विज्ञान के विगत अनुसंधानों के आधार पर यह संसार हृदय और अदृश्य स्वरूप परमाणु घटकों के आधार पर रचित विनिर्मित है। अणुगत हलचलों से वस्तुओं का स्वरूप बनता है और प्राणियों के शरीर अवयव उन्हें अपने-अपने ढंग से पहचानते अनुभव करते हैं। वस्तुओं का निजी क्रिया-कलाप और उसे अनुभव करने की शरीरधारियों की क्षमता का पारस्परिक सम्मिश्रण जिस रूप में समझा जाना जाता है, वही है संसार का स्वरूप। इसी की चर्चा विवेचना विज्ञान जगत में होती रहती है।
पिछले वैज्ञानिक निष्कर्ष यह बताते रहे हैं कि यह संसार आणविक संरचना की विभिन्न प्रक्रियाओं की ही प्रतिक्रिया है। पर अब जैसे-जैसे इस संदर्भ में अधिक गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाने लगा है यह सोचने को विवश होना पड़ा है कि सब कुछ जड़ ही नहीं है। इसके भीतर एक चेतन सत्ता भी विद्यमान् है और उसकी भूमिका अकिंचन नहीं है। अनुसंधानों से यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि चेतना की सूक्ष्मसत्ता स्थूल अणुसत्ता की तुलना में अत्यधिक समर्थ और प्रभावी हैं। सच तो यह है कि जड़ पदार्थों में निरन्तर गतिशील रहने वाली हलचलों के पीछे कोई समष्टिगत चेतना प्रवाह ही काम कर रहा है।
भौतिक पदार्थों में हलचल मात्र पाई जाती है, उनमें जानने, विचारने और अनुभव करने की कोई शक्ति नहीं है। मशीनें तेल, कोयला आदि खाती तो हैं निर्धारित रीति-नीति से काम भी करती हैं पर उनमें सोचने विचारने जैसी कोई क्षमता नहीं है। भाव सम्वेदनाओं से भी उनका सम्बन्ध नहीं है। इससे स्पष्ट है कि जड़ परमाणुओं से ही यदि शरीर रूपी यन्त्र बना होता तो उसमें विविध स्तर की अनुभूतियाँ क्योंकर पाई जाती?
देखना, सुनना, चखना, सूँघना, संकल्प करना, स्मरण रखना, रागद्वेष, काम, क्रोध, सुख, दुःख, हर्ष, शोक आदि सम्वेदनाओं का उभार जिस आधार पर प्राणि जगत में दृष्टिगोचर होते हैं, उन्हें चेतन सत्ता का प्रवाह ही कहा जा सकता है। जड़ पदार्थों के स्वरूप एवं क्रिया-कलाप में इस प्रकार की विचार चेतना के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। अस्तु पिछले दिनों से चली आ रही इस मान्यता का सहज ही खण्डन हो जाता है कि यह जगत परमाणु घटकों की स्वसंचालित संरचना मात्र है, सृष्टि संचालन आत्मा या परमात्मा जैसी किसी अन्य सत्ता की आवश्यकता नहीं है। हलचलों के साथ सम्वेदनाएँ किस प्रकार जुड़ सकती हैं इसका कोई समाधान वैज्ञानिकों के पास नहीं है। जो उत्तर वे देते हैं उनसे सन्तोषप्रद समाधान नहीं निकलता। इस संदर्भ में जो अगली खोजें हुई हैं उनमें रिलाइजेशन-अनुभूति को एक स्वतंत्र सत्ता मानना पड़ा है और यह समझा जाने लगा है कि चेतना का नियन्त्रण जब पदार्थगत हलचलों के साथ जुड़ता है तभी जीवन का स्वरूप सामने आता है।
‘मिस्टीरिअस’ यूनीवर्स ग्रन्थ के रचयिता सर जेम्स जोन्स ने लिखा है-विज्ञान जगत अब पदार्थ सत्ता का नियन्त्रण करने वाली चेतना सत्ता की ओर उन्मुख हो रहा है और यह खोजने में लगा है कि हर पदार्थ को गुण धर्म की रीति-नीति से नियन्त्रित रखने वाली व्यापक चेतना का स्वरूप क्या है? पदार्थ को स्वसंचालित अचेतन सत्ता समझने की प्रचलित मान्यता इतनी अपूर्ण है कि उस आधार पर प्राणियों की चिन्तन क्षमता का कोई समाधान नहीं मिलता। अब वैज्ञानिक निष्कर्ष आणविक हलचलों के ऊपर शासन करने वाली एक अज्ञात चेतन सत्ता को समझने का प्रयास अधिक गम्भीरता पूर्वक कर रहे हैं।
फिजियोलॉजिकल साइकोलॉजी के लेखक मनोविज्ञान वेत्ता श्री मैकडूगल ने लिखा है- मस्तिष्कीय संरचना को कितनी ही बारीकी से देखा समझा जाय यह उत्तर नहीं मिलता कि पाशविक स्तर से ऊँचे उठकर मानव प्राणी अपने में उच्चस्तरीय ज्ञान विज्ञान की धारायें कैसे बहाता रहता है और भावनापूर्ण सम्वेदनाओं से कैसे ओत-प्रोत रहता है? भाव सम्वेदनाओं की गरिमा समझते हुए हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि मनुष्य के भीतर कोई अमूर्त सत्ता भी विद्यमान् है जिसे आत्मा अथवा भाव चेतना जैसी कोई नाम दिया जा सकता है।
अणु विज्ञान के आचार्य अलबर्ट आइन्स्टीन ने परमाणु प्रक्रिया का विशद विवेचन करने के उपरान्त अपने निष्कर्ष को घोषित करते हुए कहा है-मुझे विश्वास हो गया है कि जड़ प्रकृति के भीतर एक ज्ञानवान चेतना भी काम रही है।
सर ए. एस. एडिगृन का कथन है-भौतिक पदार्थों के भीतर एक चेतन शक्ति काम कर रही है जिसे अणु प्रक्रिया का प्राण कहा जा सके। हम उसका सही स्वरूप और क्रिया-कलाप अभी नहीं जानते पर यह अनुभव करते हैं कि संसार में जो कुछ हो रहा है- वह अनायास, आकस्मिक या अविचारपूर्ण नहीं है।
पी. गेइर्डस अपने ग्रन्थ ‘इवोल्यूशन’ में अपने निष्कर्ष व्यक्त करते हुए कहते हैं-सृष्टि का आरम्भ जड़ परमाणुओं से हुआ और ज्ञान पीछे उपजा यह मान्यता सही नहीं है। लगता है सृष्टि से भी पूर्व कोई चेतना मौजूद थी और उसी के क्रमबद्ध एवं सोद्देश्य रीति-नीति के साथ इस विश्व ब्रह्माण्ड का सृजन किया।
‘इन्ट्रोडक्शन टू साइंस’ की पुस्तक में विज्ञानी जे. ए. थामसन ने कहा है-विश्व में जीवन कब और कैसे उत्पन्न हुआ उसका विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं है।
ख्याति प्राप्त विज्ञान वेत्ता टेन्डल ने अपने ग्रन्थ फ्रेगमेन्टस आफ साइंस में स्वीकार किया है-हाइड्रोजन आक्सीजन, कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस प्रभृति तत्त्वों के ज्ञान शून्य परमाणुओं से मस्तिष्क की संरचना हुई है। इस यांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से देखना, सोचना, स्वप्न, सम्वेदनाएँ एवं आदर्शवादी भावनाओं के उभार की कोई तुक नहीं बैठती। शरीर यात्रा की आवश्यकता पूरी करने के अतिरिक्त मनुष्य जो कुछ सोचता चाहता और करता है वह इतना अद्भुत है कि जड़ परमाणुओं से बने मस्तिष्क के साथ उसकी कोई संगति नहीं बिठाई जा सकती। चौपड़ के पासे खड़खड़ाने से होमर कवि की प्रतिभा एवं गेंद की फड़फड़ाहट से गणित के डिफरैन्शियल सिद्धान्त का उद्भव कैसे हो सकता है इसका उत्तर मस्तिष्क को जड़ परमाणुओं की संरचना मात्र मानकर चलने से मिल ही नहीं सकता?
जे. पी. एम. ऐल्डन का कथन है-पदार्थ या शक्ति ही इस संसार का समग्र स्वरूप नहीं है। हम दिन-दिन इस निष्कर्ष पर पहुँचते जाते हैं कि एक समष्टिगत मन तत्त्व समस्त विश्व पर नियन्त्रण स्थापित किये हुए है।
आर्थर एच-क्राम्पटन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि संसार के पदार्थों को जलते हुए ईंधन जैसा समझा जा सकता है। जड़ चेतना की ज्वलन्त गतिविधियाँ ऐसे अग्नि तत्त्व के साथ सम्बद्ध हैं जिसे व्यापक चेतना या आत्मा का आदि किसी नाम से सम्बोधित किया जा सके।
हर्बर्ट स्पेन्सर ने अपनी पुस्तक ‘फर्स्ट प्रिंसिपल’ में कहा है- एक ऐसे विश्वव्यापी चेतन तत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता है, जो साधारणतया सभी प्राणधारियों में विशेषतया मानव प्राणियों में जीवन की एक सुरम्य प्रक्रिया का निर्धारण करती है। प्राचीन काल के धर्माचार्य या दार्शनिक जिस प्रकार उसका विवेचन करते रहे है भले ही वह संदिग्ध हो, भले ही उसका सही स्वरूप अभी समझा न जा सका हो पर उसका अस्तित्व असंदिग्ध रूप से है और वह ऐसा है जिसका गम्भीर अन्वेषण होना चाहिए।
डा. गाल कहते हैं-संसार का मुख्य तत्त्व ‘पदार्थ’ नहीं वरन् वह चेतन सत्ता है जो समझती, अनुभव करती, सोचती, याद रखती और प्रेम करती है। मृत्यु के उपरान्त जीवन की पुनरावृत्ति का सनातन क्रम उसी के द्वारा गतिशील रहता चला आ रहा है।
संसार के प्रमुख विज्ञान वेत्ताओं के सम्मिलित निष्कर्ष व्यक्त करने वाले ग्रन्थ ‘दी ग्रेट डिजाइन’ में प्रतिपादन किया गया है कि-यह संसार निर्जीव यन्त्र नहीं है। यह सब अनायास अकस्मात् ही नहीं बन गया है। चेतन और अचेतन हर पदार्थ में एक ज्ञान शक्ति काम कर रही है उसका नाम भले ही कुछ भी दिया जाय।
‘साइंस एण्ड सोल’ के लेखक आर. डवलिन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि प्राणि जगत के अस्तित्व को जड़ परमाणुओं की हलचल मात्र मान बैठने से काम नहीं चलेगा भावना, विचारणा, कल्पना और सम्वेदना जैसी तरंगें उत्पन्न करने वाली ज्ञान सत्ता को यदि अस्वीकार किया जाय तो जीवधारियों की सत्ता की सही व्याख्या ही नहीं हो सकती।
इसी प्रकार विश्व के अगणित प्रख्यात विज्ञानवेत्ता चेतना के अस्तित्व को स्वीकार कर चुके हैं और इस संदर्भ में चल रहे शोध प्रयास निरन्तर अधिक स्पष्ट रूप से यह प्रमाणित कर रहे हैं कि चेतना प्रवाह की सत्ता को न आत्मा के अस्तित्व के संदिग्ध मानने का कोई कारण नहीं। ‘क्रौयोटिव इवोल्यूशन’ नामक अपने ग्रन्थ में शरीर शास्त्री वर्गसन ने इस बात पर अत्यन्त विस्मय प्रकट किया है कि नेत्र गलोके की संरचना अत्यधिक जटिलताओं के साथ बनी हैं और साथी ही उनके द्वारा प्रकाश तरंगों को ग्रहण करके मस्तिष्क तक उस सम्वेदना को पहुँचाने की प्रक्रिया और भी अधिक पेचीदगियों से भरी है। इतने पर भी दृष्टि कार्य अत्यधिक सरल है। जो कुछ देखा जाता है, उसके स्वरूप को मस्तिष्क क्षण भर में पकड़ लेता है। इतनी लम्बी और इतनी जटिलताओं के बीच घूमती हुई दृष्टि प्रक्रिया इतनी अधिक सरलता पूर्वक गतिशील रह सकती है। इसका जितनी गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय, उतना ही यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है कि इसी प्रकार की संरचनाओं से भरे हुए समस्त अवयवों वाला यह शरीर अनायास ही जड़ प्रकृति द्वारा बना नहीं रह सकता। इसकी सृजेता कोई विचारशील और बुद्धिमान सत्ता होनी चाहिए, चेतन सत्ता केवल प्राणधारियों के अस्तित्व में चिन्तनात्मक एवं भावनात्मक सम्वेदना उत्पन्न करती हो सो बात नहीं। जड़ समझे जाने वाले वृक्ष वनस्पति से लेकर रासायनिक एवं खनिज पदार्थों में भी उसका न्यूनाधिक प्रभाव रहता है। चेतना तत्त्व के सम्बन्ध में जो शोध संशोधन चल रहे हैं, उन्होंने वृक्ष वनस्पतियों को भी प्राणि जगत का ही असंदिग्ध सदस्य बना दिया है। मनुष्य से लेकर वनस्पति तक की विभिन्न प्राण योनियों में सम्वेदनाओं का स्तर विभिन्न प्रकार का पाया जाता है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि इन सभी में चेतन सत्ता आत्मा का अस्तित्व विद्यमान् है। इससे आगे जल, खनिज, मृतिक, रासायनिक कैसे सृष्टि वर्ग रह जाते हैं। इनके सम्बन्ध में भी दिन-दिन यह समझा जा रहा है कि ये भी वैसे निश्चेष्ट निर्जीव नहीं है जैसे दिखाई पड़ते हैं। लोहे पर जंग लगना, कीचड़ से कीड़ों का उत्पन्न होना, जल पर कोई जमना, इस बात के प्रमाण है कि उनमें जीवन तत्त्व की मात्रा विद्यमान् है। जल की प्रत्येक बूँद से अणुवीक्षण यंत्र से चलते फिरते कीड़े देखे जा सकते हैं और उनमें अगणित प्रकार के बड़ी आकृति वाले जल चर उत्पन्न होते रहते हैं। इस प्रकार जल की सजीवता भी स्वयं प्रकट ही है। यह जीवन धातुओं, पत्थरों से कम भले ही हो पर क्रमशः उनकी बद्धता और विनष्ट होते रहने की रीति-नीति को देखते हुए उन्हें भी मंद जीवन धारी वर्ग में बिठाया जा सकता है। इन तथ्यों पर विचार करते हुए अब वैज्ञानिक मान्यताएँ यही बन चली हैं कि विश्व के कण-कण में न केवल हलचलें हो रही है वरन् उनमें जीवन तत्त्व भी हिलोरें ले रहा है।
जीवन ही आत्मा है। समष्टिगत आत्मा परमात्मा है। जिस पर ब्रह्माण्ड की छोटी प्रतिकृति पिण्ड ग्रह और प्राणियों और पदार्थों में विद्यमान् जीवन सत्ता आत्मा का समग्र स्वरूप परमात्मा है। विज्ञान अब उतना नास्तिक नहीं रहा जितना पचास वर्ष पूर्व था। अब वह आत्मा ही नहीं प्रकारान्तर में परमात्मा की सत्ता स्वीकार करने जारी रहेगी और चेतना के स्वरूप, लक्ष्य एवं क्रियाकलाप का सर्वमान्य आधार भी सामने आयेगा, भले ही वह धर्म सम्प्रदायों के द्वारा की गई चेतना की परिभाषा से कितनी ही भिन्न क्यों न हों। वैज्ञानिक प्राप्ति क्रमशः नास्तिकवाद को अमान्य ठहराती चली जा रही है और चेतना के अस्तित्व को स्वीकार करके आस्तिकता के आगे मस्तक झुका रही है। वह दिन भी दूर नहीं जब आत्मा और परमात्मा का जीवनोपयोगी उपयोग कर सकने का आधार भी उपलब्ध होगा और उपासना साधना को भी चिकित्सा एवं मानसोपचार की तरह ही सर्वोपयोगी मान कर उन्हें विधिवत् उपयोग में लाने की आवश्यकता स्वीकार की जायेगी।