शक्तियों का आवश्यक अपव्यय न किया जाय

April 1973

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शरीर में शक्ति का अभाव नहीं वह इतनी प्रचुर मात्रा में मौजूद है कि यदि उसे ढंग से खर्च किया जाय तो आमतौर से लोग जितना काम करते हैं उसकी तुलना में कम से कम दूना काम तो सहज ही किया जा सकता है।

होता यह है कि सार्थक प्रयोजन में जितनी शक्ति खर्च होती है, उससे कहीं अधिक निरर्थक कर्मों में खर्च होती रहती है। यदि सतर्कता से काम लिया जाय तो इस अनावश्यक अपव्यय को बचाया जा सकता है और ऐसे कार्यों में लगाया जा सकता है जिनसे कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है।

अकारण बकझक में जिह्वा के माध्यम से कितनी शक्ति नष्ट हो जाती है लोग उसका मूल्यांकन करते ही नहीं। वे यह भूल जाते हैं कि क्रिया कुछ भी क्यों न हो उसके लिए ऊर्जा चाहिए और उसे जुटाने में कोशिकाओं का ईंधन जलेगा ही। यह होली की तरह क्यों फूँका जाय। जलाना ही हो तो चूल्हे की तरह जलाना चाहिए जिससे कुछ पकाये जाने या बनाये जाने का प्रयोजन सिद्ध हो। व्यायाम करना और बात है। उसके पीछे उद्देश्य है पर बेकार की उछल-कूद चंचलता और मटरगश्ती में न केवल समय बर्बाद होता है वरन् शक्ति का ऐसा महत्त्वपूर्ण कोश चुकता है जिसे यदि उपयोगी योजनाबद्ध कार्यों में लगाया जाय जो उतने से ही प्रगति की दिशा में काफी दूर तक आगे बढ़ा जा सकता है। सतर्कता बरत कर शक्ति की यह थोड़ी-थोड़ी बचत और उसे उपयोगी कार्यों में लगाने की प्रवृत्ति ही बूँद-बूँद करके घड़ा भरने की उक्ति के अनुसार जीवन को महान् बनाने वाली सफलताओं में परिणत होती है।

शरीर की ही भाँति मस्तिष्क शक्ति का भी लोग बुरी तरह अपव्यय करते हैं। सोचने में अधिकांश निरर्थक और निरुद्देश्य बातें भरी रहती हैं। शेख चिल्ली की तरह रंग-बिरंगे सपने देखने में न जाने कितना समय गुजर जाता है। परिस्थिति और योग्यता से उन बातों की तनिक भी संगति नहीं होती फिर भी लोग उड़ाने आकाश तक ही उड़ते रहते हैं । सिनेमा में कोई सुन्दर सी नर्तकी देखकर आये और उसी का नशा हफ्तों दिमाग पर चढ़ा रहा। यह जानते हुए भी उसका संपर्क उन जैसे गई गुजरी स्थिति के व्यक्ति के लिए सर्वथा असम्भव है तो भी यह नहीं सोचते कि उतना चिन्तन किसी काम के प्रयोजन पर केन्द्रित करें तो कितना उद्देश्य पूरा हो। छात्रों में अनुत्तीर्ण रहने वालों में से अधिकांश ऐसे होते हैं जिन्हें निरर्थक कल्पनाओं से चित्त को हटा कर उसे उपयोगी केन्द्र पर नियोजित करना नहीं आता।

कितने ही व्यक्ति जीवन क्रम के साधारण उतार चढ़ावों को आकाश पाताल जैसा बढ़ा चढ़ाकर देखते हैं और उनसे असाधारण रूप से उद्विग्न उत्तेजित हो जाते हैं। चिन्ता और व्याकुलता के कारणों का विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होता है कि जिस वजह से मन को इतना उद्विग्न किया गया वह आये दिन मानव जीवन में घटित होती रहने वाली घटनाओं में से एक बहुत ही छोटी सी हलचल थी। मानसिक उद्वेग जितनी शक्ति नष्ट करता है उसे यदि सृजनात्मक चिन्तन में लगाया जाय तो न केवल असाधारण ज्ञान वृद्धि हो सकती है वरन् वर्तमान स्थिति से ऊँचे उठने आगे बढ़ने के उपाय भी सामने आ सकते हैं। उद्वेग की आँधी तो इतनी भयंकर होती है कि उसमें उपयोगी एवं दूरदर्शिता पूर्ण सूझ-बूझ का उठना ही कठिन हो जाता है।

मनः शास्त्री विल्डर पेन फिल्ड दीर्घकालीन शोध के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की स्थिरता इस बात पर अवलम्बित है कि उसमें क्षोभ और उद्वेग कम से कम हो । जो व्यक्ति जितना ही मानसिक तनाव या दबाव अनुभव करेगा उतना ही शरीर और मन रुग्ण होगा साथ ही ऐसी विकृतियाँ उठ खड़ी होगी जिन्हें अर्ध रुग्ण स्थिति एवं अस्त व्यस्तता कहा जा सकता है। ऐसी मनःस्थिति का व्यक्ति अपने लिए और अपने साथियों के लिए एक समस्या बनकर रहता है। न वह स्वयं चैन से बैठता है और न दूसरों को बैठने देता है।

समुचित मनोयोग के अभाव में प्रायः हमारे सभी काम आधे अधूरे रहते हैं और उनका परिणाम भी असंतोषजनक ही रहता है। यदि पूरी दिलचस्पी और तत्परता से कुछ किया जाय तो सारी शक्ति एकाग्र हो जाने से छोटा काम भी इतना सुन्दर बन पड़ता है कि करने वाले की प्रतिष्ठा आदि प्रामाणिकता में चार चाँद लग जाते हैं। फिर उसे अनायास ही एक से एक बढ़कर महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व सँभालने के अवसर मिलने लगते हैं।

जब काम करना हो तो तब पूरे मन, पूरे श्रम, पूरे मनोयोग के साथ पूरी दिलचस्पी और तत्परता के साथ उसे करने में जुटना चाहिए। इस प्रकार समान रूप से सारी तन्मयता समेट कर यदि किसी काम को किया जाय तो वह अधिक मात्रा में भी होगा और उसका स्तर भी ऊँचा रहेगा। अन्वेषक और विज्ञानी यही करते हैं जब वे अपना काम आरंभ करते हैं तो एक प्रकार से उसमें खो जाते हैं। दूसरी बात उन्हें सूझती ही नहीं। शरीर की प्रत्येक हरकत और मन की हर तरंग की उसी लक्ष्य पर एकाग्रता रहती है। आँख हृदय जैसे महत्त्वपूर्ण अंगों का आपरेशन करते समय सर्जन की पूरी तन्मयता अपने काम पर केन्द्रित रहती है यदि वह अधूरे मन से उस क्रिया को सम्पन्न करे तो रोगी की जान पर बन आयेगी।

हमारा प्रत्येक काम, विज्ञान अन्वेषी या जिम्मेदार सर्जन जैसा होना चाहिए। काम चाहे छोटा हो या बड़ा उसकी उत्कृष्टता ही करने वाले का गौरव है घटिया काम करके रख देना किसी व्यक्ति बुरी किस्म का असम्मान है। भौंड़ा, फूहड़, अधूरा काम उनका होता है जो अन्यमनस्क होकर आधे मन से काम करते हैं। इसमें समय भी बहुत बर्बाद होता है। काम भी कम होता है और जो होता है उसका स्तर गया गुजरा होता है। ऐसा कर्त्तृत्व करने वाले व्यक्तित्व को ही गिराता है। इस रीति-नीति को अपनाने वाले व्यक्ति कभी कोई ऊँचा काम नहीं कर सकते और उन्नति के उच्च शिखर पर नहीं चढ़ सकते ।

काम को बहुत देर लगातार करते रहना उचित नहीं। बीच-बीच में विश्राम चाहिए, विश्राम का मतलब काम की दिशा बदल देना है। हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना चाहिए । चुप चाप बैठे भी रहें तो भी मस्तिष्क तो अपना काम करेगा ही, वह कुछ न कुछ सोचेगा ही, किसी न किसी उधेड़ बुन में वह लगेगा ही। उसकी बनावट ही ऐसी नहीं है कि चुपचाप बैठा रह सके । यहाँ तक कि सोते समय भी उसे चैन नहीं पड़ता और सपने गढ़ कर उनके साथ खेलने लगता है । मस्तिष्क को विश्राम देने का महत्त्व समझना चाहिए और उसके लिए क्या किया जाना चाहिए इससे परिचित होना चाहिए।

दफ्तरों में छः दिन काम करने के बाद सातवें दिन इतवार की छुट्टी रहती है । बाज़ार भी सप्ताह में एक दिन बन्द रहते हैं। सिनेमा के बीच अन्तराल होता है। शरीर रात को सोकर छुट्टी मनाता है। यह छुट्टी समय की बर्बादी नहीं है वरन् अगले दिन अधिक काम कर सकने की सामर्थ्य संग्रह करने की तैयारी है। मशीनों को भी लगातार नहीं चलाया जाता । यदि उन्हें अवकाश न दया जाय तो गरम होकर अपनी जीवन अवधि से बहुत पहले ही खराब हो जाएगी हमें शरीर और मन को भी विश्राम देना चाहिए ताकि उनकी कार्य क्षमता और स्थिरता व सुदृढ़ता अक्षुण्ण बनी रहें।

लगातार कड़ा काम करते रहना और विश्राम की व्यवस्था न करना वस्तुतः कम काम करने और घाटा सहने का ही एक फूहड़ तरीका है। यद्यपि ऐसे व्यक्ति अपनी कर्मठता की शेखी बहुत बघारते हैं। समय पर भोजन तक नहीं कर पाते-सोने का कोई समय नहीं, इतने व्यस्त रहते हैं । यह कहकर अपने मन में झूठा संतोष किया जा सकता है या दूसरों पर अपनी धाक जमाई जा सकती है। पर इससे प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता । लगातार और अस्त-व्यस्त ढंग से काम करने वाला व्यक्ति बेतरह थका रहता है। थकान चिड़चिड़ाहट उत्पन्न करती है और क्षमता घट जाने से काम भी उतने अच्छे नहीं होते, जितने कि ताजगी की स्थिति में हो सकते थे। प्रातः सोकर उठने पर ताजगी की स्थिति में जितना अच्छा काम हो सकता है उतना थक कर चूर-चूर हो जाने पर रात के समय कर सकना कदापि संभव नहीं ।

शरीर का रासायनिक संतुलन मुख्यतः तीन ग्रन्थियों पर अवलम्बित है। एक पिट्यूटरी-मस्तिष्क के नीचे हैं। ड्रेनल गुर्दे के समीप दो ग्रन्थियाँ है। हारमोन तथा दूसरे अति रासायनिक तत्त्वों का निमार्ण, शोधन एवं परिवर्तन प्रायः इन्हीं की सक्रियता के कारण संभव होता है। अधिक और लगातार श्रम करने का प्रभाव इन तीनों ग्रन्थियों पर पड़ता है और वे अपना काम ठीक तरह न कर पाने से शरीर की रासायनिक आवश्यकता ठीक तरह पूरी कर सकने में असमर्थ हो जाती है। इस प्रकार हमारी आन्तरिक एवं अदृश्य भूख पूरी न होने के कारण भीतरी दुर्बलता बढ़ती जाती है और रोग निरोधक तथा दूसरी क्षमताओं का भंडार रिक्त होता हुआ चला जाता है। यह स्थिति सचमुच चिन्ताजनक है।

मस्तिष्क का सारा भार हटा कर पूर्ण निश्चिन्त और खाली मन करके यदि थोड़ी देर भी विश्राम कर लिया जाय तो उससे थकान दूर करने और ताजगी लाने में उतनी सहायता मिलती है जितनी कि उद्विग्न में से घंटों लेटे रहने से भी नहीं मिलती।

नेपोलियन वोनापार्ट को दिन रात युद्ध कार्यों में व्यस्त रहना पड़ता था। दिन में वह अपने सैनिकों के साथ लड़ता था और रात को अगले दिन की योजनाएँ बनाता था। उसे पूरी नींद या समुचित विश्राम का अवसर नहीं मिलता था, उसने शिथिलीकरण की विधि अपनाई। जब भी अवसर मिलता अपना शरीर और मन पूरी तरह शिथिल करके पड़ा रहता और एक घंटे का एक विश्राम ही उसके लिए पूरी रात सोने का काम पूरा कर देता। कभी कभी तो वह अपने घोड़े को किसी पेड़ के सहारे खड़ा करके उसी पीठ पर बैठा बैठा ही झपकी ले लेता और यह शरीर और मन को दिया गया गहरा विश्राम उसे फिर नये सिरे से ताजगी प्रदान कर देता ।

कहते हैं कि रूस के अधिनायक स्टालिन की मृत्यु मस्तिष्क की नली फटने के कारण हुई थी और उसका कारण लगातार उग्र चिन्तन करना था। अपने ही देश में कुछ समग्र पूर्व सरदार पटेल और गोविन्द बल्लभ पन्त की मृत्यु के कारणों में ऐसा ही विग्रह प्रधान था।

कनाडा के शरीर विज्ञानी डा. हेन्स सेल्ये इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्वास्थ्य के बिगड़ने और मनः संस्थान को अस्त-व्यस्त करने का प्रधान कारण नाडी संस्थान पर बढ़ा हुआ तनाव ही है। और इसका प्रधान हेतु श्रम करने का संतुलन बिगड़ जाना है। लोग काम करना तो चाहते है पर यह नहीं जानते कि उसे किया कैसे जाना चाहिए।

शरीर और मन का तनाव कोई आकस्मिक या अप्रत्याशित घटना नहीं है। वह बादलों की तरह बरसता नहीं और न बिजली की तरह गिरता है। वह आग्रह पूर्वक बुलाने पर स्वाभिमानी अतिथि की तरह ही आता है। बेढंगे मन से अत्यधिक काम करना इस संकट के आगमन का मुख्य कारण है। ढंग-कायदे ओर करीने के साथ आदमी 18 घंटे भी काम करता रह सकता है। पर यदि बेतरतीब आठ दस घंटे भी काम किया जाय तो बेतरह थकान आयेगी और तनाव उत्पन्न हो जाएगा

शक्ति को अनावश्यक कार्यों से बचाना-उसे उपयोगी कार्यों में लगाना-हलके मन से किन्तु पूरी दिलचस्पी के साथ काम करना-श्रम और विश्राम को एक दूसरे से जोड़कर चलना ऐसे सूत्र हैं जिन्हें अपना कर अच्छा और अधिक काम किया जा सकता है। कहना न होगा कि सफल और समुन्नत जीवन की सकना केवल उन्हीं के लिए संभव होता है। जो अपने शारीरिक मानसिक शक्ति संतुलन का ध्यान रखते हुए उपयोगी और महत्त्वपूर्ण कार्यों पर अपनी गति-विधियाँ केन्द्रित किये रहते हैं।


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