दूसरों का सहारा न तकें, आत्मनिर्भर बनें

April 1973

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जितना प्रयास दूसरों का आसरा लेने और जिस-तिस का दरवाजा खटखटाने में किया जाता है यदि उतना ही स्वावलम्बन पर केन्द्रित किया जाय तो उससे कहीं अधिक मिल सकता है, जो अन्य किन्हीं की सहायता से मिल सकना संभव है।

यों देवताओं की संख्या बहुत है और उनके महत्त्व महात्म्य भी बहुत हैं पर उनकी साधना सर्वदा अभीष्ट फल प्रदान नहीं कर सकती। एक ही देवता ऐसा है जिसकी साधना का सत्परिणाम असंदिग्ध रूप से प्राप्त होता है ऐसा शक्तिशाली महादेव है-आत्मदेव अब तक किसी को भी यह परिवाद नहीं करना पड़ा कि आत्मदेव की पूजा अर्चना से किया गया श्रम निरर्थक चला गया अथवा उसके दरबार से खाली हाथ लौटना पड़ा।

भिक्षा माँगने में दीन दयनीय बन कर जितना श्रम किया जाता और समय लगाया जाता है उसकी अपेक्षा कम श्रम और कम समय में कहीं अधिक कमाया जा सकता है। यह तथ्य यदि आँख से ओझल न रहे तो अपना सम्मान गँवाये न स्तर गिराये और न घाटे में रहे।

आत्मदेव की उपासना का अर्थ है अपने गुण कर्म स्वभाव का परिष्कार। मनुष्य में अकूत शक्तियाँ भरी पड़ी है। उनका जागरण थोड़े ही प्रयास से हो सकता है शर्त एक ही है कि वैसी उत्कृष्ट अभिलाषा जागृत हो और आत्म परिष्कार के उत्कृष्ट अभिलाषा जागृत हो और आत्म परिष्कार के उत्कृष्ट प्रयास में जुट पड़ने की तत्परता सक्रिय की जाय। मनुष्य में इतना विशेषताएँ बीच रूप में विद्यमान् हैं कि उनका जागरण सहज ही प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचा देने में समर्थ हो सकता है। महामानवों के जीवन क्रम में पग-पग पर यही तथ्य जगमगाता दीखता है। कि उनने अपने गुण, कर्म, स्वभाव को व्यवस्थित एवं परिष्कृत बनाने में उत्कृष्ट प्रयास किया और उसमें तब तक लगे ही रहे जब तक आत्म विजय की तपस्या को पूरी तरह फलदायी न बना लिया गया।

आलस और प्रमाद के दुर्गुण हैं जो मानवी जाति का सबसे अधिक क्षरण अपना समय गँवाते रहते हैं फलतः उनका सौभाग्य भी साथ ही गुम हो जाता है। सामने प्रस्तुत कर्म में उदासी उपेक्षा, बरतने वाले, कर्म को भार समझ कर उसका बोझ ढोने वाले पग-पग पर थकते हैं और प्रगति का पथ अपने हाथों प्रशस्त करते हैं। काम में मनोयोग लगाकर उस माध्यम से कौशल विकसित करना और पुरुषार्थ का आनन्द लेना कितना अधिक मंगलमय है इसका रहस्य कोई विरले ही जानते हैं पुरुषार्थी, श्रमशील और मनस्वी कर्म परायण व्यक्ति आत्म निर्माण में संलग्न रहकर कुछ ही समय में इतने सुयोग्य एवं सक्षम बन जाते हैं कि अपनी उचित आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति सहज की की जा सके।

नेक, भला मनुष्य और चरित्रवान बन कर रहना इतनी बड़ी उपलब्धि है कि उस प्रामाणिकता के आधार पर दूसरों स्नेह-सद्भाव सहज ही आकर्षित किया जा सकता है। सज्जनता और सरलता की रीति नीति विविध विधि चरम चातुर्य की तुलना में कही अधिक लाभदायक सिद्ध होती है। उद्धत व्यक्ति आतंकवादी उद्दण्डता बरतने पर अहंकार की जितनी प्राप्ति करते हैं उससे असंख्य गुना सम्मान विनयशील एवं सुसंस्कारी व्यक्ति प्राप्त करते हैं। व्यवस्थित रीति-नीति अपनाकर निर्धारित लक्ष्य की ओर अनवरत निष्ठा के साथ चलते रहने वाले अन्ततः सफल मनोरथ होकर ही रहते हैं।

स्वावलम्बन की साधना करने वाले ही अभीप्सित मनोरथ पूर्ण कर सकने का वरदान प्राप्त करते हैं इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही श्रेयस्कर है।


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