प्रवासी भारतीयों के साथ घनिष्ठता सुदृढ़ की जाय

April 1973

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अपने स्वजन संबंधी कहीं बाहर जाकर रहने लगें तो भी उनके साथ जड़ी हुई न तो आत्मीयता टूटती है और न रक्त का रिश्ता टूटता है । जल्दी-जल्दी मिलना जुलना न हो सकने पर भी निवासी आत्मीयजनों के प्रति ममता का अन्त नहीं हो सकता और न होना ही चाहिए।

परिस्थिति वश भारत माता के लाखों करोड़ों सपूतों को विदेश जाना पड़ा। और वे प्रवासी भारतीय बन गये। भूतकाल में इस देश में धर्म प्रचारक समाज व्यवस्थापक, कुशल प्रशासक, शिल्पी, व्यवसायी, चिकित्सक, शिक्षा शास्त्री संसार के कोने-कोने में भेजे जाते रहे हैं। उन्होंने अपनी प्रतिभा से जो लाभ देश विदेश में पहुँचाया उसके लिए समस्त विश्व उनके प्रति कृतज्ञ रहा है। जगद्गुरु, चक्रवर्ती प्रशासक के रूप में उन्हें व्यापक सम्मान प्राप्त हुआ। भगवान बुद्ध ने अपने हजारों शिष्य सुव्यवस्थित योजना के अन्तर्गत विदेशों में भेजे थे और उन्हें संसार के विभिन्न भागों की विविध विधि सेवा साधना का निर्देश दिया था। तदनुसार एशिया भर में बौद्ध धर्म तेजी से फला और प्रगति के विविध विधि प्रयास वहाँ पाये। यह प्रवासी भारतीय और उनके वंशज एवं अनुयायी एशिया में बहुलता पूर्वक और संसार भर में न्यूनाधिक रूप में फैले हुए हैं। दुर्भाग्य इतना ही हुआ कि भारत के और उनके बीच का संबंध एक प्रकार से टूटता चला गया और एक महत्त्वपूर्ण कड़ी नष्ट हो गई। अन्यथा हिन्दू धर्म उस संस्कृति की पताका विश्व भर में फहरा रही होती आज तो बौद्ध धर्म अपने आपको हिन्दू धर्म का अविच्छिन्न अंग मानने तक को तैयार नहीं। इसका, प्रवासी भारतीय धर्मानुयायी और भारत भूमि के संबंध सुदृढ़ बनाये रखने के लिए बरती जाने वाली प्रक्रिया की उपेक्षा करने की भूल भी सबसे बड़ा दुखदायी कारण रही है।

मध्य काल में बहुत से भारतीय विदेशों में व्यापार के लिए गये और वहीं बस गये। अंग्रेजी शासन काल के दिनों में गोरों ने संसार के विभिन्न भागों में अपने उपनिवेश कायम किये। उन्हें आबाद करने के लिए कुशल कर्मियों की जरूरत पड़ी। अंग्रेज उन्हें आकर्षक प्रलोभन देकर विदेशों में ले गये और उन्हें वही बस जाना पड़ा। उन दिनों के श्रमिक कारीगर मात्र थे पर जब वहाँ बस गये तो अपनी योग्यता, शिल्प कुशलता एवं पूँजी के बल पर सम्भ्रान्त नागरिकों जैसी सुखद परिस्थितियों में वे रहने लगे। नेपाल, भूटान, लंका, वर्मा किसी समय विशाल भारत के ही अंग थे, पर पीछे विभाजन एवं पृथक्करण के कारण वहाँ के भारतीय भी प्रवासी बन गये। अब तो पाकिस्तान में भी वही हुआ है।

जो जहाँ निवास करे वहाँ की नागरिक वफादारी उसे राजनैतिक दृष्टि से निभानी ही चाहिए। पर धर्म उद्गम और संस्कृति माता के भावात्मक स्नेह-संबंध भी ऐसे हैं जिन्हें सहज ही नहीं तोड़ फेंका जाना चाहिए। मुसलमान कहीं भी रहें मक्का की तरफ मुँह करके नमाज पढ़ते हैं। यरुसलम के प्रति ईसाइयों की वैसी ही निष्ठा है। लोग बुद्ध भगवान से सम्बन्धित स्थानों का दर्शन करने किस भावना के साथ आते हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं। विचारशील लोग जानते हैं कि भावनाओं का परस्पर जुड़ा रहना देश देशों की बीच महत्त्वपूर्ण होता है। पाकिस्तान ने कश्मीर पर और बाँग्लादेश पर जो अत्याचार किए वे सर्वत्र निन्दनीय ठहराये गये किन्तु मुसलमान देश इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान के अनुचित कदमों का भी समर्थन करते रहे । यह उदाहरण है कि भावनात्मक एकता ही कितना महत्त्व है। ईसाई मिशनरी अरबों रुपया खर्च करके लाखों धर्म प्रचारकों द्वारा इसीलिए मसीहा धर्म फैलाने में लगी है कि विश्व भर में साँस्कृतिक एकता के नाम पर अपने वफादार और विश्वास पैदा कर सकें और उस आधार पर अपना एक शक्तिशाली गुट खड़ा कर सकें।

दुर्भाग्य हमारा है कि प्रवासी भारतीयों के साथ स्नेह सद्भाव का आदान -प्रदान करते रहने की महत्ता, उपयोगिता एवं आवश्यकता को हम एक प्रकार से भुला ही बैठे। भारतीय विदेशों में बसे हुए भारतीयों को यदि उनकी मातृभूमि से मार्ग दर्शन, प्रकाश, सहयोग, समर्थन मिलता रहता तो वे लोग जिस प्रकार अपनी भाषा और संस्कृति को भूलते चले जा रहे हैं, वह दुर्दिन देखने को न मिलता। आदान-प्रदान का सिलसिला चलता रहा होता तो न केवल प्रवासी भारतीय ही अपनी धर्म और संस्कृति के उद्गम केन्द्र के साथ मजबूती के साथ जुड़े होते वरन् हिन्दू धर्म भी उन देशों में फैला होता । ईसाई और मुसलमान हर देश में तेजी से बढ़ रहे हैं पर प्रवासी भारतीयों की संतानों ही हिन्दू धर्म रह सकी हैं वहाँ के मूल निवासियों में कहीं भी हिन्दू धर्म नहीं फैला सका इसका एक मात्र कारण यही है कि भारतभूमि से उन्हें किसी प्रकार का कोई प्रोत्साहन नहीं मिला।

समय-समय पर भारत से इन प्रवासी भारतीयों के बीच साधु बाबा पंडित-पुरोहित संस्था संचालक जाते रहे हैं उनका मात्र उद्देश्य किसी न किसी बहाने उनका भावनात्मक शोषण करके पैसा बटोरना ही रहा है। लेने के लिए ही यह यात्राएँ हुई, देने की गंध भी उनमें नहीं थी। यदि घनिष्ठता और प्रकाश उत्पन्न करने वाले भारतीय मिशन इन प्रवासी भारतीयों के बीच आते-जाते रहते तो स्थिति उससे कहीं अधिक आशा जनक रहती जैसी कि आज है। प्रवासी भारतीयों में आज भी जो धर्म, निष्ठा, अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धः है उसका श्रेय उन्हीं को है। हमने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे इस श्रद्धा का अभिवर्धन हुआ होता।

समय आ गया कि भारत से बाहर रहने वाले प्रायः 3 करोड़ हिन्दू धर्मानुयायियों की ओर ध्यान देना चाहिए और उनकी श्रद्धः के अभिवर्धन कर सकने योग्य कदम बढ़ाने चाहिए। होना तो यह भी चाहिए कि बौद्ध धर्म को विशुद्ध रूप से हिन्दू धर्म का ही एक अंग समझा जाय और उस धर्म के अनुयायियों को भी बिछुड़े भाई समझ कर गले लगाने के लिए बहुत कुछ किया जाय, शिया शुन्नी - कैथोलिक प्रोटेस्टेण्ट - दो सम्प्रदाय होते हुए भी अन्ततः एक हैं, तो कोई कारण नहीं कि हिन्दू और बौद्ध भी उसी प्रकार एक होकर रहें जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त सनातनी, आर्य समाजी, सम्प्रदाय भेद होते हुए भी एक हैं। सिख और जैन हिन्दू धर्मानुयायी हैं फिर बौद्ध और हिन्दू धर्म में परस्पर घनिष्ठता और एकता बढ़ाने में क्यों और क्या कठिनाई होनी चाहिए।

फिलहाल हमें एक कदम तो तत्काल उठाना चाहिए कि विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों की जानकारी प्राप्त करें-उनके साथ घनिष्ठता बढ़ाने और उनकी श्रद्धः एवं आत्मीयता को सुविकसित करने के लिए प्रचार यात्राओं को लेकर अन्य प्रकार के सहयोग प्रदान करने के लिए कदम उठाये ईसाई मिशन-भारतीय इसाइयों के समर्थन एवं अभिवर्धन के लिए कितना कुछ कर सकती हैं तो हमें कम से कम प्रवासी भारतीयों की श्रद्धः सद्भावना का अभिवर्धन करने के लिए प्रचार यात्राएँ तो आरम्भ कर ही देनी चाहिए।

अन्य देशों में प्रवासी भारतीयों की स्थिति के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है उसे देखते हुए हमें आगे क्या करना है इस पर विचार करना चाहिए।

ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, कनाडा, फिजी, ट्रीनडाड, सुरीनाम, चाइना, सिंगापुर में भारत मूल के लोग विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक संगठन, सार्वजनिक-सेवा कार्य सुचारु रूप से चलाते हैं। अफगानिस्तान, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैण्ड, हाँगकाँग प्रभृति देशों में भारत मूल के लोगों की संख्या तो काफी है पर विधिवत् संगठन और रचनात्मक गतिविधियाँ अपनाने का उत्साह अभी थोड़े दिनों में हो जाना है अफगानिस्तान की हिन्दू सहायता समिति, सुरीनाम की सनातन धर्म सभा, गयाना का गाँधी संगठन, बैन्काक (थाईलैण्ड) की हिन्दू धर्म सभा विष्णु मन्दिर का कार्य बहुत दिनों से चल रहा है इंडोनेशिया की हिन्दू धर्म परिषद तो ‘हिन्दू धर्म’ नामक मासिक पत्रिका ही प्रकाशित करती है।

अफगानिस्तान की हिन्दू सहायता समिति की एक पाठशाला संस्कृत और हिन्दी ही पढ़ाती है।

इंग्लैण्ड में एक दर्जन से भी अधिक हिन्दू मन्दिर हैं। लीडस व्रैड फोर्ड, स्लाव के हिन्दुओं में सार्वजनिक कार्यों के लिए अधिक उत्साह है। लन्दन में रामकृष्ण मिशन ने प्रबुद्ध वर्ग में अच्छा स्थान प्राप्त किया है।

कैरेवियन टापुओं में श्रमजीवी भारतीयों की संख्या काफी है, उन्होंने धार्मिक संस्कारों को अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह पकड़े रखा है। ट्रीनिडाड में 45 प्रतिशत हिन्दू हैं। हालैण्ड सरकार के उपनिवेश ‘सुरीनाम’ में लगभग आधी आबादी भारतीयों की है। गयाना में कोई 60 प्रतिशत हिन्दू होंगे। बार्वेडीज, ग्रेनेडा, सेन्टविसेन्ट में काफी भारतीय हैं।

ब्रिटेन में भारतीयों की संख्या पहले से भी काफी थी अब और भी अधिक बढ़ रही है। पूर्वी अफ्रीका के युगाँडा, केनिया और तंज़ानिया देशों को इंग्लैण्ड ने जब स्वतंत्रता दी तो भारतीयों को यह अवसर मिला कि वे भारत, ब्रिटेन या अफ्रीका में से किसी एक ही नागरिकता ले लें। उस समय बहुतों ने ब्रिटेन की नागरिकता ले ली युगाँडा द्वारा अमानवीय ढंग से भारतीयों को निष्कासित कर देने के बाद उनमें से हजारों ब्रिटेन चले गये और वहाँ जा बसे। इन दिनों ब्रिटेन के बड़े नगरों से लेकर छोटे देहातों तक भारतीय बड़ी संख्या में बसे हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार जिन देशों में भारतीयों की बड़ी संख्या है उनमें अब ब्रिटेन को भी सम्मिलित किया जा सकता है।

गयाना, सुरीनमी या ट्रीनडाड में प्रायः प्रत्येक ग्राम में राम या कृष्ण के मन्दिर हैं। ट्रीनडाड में 100 सुरीनाम में 50 और गयाना में 35 पंडित पुरोहित भी हैं जो किसी न किसी प्रकार कथा कीर्तन, संस्कार आदि करते रहते हैं। श्लोक मंत्र तो वे बोल लेते हैं किन्तु विधि विधान और व्याख्या के लिए स्थानीय भाषाओं का ही प्रयोग करते हैं। ट्रीनडाड और गयाना में अंग्रेजी और सुरीनाम में उच्च भाषा बोली जाती है। जोमेका में लगभग चालीस हजार भारतीय हैं।

फिजी में प्रायः आधी आबादी भारतीयों की है। ये लोग अभी भी हिन्दी समझते और बोलते हैं। यहाँ की गुजराती सभा ने उस देश में महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं।

इण्डोनेशिया और मलेशिया में हिन्दू मुसलमानों में एक दूसरे के प्रति बहुत धार्मिक सहिष्णुता और सम्मान बुद्धि है। थाईलैण्ड में राम चरित्र के प्रति बहुत उत्साह है। बाली निवासियों में शिव पूजा का चिह्न पद्म के साथ जुड़ा हुआ स्तम्भ है। थाईलैण्ड में बौद्ध धर्म अधिक है पर वहाँ हिन्दू धर्म के प्रति भी आस्था है। हाँगकाँग में लगभग आठ हजार भारतीय हैं इनमें से अधिकांश सिंधी हैं।

श्रीलंका कल तक भारत का ही अंग था । उसके पृथक् हो जाने पर भी भारत मूल के लाखों हिन्दू धर्मानुयायी वहाँ मौजूद हैं। नेपाल और भूटान को हिन्दू प्रधान देश कह सकते हैं। वर्मा में कुछ समय पूर्व भारतीयों की बड़ी संख्या थी, अब उसमें भारी कमी हो गई है फिर भी कई हजार अभी भी मौजूद हैं। सिंगापुर से लेकर जापान तक हर देश में भारतीयों की हिन्दू धर्मानुयायियों की काफी संख्या मौजूद है। यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड में भी वे कई महत्त्वपूर्ण व्यवसाय कर रहे हैं। अमेरिका ब्रिटेन और जर्मनी आदि में भारतीय छात्रों की अच्छी संख्या बनी रहती है।

फिजी, मौरिसस, दक्षिण अमरीका और अफ्रीका में इन्हीं प्रयोजनों को लेकर भारतवासी बड़ी संख्या में पहुँचे हैं और वहाँ के अग्रगामी वर्ग में गिने जा रहे हैं। दक्षिण अमरीका स्थिति ब्रिटिश गायना में 50 प्रतिशत, डचगायना (सुरीनाम) में 32 प्रतिशत भारतीय मूल के लोग हैं। ट्रीनिडाड में 36 प्रतिशत, मारीसस में 63 प्रतिशत, फिजी में 47 प्रतिशत हिन्दू धर्मानुयायी हैं।

कम्बोडिया, खमेर, वियतनाम, उत्तर मलाया, थाईलैण्ड निवासी अपने को कौडिन्य ब्राह्मण के वंशज कहते हैं। उनकी पौराणिक गाथा है कि कौडिन्य भारत से आये और उन्होंने यही गृहस्थी बसायी वे उन्हीं के वंशज हैं।

पूर्वी अफ्रीका में गुजराती और माल्टा एवं जिव्राल्टर में सिंधी लोगों ने उन देशों की समृद्धि बढ़ाने में भारी सहयोग दिया है।

पाँचवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक मलाया, जावा, सुमात्रा, वोर्नियो, वाली आदि द्वीपों का प्रगाढ़ संबंध भारत के साथ था। भारतीय वहाँ बसे और व्यवसाय शिक्षा, धर्म, सुरक्षा, शासन आदि सभी क्षेत्रों को वहाँ के निवासी और भारतीय मिल जुल कर काम करते रहे।

यमन के प्राचीन राज्य भवनों में भारत विनिर्मित काष्ठ मूर्तियाँ मिली हैं। उनकी खुदाई में नीलगिरी पर्वत के पाषाण खण्ड मिले हैं। इतिहास पेरीप्लस का कथन है कि पूर्वी अफ्रीका अरेविय, पर्शिया और सोकान्न में भारतीयों का निरन्तर आवागमन रहा है। वे व्यवसाय और धर्म प्रचार के लिए इन देशों में ईसा की पाँचवीं शताब्दी से ही जलयानों द्वारा आते जाते रहे हैं। वास्कोडिगामा जब अफ्रीका के पूर्वी तट पर पहुँचा तो उसने वहाँ पहले से ही रह रहे ‘कान्हा’ नामक गुजराती व्यापारी को अपना मित्र बनाया। पीछे वही वास्कोडिगामा को हिन्द महासागर पार करा के कालीकट तक पहुँचा गया।

इतिहासज्ञ प्लीनी ने लिखा है कि रोम साम्राज्य भर में भारत में बने वस्त्राभूषण की भरमार थी। इसके लिए वहाँ से लाखों स्वर्ण मुद्रायें भारत आती थीं। व्यवसाय के लिए ही नहीं भारतवासी वहाँ लोकशिक्षण एवं चिकित्सा के लिए भी पहुँचते थे। टागोवैरा उन दिनों भारतीय धर्म पुरोहितों का केन्द्र स्थान था। स्कैडेनेविया में उपलब्ध बौद्ध मूर्तियाँ भारत से बौद्ध धर्म का प्रभाव वहाँ तक पहुँचाना प्रमाणित करती हैं। मध्य एशिया, वैक्टोरिवा, सोगाडियना तारीम वेसिन से प्राप्त अवशेषों से विदित होता है कि वहाँ कभी बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार रहा है। मसका, काराशर में तो लगभग एक दर्जन ऐसे बौद्ध विहारों के ध्वंसावशेष मौजूद हैं जिनमें एक हजार भिक्षु रह सकें।

प्रागैतिहासिक काल में भारत और अफ्रीका एक ही महाद्वीप था और आवागमन थल मार्ग से होता था। भौगोलिक उथल-पुथल ने बीच में समुद्र खड़ा कर दिया और यातायात के लिए जलयानों की आवश्यकता पड़ने लगी। पूर्वी अफ्रीका की भाषा स्वम्हिली में हिन्दी और संस्कृत भाषा के शब्दों का आश्चर्यजनक बाहुल्य है। वहाँ की लोक गाथाओं और पुरातत्व उपलब्धियों से स्पष्ट है कि यहाँ कभी भारतीय संस्कृति का ही प्राधान्य था।

अमेरिका का पता कोलम्बस ने लगाया यह मान्यता भ्रम पूर्ण है। तथ्य यह है कि भारतीय बहुत पहले से ही वहाँ थे। ‘माया’ और ‘इन्कास’ बने सूर्य मन्दिरों की वास्तुकला पर भारतीयता की पूरी छाप है। भिक्षु चमनलाल द्वारा लिखित ‘हिन्द अमरीका’ में ऐसे अनेक तथ्यों का उल्लेख है जिनसे प्रतीत होता है कि किसी समय भारत के प्रभाव क्षेत्र में ही अमरीका भी था।

सी. कौण्डापै द्वारा लिखित और आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस तथा इण्डियन कोन्सिल आफ वर्ल्ड ऐफर्स द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित “इण्डियन ओवरसीज 1938-1949” ग्रन्थ में विदेशों में बसे हुए भारतीयों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारियों परिवर्तित हुई हैं। उनकी भी जानकारियाँ जिनमें सम्मिलित हों ऐसे नये ग्रन्थ के लिखे जाने और प्रकाशित करने की भी आज बड़ी आवश्यकता है।

प्रवासी भारतीयों की हिन्दू धर्म के प्रति आस्था को परिपुष्ट करने ओर उनके साथ घनिष्ठता बढ़ाने के प्रयास की यदि भूतकाल जैसी उपेक्षा की जाती रही तो जिस प्रकार हम बौद्ध धर्मानुयायियों से विलग हो गये उसी प्रकार इस तीन करोड़ आत्मिक जनों की सद्भावना से भी वंचित रह जायेंगे। समय रहते चेतने में ही कल्याण है।


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