परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम ही स्वर्ग है।

April 1973

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हम परम सौभाग्यशाली हैं कि मानव-जीवन जैसा दुर्लभ अवसर हमें प्राप्त हुआ है। यही हमारा अनमोल जीवन कषाय-कल्मषों में, विषय-वासनाओं में व्यतीत हो रहा हो तो इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना ही कहनी चाहिए। इन्द्रिय-सुख मानव जीवन का साध्य कदापि नहीं है। मात्र पेट और प्रजनन के लिए जीने वाले व्यक्तियों का जीवन तो पशुओं के सदृश होता है। मानव जीवन की सार्थकता तो इसी में है कि विषय-वासनाओं की पंक में न फँसकर आत्मिक उत्कर्ष का सतत् प्रयास किया जावे।

तृष्णाओं और वासनाओं की अग्नि ऐसी जबरदस्त है कि एक बार प्रज्वलित होने पर फिर कठिनाई से ही शान्ति होती है। जिस प्रकार आग में घी डालने से वह बढ़ती ही जाती है, उसी प्रकार शारीरिक सुख की इच्छा को परितृप्त करते रहने से इच्छाएँ परिवर्धित होती ही जाती हैं। इच्छाएँ आसक्ति को, आसक्ति क्रोध को, क्रोध विभ्रम को जन्म देते हैं। विभ्रम स्मृति को नष्ट करता है। स्मृति नाश से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश ही सर्वनाश है।

शरीर रूपी रथ के चंचल घोड़े ये पंच ज्ञानेन्द्रियाँ अपने पंच विषयों की ओर उसी वेग से दौड़ती हैं जैसे ताँगे में जुता हुआ घोड़ा दिन भर काम करके सन्ध्या के समय घर की और दौड़ता है। हिरन शब्द के श्रवण मोह में फँसकर प्राण गँवाता है। भ्रमर गन्ध ओर रसना के आकर्षण में बन्दी बनता है। स्पर्श सुख का आकर्षण मछली और पतंगे को नष्ट ही कर देता है तो पाँच-पाँच विषयों के आकर्षण में फँसा मनुष्य सतत् उद्विग्नता की अग्नि में झुलसता हुआ अन्तस् से कितना दुःखी होगा, यह कल्पनातीत ही है। इन इन्द्रिय वासनाओं का संयम न कर सकने वाले मनुष्य कनक, कामिनी और कादम्बरी के आकर्षण में फँसकर अपना स्वास्थ्य, समय, धन और आत्मसुख को खोकर नरक की ओर बढ़ते हैं।

यह सोचता है कि भोग-विलास हमें आन्तरिक सुख दे पायेंगे-एक भयंकर भूल है। वासना और तृष्णा का जाल-जंजाल बाहर से तो बड़ा मनोहारी लगता है परन्तु जैसे-जैसे व्यक्ति उनके अन्दर बैठता जाता है, वह उसे तिल-तिल करके गलाने लगता है। वासना के कीट शिकार होकर शरीर और आत्मा निस्तेज-निर्जीव हो जाते हैं। शरीर के भोग ही रोग बनकर उसे ग्रस लेते हैं।

वासनाएँ चोर के समान होती हैं। जिस प्रकार चोर अँधेरा देखकर निर्बल व्यक्ति को लूट ले जाते हैं उसी प्रकार वासनाएँ भी निर्बल व्यक्ति को लूट ले जाते हैं उसी प्रकार वासनाएँ भी निर्बल इच्छा शक्ति वाले, निर्बल चरित्र वाले मूढ़ व्यक्तियों पर अपना हमला बोल देती है। सुदृढ़ चरित्र वाले मूढ़ व्यक्तियों पर अपना हमला बोल देती हैं। सुदृढ़ चरित्र वाले आस्था और साहस से युक्त व्यक्तियों से तो वे ऐसे ही डरती हैं जैसे भेड़िये से मेमना डरता है।

जिसके जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता-उसे कुकामनायें शीघ्र ही प्रलोभन देने लगती हैं। यदि हम मानव शरीर प्राप्त करके भी लक्ष्यहीन जीवन व्यतीत करते हैं तो यह हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। हमें चाहिए कि अपने स्वरूप और कर्तव्य को समझें तथा तद्नुरूप कार्य करें।

वस्तुतः आत्मशान्ति इन्द्रिय सुखों से नहीं अपितु आत्मिक सम्पदा बढ़ाने से मिलती है। जैसे-जैसे हम गुणकर्म और स्वभाव को उत्कृष्ट बनाते जायेंगे, वैसे-वैसे हमारा अन्तःकरण निर्बल बनता जायेगा तथा दृष्टिकोण होगा-हम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे और वैसा ही संसार हमें दिखाई पड़ेगा

परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम ही स्वर्ग हैं वस्तुतः स्वर्ग किसी स्थान विशेष का नाम नहीं अपितु वह तो अपने ही अन्तस् की भावात्मक सृष्टि है। इस सृष्टि का विस्तार जैसे-जैसे बढ़ता जायेगा वैसे-वैसे ही व्यक्ति उस कैवल्य सत्ता की महत्ता में समाता हुआ सच्चिदानन्द की प्राप्ति में समर्थ होगा जो उसकी जीवन यात्रा की अन्तिम परिणति है।


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