ज्ञान यज्ञ के लिए समर्पित करते रहने और उस तेल-बाती का विनियोग करते हुए अपने क्षेत्र में नव जीवन का प्रकाश फैलाते रहने भर का कार्य सौंपा गया था। प्रसन्नता की बात है कि उस अनिवार्य कर्तव्य को प्रायः सभी परिजनों ने निभाया है। कोई विरला ही हतभागी ऐसा रहा होगा जिसने इस तेजस्वी ब्रह्ममुहूर्त के अरुणोदय की अवज्ञा उपेक्षा करते हुए आँख बन्द किये रहने-झपकी लेते रहने की हठ ठानी हो। इन अपवादों को छोड़ कर गर्वोन्नत मस्तक से यह घोषणा की जा सकती है। कि युग निर्माण परिवार के प्रायः सभी सदस्य अपना प्राथमिक कर्तव्य भली प्रकार पालन कर रहे हैं झोला पुस्तकालय चलाने के लिए प्रत्येक परिजन, श्रम मनोयोग और धन नियमित रूप से लगा रहा है। भले ही उसकी न्यूनतम मात्रा अकिंचन नियत है पर प्रायः अधिकांश सदस्यों का अनुदान क्रमशः अधिकाधिक ही बढ़ता चला जा रहा है। यदि ऐसा न होता हो तो मिशन का जो गगनचुम्बी विस्तार इन दिनों परिलक्षित हो रहा है। वह कैसे संभव हुआ होता?

किन्तु प्रगति के साथ-साथ और भी सब कुछ बढ़ जाता है। छोटे बालक का भोजन वस्त्र तथा अन्य खर्च स्वल्प होता है पर जैसे-जैसे बढ़ता है, आवश्यकता भी हर क्षेत्र में बढ़ जाती है। मिशन का बालक पन अब किशोर अवस्था में प्रवेश कर रहा है। यौवन आभास उभर रहा है। ऐसी दशा में सब साधन सामग्री का स्तर भी सहज ही बढ़ जाना चाहिए। चिड़िया अण्डे को छाती की गर्मी से पका लेती है, पर वे जब बच्चे बन कर घोंसले में कुलबुलाते हैं तो उनके लिए चिड़िया को दूर-दूर तक दौड़ कर चुगा चारा इकट्ठा करना पड़ता है। गुरुदेव चिड़िया की तरह देश देशान्तरों में उड़ रहे हैं और मिशन की प्रौढ़ता जिस साधनों की अपेक्षा करती है उन्हें जुटाने के लिए लगे हैं।

इन परिस्थितियों में हमारा कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जात है । ज्ञान यज्ञ के लिए स्वल्प सहयोग से बढ़कर अब माँग का दायरा कहीं अधिक विस्तृत हो गया है। अब विभूतियों की पुकार हैं छोटा छप्पर हाथों हाथ उठा लिया जाता है पर भारी बोझ तो क्रेनें ही उठाती हैं। आज दिशायें क्रेनों की पुकार गुहार लगा रही हैं। युग की माँग अब इससे कम में पूरी नहीं हो सकती । अब विभूतियाँ चाहिए- विभूतियों की चर्चा पिछले कई अंकों से इस स्तम्भ में होती चली आ रही है। प्रतिभा, साहित्य, कला, सम्पत्ति विज्ञान, सत्ता, अध्यात्म की सात विभूतियों की चर्चा हो रही है। इन्हें उभारना और जुटाना ही पड़ेगा। हम सब को अब इसी ओर ध्यान देना चाहिए।

गत अंक में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है कि प्रतिभा की सर्वोपरि विभूति हम सब के पास प्रचुर परिमाण में मौजूद हैं किसने इसे कम निखारा किसने अधिक, इस भेद में थोड़ी न्यूनाधिकता हो सकती है पर जिस प्रकार प्रत्येक परमाणु में अजस्र शक्ति भरी है और विस्फोट के अवसर पर उसकी प्रतिक्रिया स्पष्ट देखी जा सकती है उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति में प्रतिभा मौजूद है। जागृत आत्माओं में तो वह सहज ही अत्यधिक होती है। युग निमार्ण परिवार के प्रत्येक सदस्य में उसकी समुचित मात्रा विद्यमान् है जो आदर्शवादिता और उत्कृष्टता की उठती हुई हिलोरों के रूप में सहज ही जानी परखी जा सकती है, इसे अग्नि प्रज्ज्वलन की तरह तीव्र से तीव्रतर-तीव्रतम किया जाना चाहिए। जिस संकल्प और विश्वास के साथ लोभ मोह की पूर्ति करने वाले साधनों में लगते है-काम और क्रोध के क्षणों में जैसी आतुरता होती है-मद और मत्सर के लिए जितना मनोयोग लगता है उतना ही यदि ईश्वर के सामयिक निर्देशों को समझने आत्म की युग की पुकार का अनुसरण करने में लग पड़ा जाय तो सामान्य से सामान्य स्तर का व्यक्ति भी कुछ ही समय में महामानव स्तर का बन जाएगा उसकी प्रतिभा प्रभात कालीन ब्रह्ममुहूर्त में उदीयमान प्रातःकाल की तरह विकसित परिष्कृत हो सकती है। हममें से कोई भी अपने को विभूतिवान् प्रतिभावान बना सकता है और नवनिर्माण के आवश्यक साधन की पूर्ति करने योग्य अपना व्यक्तित्व विनिर्मित कर सकता है। आस्था, निष्ठा सहित संकल्प और पुरुषार्थ जब श्रेय साधन की दिशा में अग्रसर होता है तो व्यक्ति को देवतुल्य बनने में आत्मा को परमात्मा होने में देर नहीं लगती। हमें अपना साहस और संकल्प उभारना चाहिए। अन्धी भेड़ें किधर जा रही हैं -क्या चाह रही हैं यह देखने की अपेक्षा परमेश्वर के संकेत को युग-धर्म को शिरोधार्य करके ऐसे कदम बढ़ाने चाहिए जो अपने लिए समस्त संसार के लिए श्रेय साधन प्रस्तुत कर सकें। यदि ऐसा कदम बढ़ा सकना अपने लिए संभव हो सके तो गुरुदेव की महाकाल की-एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक हो सकती है। जहाँ तेजस्विता जीवित हो वहाँ यह चुनौती स्वीकार की ही जानी चाहिए।

अन्यान्य प्रतिभाओं की खोज हो रही है, जहाँ वे हैं वहाँ उन्हें खटखटाया और जगाया जा रहा है। सच्चे योगी तपस्वी और आत्मवादी जहाँ कहीं होंगे व्यक्तिगत स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि का प्रलोभन छोड़ कर आपत्ति धर्म का पालन करते हुए युग परिवर्तन के धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अर्जुन की तरह दृष्टिगोचर होंगे। सत्ताधारियों को कई अदृश्य शक्ति मोड़ने मरोड़ने में लगेंगी, वे क्षेत्र गत और गत संकीर्णता से ऊँचे उठ कर विशाल दृष्टि से सोचना शुरू करेंगे। सत्ता पक्ष न सही विरोध पक्ष जनता के इसी आदर्श का पक्षधर समर्थक बनाएगा अगले दिनों लोग वर्ग स्वार्थ के लिए लड़ने के लिए उत्पन्न नहीं किये जा सकेंगे। हर राजद्वारों को विशाल और व्यापक दृष्टि रख कर भावी योजनाओं का आधार खड़ा करना होगा।

साहित्यकार अगले दिनों लोक रंजन के लिए नहीं लिखेंगे उन्हें माता सरस्वती से वेश्या वृत्ति कराने में ग्लानि अनुभव होगी और कलम का उपयोग जन मानस को पाप पंक में धकेलते हुए उनकी आत्मा रोएगी। आत्मग्लानि से प्रताड़ित साहित्यकार अब दिनोंदिन लोक मंगल की दिशा में बढ़ेगा। कलाकार कवि गायक, वादक, चित्रकार, मूर्तिकार अभिनेता की आजीविका अब पशुता को भड़का कर अबोध लोक मानस के साथ व्यभिचार करने की प्रवंचना नहीं रखेंगी वरन् वे अपनी प्रतिभा को उसी दिशा में मोड़ेंगे जिधर मोड़ने के लिए मानवता उन्हें करुण क्रन्दन भरे स्वरों में पुकारती है। कला और साहित्य की भूमिका अगले दिनों नवनिर्माण की होगी पिछले दिनों इस क्षेत्र में जिस प्रवंचना ने जड़ें जमा ली थीं उनका अहं लोक धिक्कार की भर्त्सना में जल-जल कर विनष्ट ही हो जाएगा

विज्ञान दुधारी तलवार है उसे पैशाचिकता के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है और समर्थ संरक्षण के लिए भी । अगले दिनों विज्ञान के सिद्धान्त अध्यात्म विरोधी न रहकर समर्थक सहयोगी होंगे। साथ ही नये आविष्कारों का उदय और पुरानों का परिमार्जन इस प्रकार होगा कि वैज्ञानिकों की श्रम साधना मानव कल्याण के विविध पक्षों में अभिनव उपलब्धियों का प्रयोग कर सके। आज संकीर्णता वादी राज सत्ताओं ने विज्ञान को-वैज्ञानिकों को अपने फौलादी पंजों में जकड़ रखा है और उससे करने न करने योग्य कार्य करा रहे है। । कल ऐसा न हो सकेगा। विज्ञान को भी मुक्ति मिलेगी और वह युगान्तर कारी भूमिकाएँ सम्पन्न करेगा।

यही क्षेत्र भीतर ही एक पक और उभर रहे हैं। कुछ ही समय में हम देखेंगे कि इन विभूतियों ने कैसी अद्भुत करवट ली। प्रतिगामी तत्त्वों को कैसे नीचा दिखाया । आज जो अपनी छद्म-दुष्टता को छिपाये हुए दोनों हाथों से धन और यश लूट कर गर्वोन्नत हो रहे हैं कल उन्हें बेतरह पछताते पददलित होते देखा जा सकेगा। उदीय लोकमानस इन अनाचारियों की बोटी-बोटी नोंच लेगा और उनकी घृणित दुरभि संधियों को एक स्वर में धिक्कारा जाएगा आज के पदोन्नति पर आँसू बहा रहे होंगे। उसी स्तर का परिवर्तन लाने के लिए गुरुदेव इन दिनों आकाश में उड़ रहे हैं। युग निमार्ण परिवार इन दिनों भारत में एक सुधारवादी धर्म संगठन के रूप में दीखता है कल उसकी भूमिकाएँ सर्वतोमुखी सर्वभौम, सार्वजनिक होंगे। अनेकता को एकता में परिणत करने वाले प्रयास कहाँ से कहाँ किस तरह उभरते हैं इनके मनमोहक और आश्चर्य चकित करने वाले दृश्य देखने के लिए प्रत्येक दूरदर्शी आँखों वाले को अब तैयार ही रहना चाहिए।

कैंसर के फोड़े की तरह विभूतियों का एक क्षेत्र ऐसा है जिसकी चिकित्सा अति कष्टसाध्य प्रतीत हो रही है। कारवेंकिल- रीढ़ की हड्डी का फोड़ा इतना विषाक्त होता है कि उसके चंगुल से कोई रोगी कदाचित ही बचता है। विभूतियों में सम्पत्ति का एक रोग ऐसा है जिसमें नशे ने आगे बढ़कर विष का रूप धारण कर लिया है। लगता है इसकी मरम्मत नहीं हो सकेगी उसे मिट्टी में डालकर दुबारा गलाना और ढालना पड़ेगा। सम्पत्ति का लोभ, आकर्षण संग्रह और अपव्यय उस स्तर पर विभीषिका के उस बिन्दु पर जा पहुँचा है वैसा सुधार कठिन है जैसा कि विभूतियों के अन्य क्षेत्रों में सम्भव है। साहित्यकार, कलाकार, धर्म नेता विज्ञानी प्रतिभा यहाँ तक कि सत्ताधारी भी युग की आवश्यकता और दिशा का पूर्वाभास अनुभव कर रहे हैं और उन्हें विश्वास हो गया है कि समय के साथ चलने में ही भलाई है। वे नियति की प्रेरणा और भगवान की इच्छा को समझने लगे है। तदनुसार उनमें सामयिक परिवर्तन सरलता पूर्वक हो सकेगा गुरुदेव अपने यात्रा अनुभव में यह निष्कर्ष लेकर लौटे हैं।

किन्तु धनाधीशों के बारे में उनका निष्कर्ष सर्वथा विपरीत है। स्थिति का मूल्यांकन उन्होंने इस प्रकार किया हे कि वे समय न तो समझ ही पा रहे हैं और न उसके साथ बदलने को तैयार हैं। अधिकाधिक संग्रह, अधिकाधिक अपव्यय और अधिकाधिक अहंकार की पूर्ति में यह क्षेत्र उतने गहरे दलदल में फँस गया है कि वापिस लौटना कठिन ही दीखता है कोई धनी अपने को निर्धन बनाने के लिए तैयार नहीं । परमार्थ के नाम पर आत्म विज्ञापन के लिए बदले में परलोक गत विपुल सुख सुविधा खरीदने के लिए कोई कुछ पैसे-कौड़ी फेंक सकता है। इससे आगे की आशा नहीं की जा सकती है। आज न कोई भी भामाशाह, अशोक, मान्धाता, वाजिश्रवा, जनक, भरत, हरिश्चन्द्र, उपार्जन क्षमता का लाभ इन्द्रिय लिप्सा की अहंता की तृप्ति से आगे अन्य किसी काम में करने के लिए तैयार नहीं। स्त्री-पुत्रों से आगे के क्षेत्र में उदारता बरतने और अनुदान देने के लिए किसी को साहस नहीं हो रहा है। उपार्जन की न्याय की औचित्य की मर्यादायें टूट चुकीं। जिससे-जैसे बन पड़ रहा है वह उचित अनुचित का भेदभाव किये बिना दोनों हाथों से कमाने में लगा है। कौशल के अभाव में कोई आये रहता है कोई पिछड़ता है, यह घुड़ दौड़ में होता रहता है पर दिशा सभी घोड़ों की एक है। उनकी चेतना इतनी परिपक्व हो गई है कि उस पर उपदेशों की बूँदें चिकने पड़े पर पड़ने के बाद इधर उधर ढुलक कर रह जाती है। प्रभाव कुछ नहीं होता ।

लगता है विभूति का यह क्षेत्र दुबारा गलाने के लिए भट्टी में भेजना पड़ेगा वहाँ उसमें नये साँचे में ढल सकने लायक नरमी पैदा हो सकेगी। गाँधी की ट्रस्टीशिप, विनोबा का भूदान सम्पत्ति दान ऋषियों का अपरिग्रह अब दर्शन शास्त्र का एक पाठ्यप्रकरण भर है। उसे व्यवहार में उतारने की कोई गुँजाइश नहीं दीखती । फलतः उसके भाग्य में दुर्गति होती ही लिखी दीखती है। फ्राँस के लुई रूस के जार-भारत के राजाधिराज, रूस के उमराव, चीन के अमीर महाकाल की एक लात से किस तरह चूर्ण विचूर्ण हो गये उसे कोई देख समझ सका होता तो मानवी निर्वाह में प्रयुक्त होने वाले चंद पैसों को छोड़कर विपुल सम्पदा का उपयोग लोक कल्याण के लिए अभाव और अज्ञान को मिटाने के लिए किया गया होता मिलजुल कर बाँटा खाया गया होता, तो संसार में शांति और समृद्धि की कमी न रहती। पर आज के लोभ मोह के सर्वभक्षी नग्न नर्तन को देखते हुए ऐसी समझ का उत्पन्न हो सकना, धनी वर्ग में तो लगभग असंभव हो दीखता है। यों लंका में विभीषण भी हो सकते हैं पर उतने भर से क्या बनेगा समय आर्थिक क्षेत्र में साम्यवाद को ही प्रतिष्ठापित करेगा।

यह प्रक्रिया कहाँ धीमी होती है, कहाँ झटके से उतरती है यह बात दूसरी है, पर होना यही है, राजा महाराजाओं का स्वरूप अब अजायबघरों की शोभा बढ़ायेगा और इतिहास के पृष्ठों पर कौतूहल पूर्वक पढ़ा जाएगा ठीक इसी प्रकार कुछ समय पश्चात् अमीर उमराव, धनाध्यक्ष और वैभवशाली वर्ग भी अपना अस्तित्व समाप्त कर लेगा समय की आवश्यकता उपयोगिता से बाहर की चीज कूड़े करकट के ढेर में डाली जाती रही हैं। सम्पन्नता की भी अगले दिनों ऐसी दुर्गति ही होने जा रही है।

यह सब तो भविष्य का दिग्दर्शन हुआ। युग परिवर्तन के लिए आज दिन विभूतियों की आवश्यकता पड़ रही है, उनमें एक का नाम सम्पत्ति भी है। विद्या की तरह उसका भी महत्त्व है। काँटे से काँटा निकाला जाता है, तलवार से तलवार का मुकाबला होता है। कौरव सेना के सामने पाण्डव सेना और रावण असुरता से वानर दल को जूझना पड़ा था सम्पत्ति के मोर्चे पर भी हमें लड़ना पड़ेगा। बौद्धिक परिवर्तन के लिए ज्ञान यज्ञ का विशाल काय कलेवर खड़ा करना पड़ेगा रचनात्मक और संघर्षात्मक प्रवृत्तियों का अभिवर्धन भी साधनों की अपेक्षा करता है। इसकी पूर्ति धनी वर्ग चाहता तो अति सरलता पूर्वक कर सकता था पर वह मरणासन्न रोगी की तरह है उसके सुधरने बदलने की आशा लगभग छोड़ ही देनी चाहिए और प्रयोजन की पूर्ति के लिए हमें सीमा जन्म के लिए किये गये ऋषि रक्त संचय की तरह ही आत्मोत्सर्ग की एक और कड़ी जोड़नी चाहिए एक और परीक्षा उत्तीर्ण करनी चाहिए।


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