प्रतिकूलता देखकर सन्तुलन न खोए

April 1973

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दिन और रात की तरह मनुष्य जीवन में प्रिय और अप्रिय घटनाक्रम आते जाते रहते हैं। इन उभयपक्षीय अनुभूतियों के कारण ही जीवन की शोभा और सार्थकता है। यदि एक ही प्रकार की परिस्थितियाँ सदा बनी रहें तो यहाँ सब कुछ रूखा और नीरस लगने लगेगा। सदा दिन नहीं रहे, कभी रात न हो, सब की उम्र एक सी रहे न कोई छोटा हो न बढ़ा, सर्दी या गर्मी की एक ही ऋतु सदा रहे, दूसरी बदले ही नहीं, तो फिर इस संसार की सुन्दरता ही नष्ट हो जाएगी सदा प्रिय, अनुकूल और सुखद परिस्थितियाँ बनी रहें, कभी अप्रिय और प्रतिकूल स्थिति न आवे तो कुशलता, कर्मनिष्ठा और साहसिकता की जरूरत ही न पड़ेगी। लोग आलसी, निकम्मा और नीरस जीवन जीते हुए किसी प्रकार मौत के दिन पूरे किया करेंगे।

अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली सुविधा असुविधा का उतना महत्त्व नहीं जितना माननीय सद्गुणों का। पुरुषार्थ, साहस, धैर्य सन्तुलन, दूरदर्शिता जैसे सद्गुणों का विकास और परीक्षण प्रतिकूल परिस्थितियों में ही सम्भव है। यदि सदा अनुकूलता बनी रहे तो फिर ढर्रे का जीवन जीने वाले लोग गुणों की दृष्टियों से पिछड़े ही पड़े रहेंगे। इस प्रकार के विकास की उन्हें आवश्यकता ही अनुभव न होगी।

इस प्रकार के अगणित तथ्यों का ध्यान रखते हुए सृष्टि ने इस दुनिया में अनुकूलता प्रतिकूलता उत्पन्न की है। अनुकूल स्थिति से लाभ उठाकर हम अपने सुविधा साधनों को बढ़ायें और प्रतिकूलता के पत्थर से घिस कर अपनी प्रतिभा पैनी करें यह उचित है और यही उपयुक्त।

कई व्यक्ति प्रतिकूल स्थिति में मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और वे बेहिसाब दुखी रहने लगते हैं। एक बार प्रयत्न करने पर कष्ट दूर नहीं हुआ या सफलता नहीं मिली तो निराश हो बैठते हैं कई व्यक्ति इससे भी आगे बढ़े-चढ़े होते हैं और बैठे ठाले भविष्य में विपत्ति आने की आशंका करते रहते हैं। प्रस्तुत असुविधा के समाधान का पुरुषार्थ करें उपाय सोचें, इसकी अपेक्षा वे चिन्ता, भय, निराशा आशंका, उद्विग्नता जैसी उलझनें खड़ी करके अपने को उसमें फँसा लेते हैं और स्वनिर्मित एक नई विपत्ति गढ़ कर खड़ी कर लेते हैं। इस बौद्धिक अवसाद के खतरे को और उससे उत्पन्न हानियों को हमें समय रहते समझ लेना चाहिए ताकि उस दल-दल में फँसने की विपत्ति से बचा जा सके।

जर्मन मनोवैज्ञानिकों ने चिन्तातुर लोगों से पूछ कर उनके कारणों का वर्गीकरण किया है तो पता चला है कि 40 प्रतिशत समस्याएँ ऐसी थीं जिनकी केवल आशंका मात्र थी, वे सामने आई ही नहीं । 30 प्रतिशत ऐसी थीं जो बहुत मामूली थीं। वे कारण थे तो पर सूझ-बूझ तथा परिस्थितियों ने उन्हें इस प्रकार सुलझा दिया कि समय पर किसी उलझन में नहीं पड़ना पड़ा 12 प्रतिशत स्वास्थ्य सम्बन्धी थीं। वे उपचार से ठीक हो गईं न वे असाध्य थीं और न इनने प्राण संकट उत्पन्न किया। 10 प्रतिशत ऐसी थीं जिनके लिए दौड़ धूप करनी पड़ी दूसरों का सहारा लेना पड़ा और थोड़ी परेशानी भी सहनी पड़ी। केवल 8 प्रतिशत चिन्ताएँ ही ऐसी थीं जिन्हें कुछ वजनदार कहा जा सकता था और जिन्हें पूरी तरह हल न किया जा सका उनके कारण नुकसान भी उठाना पड़ा।

चिन्ता ग्रस्त रहने वाले लोग निश्चिन्त व्यक्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहते हैं। मन मौजी और मस्त लोगों को नियत समय पर ही समस्या का सामना करना पड़ता है पर चिन्तातुर लोग बहुत पहले से ही मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और हड़बड़ी के कारण अपना अच्छा भला स्वास्थ्य भी गँवा बैठते हैं। मस्तिष्क जितना अधिक समस्याओं में उलझा हुआ रहेगा उतना ही वह समस्या सुलझाने में असमर्थ हो जाएगा क्रोधी आवेश ग्रस्त, उत्तेजित, आक्रोश में भरे हुए दिमाग एक प्रकार से विक्षिप्त जैसे हो जाते हैं वे एक ही आवेश संचालित दिशा में सोचते हैं। कई तथ्यों पर ध्यान रखते हुए सही निष्कर्ष निकालना उनके काबू से बाहर की बात हो जाती है। चिन्ता का कारण दूर करना तो दूर ऐसे लोग शारीरिक और मानसिक गँवाकर दुहरी हानि उठाते हैं।

मनुष्य के समान न तो कोई बलवान प्राणी है न निर्बल। बलवान इसलिए है कि यदि वह सूझबूझ से काम ले, अपनी शक्तियों को ठीक तरह प्रयुक्त करें, अपने मधुर व्यवहार के कारण दूसरों का सद्भाव सहयोग संजोये रहे तो प्रगति के पथ पर द्रुतगति से आगे बढ़ सकता है। निर्बल इसलिए है कि हड़बड़ी उतावली और अदूरदर्शिता अपनाये तो बने काम बिगड़ते चले जाएँगे और सफलता की संभावना असफलता बन कर सामने आ खड़ी होंगी। अपने अप्रामाणिकता और अयोग्यता सिद्ध करके वह अपने को मित्रों से रहित एकाकी बना लेगा। यदि अधीरता प्रकट करके विपरीत होती चली जाएँगी और परिस्थितियाँ उसके विपरीत होती चली जाएँगी और अनुभव करेगा कि दुर्भाग्य ग्रस्त और दुर्बल मैं ही हूँ।

चिन्ता और चिता में थोड़ा ही अन्तर है। लिपि की दृष्टि से एक बिन्दु की न्यूनाधिकता है। चिता मरने के पश्चात् मनुष्य को जलाती है किन्तु चिन्ता जीवित को ही जलाना आरम्भ कर देती है। इस जलन से शरीर का सबसे बहुमूल्य अंग-मस्तिष्क झुलसता है और उसके कोमल कण कठोर हो जाते हैं। प्रमाद, दीर्घसूत्रता और निर्णय करने में असमंजस बने रहने की नई व्यथा उठ खड़ी होती है। जलन, गर्मी और खुश्की की बढ़ोत्तरी से कपाल में जाने वाला प्राण वायु विषैला बनता है और वहाँ धुँआ सा उमड़ता रहता है। उसकी स्वच्छ और पारदर्शी परतें धूमिल होकर बुद्धि हीनता उत्पन्न करती हैं-ऐसे व्यक्ति स्मरण शक्ति भी खो बैठते हैं और हर घड़ी असहाय, कायर असफल जैसे दीखते हैं । उन्हें आशा की किरणें कहीं से आती नहीं दीखती चारों ओर अँधेरा ही प्रतीत होता है।

चिन्तित दीखने वाला व्यक्ति प्लेटो की दृष्टि में एक आविष्कारक है। अन्तर इतना ही है कि वैज्ञानिक आविष्कारक किसी ठोस आधार को पकड़ते और कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं, जबकि चिन्तित व्यक्ति काल्पनिक आशंकाएँ रचता और गढ़ता रहता है। वह अपने लिए एक उलझी हुई दुनिया बनाता है और उसी में ताने बाने बुनता हुआ अपनी क्षमता खोता गँवाता चला जाता है।

अपने आपको असमर्थ, असहाय, अपंग और अनाथ मानने से ही चिन्ता ग्रस्त मनः स्थिति बनती है । साहसी व्यक्ति कठिनाइयों को अपने पौरुष के लिए एक चुनौती मानता है और खिलाड़ी लोग जिस तरह साहस और उत्साह के साथ गेंद के साथ गुँथ जाते हैं उसी तरह आत्मविश्वासी अपने पुरुषार्थ के बल पर बड़ी दीखने वाली कठिनाइयों को तुच्छ सिद्ध करते हैं।

संगीत शास्त्री हेडेल को लकवा मार गया। दाया अंक बेकार हो गया। केवल बायाँ अंग ही दैनिक कृत्यों में सहायता करता था। पैसा पास में रहा नहीं । चिकित्सा तो दूर पेट भरने का भी प्रबन्ध नहीं रहा। क्या किया जाय। उसे एक बात सूझी। सामूहिक गानों की उन दिनों विद्यालयों में बहुत माँग थी। हेडेल ने कुछ सामूहिक गान रचे और उनकी स्वर लिपियाँ बनाई। एक महीने में वह पुस्तक तैयार हो गई उसे लेकर घसीटता हुआ प्रकाशक के पास गया। पुस्तक छपी और उसकी रायल्टी से वह शेष जीवन अर्थ चिन्ता से मुक्त होकर बिताने में सफल हो गया। दुर्भाग्य का रोना रोने, भीख माँगने या दीनता प्रकट करने की अपेक्षा हेडेल ने यही उचित समझा कि जो शक्ति शेष हैं उसे रचनात्मक काम के लिए प्रयुक्त क्यों न करें? कठिनाइयों से ग्रस्त व्यक्ति भी यदि धैर्य और संतुलन से काम लें तो उन्हें कोई न कोई रास्ता अवश्य मिल सकता है।

आत्म हत्या करने वाले उतावले लोगों में से बहुतों के सामने इतनी बड़ी कठिनाई नहीं होती जितनी कि वे भावुकता वश अनुभव करते हैं। इसी अवास्तविक कल्पना में उलझे हुए वे लोग तिल का ताड़ बना कर अपने प्राण खो बैठते हैं।

न्यूयार्क में एक युवक संगीतकार ने इसलिए आत्म हत्या कर ली कि वह अपना प्रिय वायलिन गिरवी से छुड़ाने के लिए आवश्यक कमाई न कर सका। परीक्षा में फेल होने वाले विद्यार्थी, प्रेम प्रणय में असफल होने वाले प्रेमी लोग, परिवार में कलह कटुता आ जाने जैसे प्रसंगों पर कितने ही लोग हत्या या आत्म हत्या जैसे उद्धत कार्य कर डालते हैं। यह आवेश की स्थिति है। चिन्ता भी लगभग ऐसी ही भावुकता है जो निराशा जैसी मन्द आत्महत्या के गर्त में धकेल कर व्यक्ति को अपंग बना देती है।

वर्तमान की चिन्ता करना और हल खोजने में स्थिर चित्त से तन्मय होना यह उपयुक्त है। भूतकाल की उधेड़ बुन में खोये रहना, बेकार है। ऐसा क्यों हुआ, किसने किया, भूल कहाँ रही जैसे प्रश्नों की उखाड़ पछाड़ करते रहने से क्या लाभ? जो बीत गया सो गया अब वह लौट नहीं सकता। उसके लिए माथा पच्ची करना बेकार है। इसी प्रकार भविष्य में क्या कठिनाई आयेगी, किस संकट में होकर गुजरना पड़ेगा जैसी बातें सोचते हुए समय से पूर्व चिन्ताएँ समेटना बेकार है। अपने लिए वर्तमान ही पर्याप्त है। उसी को देखा, समझा जाय और जो आज की स्थिति में सर्वोत्तम कदम उठाया जा सकता है उसी के लिए साहस समेटा जाय। वर्तमान पर केन्द्रित रहना सीख लिया जाय तो चिन्ता करने के लिए न तो अवसर ही मिलेगा और न आवश्यकता ही प्रतीत होगी।

हमें हर घड़ी व्यस्त रहना सीखना चाहिए। जार्ज बर्नार्डशा कहते थे दुखी और चिन्तित होने के लिए मनुष्य के पास फालतू वक्त होना चाहिए। जिसके पास करने के लिए ढेरों काम पड़ा है उसे इतनी फुरसत कहाँ होगी कि बेकार बातें सोचे और चिन्ता और दुःख में डूबे।

इंग्लैण्ड के प्रधान मन्त्री बुढ़ापे में भी 18 घण्टे काम करते थे। द्वितीय महायुद्ध में उनके सामने बहुत समस्याएँ थीं और चिन्ता के कारण भी, पर उन्हें कभी किसी ने उद्विग्न नहीं देखा । हर काम को शान्ति और एकाग्रता के साथ करते थे। उसी मनः स्थिति के कारण वे अपने देश को जीवन मरण की घड़ियों में से उवार कर पार ले गये।

‘अप्रिय को कैसे भूलें, पुस्तक के लेखक जान कूपर पोन्स का कथन है चिन्ता और तनाव से बचने को एक ही उपाय है कि अपने लिए सोचने और करने के लिए कार्यक्रम निर्धारित करें और उसी में उत्साह, प्रसन्नता तथा तन्मयता के साथ जुटे रहें।

ओसा जॉन्स ने कहा है -यदि मैं निरन्तर रचनात्मक विचारों और कार्यों में लगने की पद्धति सीख न पाता तो दूसरों की तरह मुझे भी चिन्ता में घुल-घुल कर मरना होता।

दार्शनिक पैरल्कीज कहा करते थे-छोटे आदमी छोटी बातें सोचते हैं। और अपने ओछेपन के कारण निराश और व्यथित रहते हैं। परिष्कृत व्यक्तित्व हमेशा सृजन सोचता है और उन साधनों को अपनाता है जिनके सहारे कठिनाइयों को पार कर सकना संभव हो सके।

जार्ज क्रुक ने लिखा है- कभी मुझे भी चिन्ताएँ बहुत सताया करती थीं पर जब मैंने देखा कि वे काल्पनिक ही नहीं अहितकर और अवांछनीय भी हैं तो मैंने उन्हें दुत्कार दिया और जितना समय चिन्ता में लगाता था उतना कुछ महत्त्वपूर्ण काम करने में लगाने लगा।

सुकरात को जहर का प्याला दिया जाने लगा तो वे मुसकराते हुए उसे पीने लगे। ऐसे अवसर पर भी उन्हें दुःखी न देख कर उपस्थित लोगों ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने यही कहा जिसे बदला नहीं जा सकता उसे शान्ति के साथ सहन करना चाहिए।

कठिनाई की घड़ी में अपेक्षाकृत अधिक साहस और अधिक पुरुषार्थ की जरूरत पड़ती है। इन दोनों महान् अवलम्बनों को चिन्ता की आग में जला कर स्वयं असहाय बन जाने में कुछ बुद्धिमानी की बात नहीं हैं।


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