बीमारियाँ शरीर की नहीं मन की

April 1973

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हताश रहना तथा अकारण किसी बात को लेकर भयभीत रहना (डिप्रेशन एण्ड फोबिया) यह दो बीमारियाँ आज कल नई सभ्यता की देन के रूप में बढ़ती चली जा रही हैं। इस तरह के बीमार सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों के प्रति अलगाव की सी वृत्ति रखते हैं। बात-बात में चिढ़ पड़ते या उबल उठते हैं। गर्म हो जाने के कुछ ही देर बाद इतने निराश हो जायेंगे कि रोने लगेंगे। इस तरह के बीमारों के लिए “मनोविज्ञान चिकित्सा” ‘रिक्रियेशनल’ अथवा 'एक्यूपेशनल' थैरेपी चिकित्सा का प्रयोग करती है। रोगी की मानसिक प्रसन्नता और स्थिरता के लिए उसे किस प्रकार के वातावरण में रखा जाये, कैसे बातचीत की जाये, क्या सुझाव और परामर्श दिये जायें? इन सब के पूर्व उसके पिछले जीवन की सारी गुप्त-अगुप्त बातें बता देने के लिए कहा जाता है इस प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान चिकित्सक भी यह मानते हैं कि रोगों की जड़ें उसके कुसंस्कार होते हैं जो एक लम्बे अर्से से अन्तरमन में पड़ी फल फूल रही होती हैं।

उदाहरण के लिये एक अच्छे घराने का, एक मिलिटरी कर्नल के घर का लड़का जेब, उसकी समझ काफी विकसित हो गई थी एक दिन अपने पिता की जेब से दस रुपये का एक नोट निकाल दिया लिया और सिनेमा देख आया। बेसिक और पैसे वाले कर्नल साहब को पता भी नहीं, जेब में कितने पैसे थे कितने रह गये, इस तरह की लापरवाही ही अधिकांश घर के छोटे बच्चों को लापरवाह बनाती है, कुछ दिन में लड़के ने समझ लिया पिताजी बावले हैं कुछ पता चलता नहीं सो वह बड़ी रकमें साफ करने लगा। और उस मुफ्त के पैसों को शराबखोरी और दूसरी गंदी बातों में खर्च करने लगा। दूसरे शिकायती सूत्रों से कर्नल साहब को पला चला। गन्दा नाला एक बार बह निकलता है तो दुर्गन्ध भी अभ्यास में आ जाने से स्वाभाविक हो जाती है, पर कहीं एकाएक उस नाले का रोक दिया जाये तो दुर्गन्ध एक स्थान पर एकाएक तीव्र हो उठेगी और सड़ाँध पैदा करेगी। ऐसा ही हुआ। कर्नल साहब ने एकाएक ब्रेक लगाया। फलतः लड़के व मानसिक कुसंस्कार एक स्थान पर रुक कर मानसिक निराशा और आतंक के रूप में सड़ने लगे। उसे हाई-ब्लड प्रेशर और सिर-चक्कर खाने की बीमारी रहने लगी। पीछे जब मनोवैज्ञानिक चिकित्सा के लिये लड़के को ले जाया गया और उसने पिछली सब बातें बताई गई तब उसके मन से पिछला भय निकालकर हलका और प्रसन्नता का जीवन जीने की प्रेरणाएँ दी गई, बच्चा ठीक हो गया।

जहाँ तक बाल्यावस्था की छोटी-छोटी भूलों का सवाल हैं उन्हें इस तरह के “निष्कासन प्रयोग” द्वारा ठीक भी किया जा सकता है, पर अपराध मनोवृत्ति और उन संस्कारों को जिन्हें स्वयं रोगी भी नहीं पहचानता मनोवैज्ञानिक बेचारा कैसे अच्छा कर सकता है। उसके लिये भारतीयों ने कृच्छ चांद्रायण जैसे कठोर तपों की व्यवस्था बनाई थी। शरीर में अन्न नहीं पहुँचता तो तात्कालिक बुरे विचार शिथिल पड़ जाते हैं और अंतर्मन में दबे हुए जन्म जन्मान्तरों के संस्कार स्वप्नों के रूप में, अनायास विचारों के रूप में निकलकर साफ हो जाते हैं यह एक सही पद्धति थी। आज के मनोविज्ञान की पहुँच वहाँ तक नहीं होने, साथ ही उसकी धारणा रोगी की मनोवाँछित इच्छाओं की पूर्ति की होती है इसलिये तात्कालिक संतुष्टि का कुछ लाभ दिखाई देने पर भी वह चिकित्सा जहाँ सिद्धांतत सत्य है, वहाँ व्यावहारिक दृष्टि से और भी कुसंस्कारों को उकसाने और मन में नई उत्तेजनायें भरने वाली बन जाती है।

हिस्टीरिया के मामले में खासतौर पर ऐसा ही होता है जिसे भूत या पिशाच कहा जाता है वह वस्तुतः किसी ऐसे व्यक्ति की मानसिक चेतना होती है जिसके साथ रोगी ने कभी छल किया हो, कपट किया हो, हत्या या ऐसा कुछ बुरा कृत्य किया हो। शरीर मर जाता है पर मन संस्कार अमर होते हैं यह बात विज्ञान भी मानता है। क्रोमोज़ोम संस्कार सूत्र होते हैं वह कभी नष्ट नहीं होते। डा. नेहम ने ऐसे ही एक रोगी का जिक्र किया है उसे जब हिस्टीरिया के दौरे आते तो रोगी हर बार एक ही बात चिल्लाया करता “अब मैं उसके साथ एक तंग गली से जा रहा हूँ, वहाँ जाकर हम दोनों ने शराब पी- मैंने कम पी उसको ज्यादा पिलाई अब वहाँ से एक निर्जन स्थान की ओर गया वहाँ बड़ा अन्धकार है। इतना कहते कहते वह भयभीत होकर रोता और बुरी तरह चिल्लाता मैंने उसे छुरा भोंका और वह अब मेरे ऊपर चढ़ बैठा।”

रोगी के व्यवहार का घर वालों के रहन सहन का पता लगाया गया। उसके घर कभी शराब पी ही नहीं गई थी उसने तो छुई तक नहीं थी। यह भी देखा जाता था कि इस तरह जब दौरा पड़ता तब मस्तिष्क की एक खास नस बुरी तरह फूल जाती। मस्तिष्क का हर कल पुर्जा आश्चर्यों की पिटारी हैं। अंर्तचेतना यहीं निवास करती है, संस्कार कभी नष्ट नहीं होते स्पष्ट है कि तब वह सनातन जीवन क्रम (जिसे पुनर्जन्म ही कहा जा सकता है) से आये। अतएव ऐसे कठिन संस्कारों का दोष परिमार्जन कठोर प्रायश्चित प्रक्रिया द्वारा ही होना चाहिये। जब कि आज का मनोविज्ञान व्यवहार में उस तरह के कुसंस्कारों में संतुष्टि देने के पक्ष का समर्थन करता है। अतएव उसे पूर्ण-चिकित्सा नहीं कहा जा सकता जब कि रोगों की जड़ का पता लगाने के बारे में वह सिद्धांतत सही है।

“एजीटेटैड डिप्रेसिव साइकोसिस” पैरानाइड शिजो फ्रेनिया” साइकोपैथी साइकोसोमेटिक और “मेनिक डिप्रेसिव न्यूरोसिस” आदि मानसिक बीमारियाँ पूर्व जन्मों से सम्बन्धित नहीं हैं पर उनका सम्बन्ध आज भी विकृत विचारणा, सभ्यता के नाम पर इन्द्रिय-जन्य आकर्षणों और प्रलोभनों तथा त्रुटिपूर्ण सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण ही है। एक बार सुप्रसिद्ध सेल्डन शेफर्ड के पास नवदंपत्ति परामर्श के लिए आये। उनमें परस्पर खींचतान चल रही थी। विवाह हुए 9 माह हुये थे। पत्नी तब से निरन्तर पति के पास ही थी पर उसका गर्भवती होना दोनों के लिये विष हो गया। पति की धारणा थी कि पत्नी विवाह से पूर्व ही गर्भवती थी इसलिये वह कटुता पूर्ण व्यवहार करता था। चिकित्सक ने दोनों की अलग-अलग जाँच की, इसके बाद दोनों की शारीरिक जाँच भी की। शारीरिक जाँच के दौरान एक विचित्र बात सामने आई, वह यह कि पत्नी को दरअसल गर्भ था ही नहीं। पेट का रोग (फाल्स प्रेगनैन्सी) था जिसमें पेट फूल जाता है। यह बात प्रकट होने पर उनका मनोमालिन्य दूर हो गया पर यह बात स्वयं शेफर्ड ने भी स्वीकार किया कि आज के सिनेमाओं ने यौन-स्वाधीनता और उच्छृंखल मनोवृत्ति युवक-युवतियों के स्वेच्छापूर्वक मिलने जुलने की छूट आज की सभ्यता और शिक्षा ने न दी होती, तो आज जो घर और परिवारों में परस्पर अविश्वास का वातावरण दिखाई देता है क्यों दिखाई देता? और क्यों ‘पैरानाइड शिजोफ्रेनिया” जैसे रोग स्थान बनाते।

सुख और चरित्र परस्पर जुड़े हैं। चरित्रवान सबसे अधिक सुखी और सुखी लोग प्रायः चरित्रवान होते हैं।

एक दुकानदार के पास पैसे की कमी नहीं, स्वयं अच्छे कपड़े पहनते बच्चों और पत्नी को भी पहनाते, खाते भी अच्छा-अच्छा तो भी पैसे की काफी बचत। लड़का कालेज का छात्र पहले पैसा चुराने लगा पीछे पिता को मालूम पड़ गया तो दोनों में तनातनी रहने लगी। इसी मानसिक खिचाव ने बाप-बेटे दोनों को बीमार कर दिया। कोई रोग हो तो दवायें काम करें। निदान मनोचिकित्सक के पास गए बाप ने बताया लड़का पैसा बरबाद करता है, लड़का बोला “तुम मिलावट का सामान बेचकर यह जो रकम इकट्ठा कर रहे हो इसका क्या होगा।” मालूम नहीं उनका झगड़ा निबटा या नहीं पर न कहने पर भी आज अधिकांश अनैतिक उपार्जन करने वालों के घर यही हो रहा है भले ही बाहर वालों को वे अच्छे खाते पीते पैसे वाले दिखाई देते हों। यह सब पाश्चात्य सभ्यता की देन है जो धन को तो अनावश्यक महत्त्व देती हैं पर जिसके लिए नीति, ईमानदारी और कर्तव्य परायणता के लिये कोई स्थान नहीं।

साइकोसोमेटिक रोग” प्रत्यक्ष में शारीरिक होते हैं पर उनकी जड़ मानसिक विकार ही होते हैं। मस्तिष्क का विचार संस्थान उस नाड़ी जाल के प्रभावित करता है जो सारे शरीर में गुँथा पड़ा है। अच्छा विचारों के उमड़ने से शरीर में स्वास्थ्यवर्धक और आरोग्य वर्धक “हारमोन्स” (एक प्रकार के रस) निकलकर रक्त में मिलकर काम करते हैं। खराब विचार विष उत्पन्न करते हैं अतएव यह बात निर्विवाद सत्य है कि आज की बढ़ती हुई बीमारियों का इलाज औषधियाँ नहीं विचार और चिन्तन प्रक्रिया में संशोधन ही है। दूषित विचार मानसिक परेशानी के रूप में उत्पन्न होते हैं और अल्सर, कैंसर तथा टी.बी. जैसे भयानक रोगों के रूप में फूट पड़ते हैं। कई बार तो कई जन्मों के कुसंस्कार पीछा करते हैं जिन्हें समझ पाना कठिन होता है। उन सबका इलाज एक ही है, कि मनुष्य व्यवहार और क्रिया की सच्चाई और सच्चरित्रता का परित्याग न करे। आज की सभ्यता इन दोनों को नष्ट करने पर तुली है, इसी कारण तरह तरह की बीमारियाँ उठ खड़ी हो रही है। आज का स्वास्थ्य एक व्यक्ति से सम्बन्धित नहीं सारे समाज के स्वास्थ्य से बँध गया है अतएव जन-स्वास्थ्य के लिये अस्पतालों और दवाओं की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी मान्यताओं और सामाजिक परिस्थितियों के संशोधन परिमार्जन की। समाज के विकृत ढाँचे को ठीक कर लिया जाये तो इन उद्भिज बीमारियों का अन्त होते देर न लगे।


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