ऋषि तपस्वी और ब्राह्मण, व्यक्तियों की संख्या मानी जाती है। अभीष्ट विशेषताओं से संपन्न व्यक्तियों को उनके गुण कर्म स्वभाव के आधार पर ऋषि तपस्वी एवं ब्राह्मण माना जाता है पर यह तत्त्व भी है। ऋषित्व ब्राह्मणत्व और तपस तत्त्व प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर मौजूद है। उन्हें जागृत, विकसित एवं समुन्नत किया जा सके तो बाहरी वेष विन्यास एवं क्रिया कलाप में साधारण दीखने पर भी कोई व्यक्ति ऋषि तपस्वी एवं ब्रह्म हो सकता है। इसके लिए शारीरिक एवं कर्मकाण्डपरक साधन न पड़े तो केवल मानसिक एवं भावनात्मक निष्ठा से भी काम चल सकता है।
विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि बनने का प्रयत्न किया था। उनने शारीरिक तपश्चर्याएँ तो बहुत कीं-पर भावनात्मक स्तर ऊँचा न उठा पाने के कारण वे उस पद को प्राप्त न कर सके। जब उन्होंने वह प्रयोजन पूरा कर लिया तो राजर्षि से पदोन्नति करके ब्रह्मर्षि बन सकें।
ब्राह्मणत्व के आवश्यक गुणों में मनु भगवान ने जिन्हें आवश्यक बताया है वे यह हैं (1) स्वाध्याय सत्संग, चिन्तन मनन (2) सत्प्रवृत्तियों के सुदृढ़ता पूर्वक अपनाने का व्रत (3) अग्नि होत्र यज्ञीय जीवन, परमार्थ में संलग्नता (4) भक्ति पूर्वक ध्यान उपासना (5) विवेक की प्रधानता (6) आत्मीयता करुणा एवं ममता का विकास कहा भी हैं।
स्वाध्यायेन व्रतैर्होंमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः ।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।
मनु0 2।18
स्वाध्याय, व्रत, होम वेदाध्ययन, इज्यया, सोमपान, यज्ञ और महायज्ञों में यह शरीर ब्राह्मण बनता है।
वेद ज्ञान का मूल है। ब्रह्म विद्या कभी उपलब्धि उसी सद्ज्ञान से होती है। पर वह वेद ज्ञान मात्र पुस्तक पढ़ने से प्राप्त नहीं होता । उसका सार समझने और अन्तरंग में धारण करने के लिए अभीष्ट पात्रता विकसित करनी पड़ती है। उस विकसित पात्रता का नाम ही ब्राह्मणत्व है। उसे प्राप्त होते ही वेद का -ब्रह्म का-सहज साक्षात्कार होने लगता है।
प्रत्नास ऋष्यो दीध्यानाः।
पुरो विप्रा दधिरेमिन्द जिह्वम्।
ध्यान करते हुए ऋषि और ब्राह्मण उस मन्त्र देवता का प्रत्यक्ष करते हैं।
न ह्येषु प्रत्यक्षमस्त्यनृषेर तपसो वा निरुक्त।
वेद ऋचाओं का प्रत्यक्ष ऋषि और तपस्वी हुए बिना नहीं होता।
आचार निष्ठ उज्ज्वल चरित्र, आत्मज्ञानी-विवेकशील एवं परमार्थ परायण व्यक्ति ब्राह्मण कहलाते हैं। जब उस स्तर के व्यक्ति तपश्चर्या द्वारा अपनी दिव्य शक्तियों का विकास करने में तत्पर होते हैं तो ऋषि पर प्राप्त करते हैं। ऋषियों का तप तेज-ब्राह्मण के आत्मबल से बढ़ा चढ़ा होता है इस सशक्तता की उपलब्धि में जो विशेष श्रम करना पड़ा अस्तु बढ़ा हुआ ब्रह्म वर्चस्व उन्हें ब्रह्म मय ही बना देता है।
ऋषी नार्षेयांस्तपसाउधिजातान्।
अथर्व 11।1।26
ऋषि और तत्त्वदर्शी यह दोनों तप से उत्पन्न होते हैं।
ऋषिर्दर्शनात्। निरुत-2।11
तत्त्वदर्शी को ऋषि कहते हैं।
तत्पय मानान् ब्रह्य स्वयंभफ अभ्यनार्षत ।
-यास्क
ऋषियों को तप करते हुए स्वयंभू वेद का साक्षात्कार हुआ।
अपना काय कलेवर ही सूक्ष्म तपोवन है। उसमें निवास करने वाले चेतना केन्द्र यदि परिष्कृत हो जाते हैं तो वे ऋषि बन जाते हैं। ऐसे चेतना केन्द्र साथ हैं। इसलिए उन्हें सप्त ऋषि भी कहते हैं। अपने काय कलेवर के तपोवन में अवस्थित सात ऋषियों का वर्णन, विवरण इस प्रकार है।
सप्तऋषयः प्रतिहिता, शरीरे सप्त रक्षिन्त सदम प्रमादम ।
यजु 34।55
सप्त इन्द्रियाँ सप्त ऋषि हैं । यही सइस कलेवर की रक्षा करती हैं।
कः सप्त स्तानि वितदर्द शीर्षाणि।
कर्णा विमौ नासिके चक्षिणी परुवम्।
अथर्व 10।2।6
सप्त ऋषि यह हैं -दो कान, दो नासिका छिद्र, दो नेत्र एक मुख, इस प्रकार सात हुए।
चक्षुर्वे जमदाग्नि ऋषिर्यद्वेनेन जगत्पश्यति।
शत पथ 8।1 ।2।3
जय यह नेत्र समस्त विश्व को देखते हैं तब वे जमदग्नि कहलाते हैं।
श्रोत्रं वै विश्वामित्र ऋषिर्यदेनन सर्वतः
श्रृणोत्यथो यदस्यै सर्वतोमित्रं भवति तस्मा-च्छोत्रं विश्वामित्र ऋषिः । श.प. 8।1।2।9
कान जब दसों दिशाओं के दूर व्यापी शब्दों को सुनते हैं सब ओर से सद्वचनों को ही ग्रहण करते हैं । तब वह विश्वामित्र कहलाते हैं।
वाक वै विश्व कर्मषि वर्चाहीदं सर्व कृतम-शत पथ 8।1।2।9
वाणी जब उच्चारण मात्र से ही सब कुछ उत्पन्न और सम्पन्न करती है तब वह विश्वकर्मा ऋषि बन जाती है।
शत पथ ब्राह्मण 14।5।2 में इन्द्रियों का ऋषि परक नाम करण इस प्रकार हुआ है-
“दो कान गौतम और भारद्वाज हैं। दो नासिका छिद्र विशिह आदि काश्यप हैं। दो आंखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं। मुख अत्रि है।”
विश्वामित्रः सर्व मित्रः।
निरुक्त 2।7।24
विश्वामित्र वह जो सब का मित्र हो।
विश्वस्य ह मित्रं विश्वामित्र आस।
विश्वं हास्मै मित्रं भवति य एवं वेद।
ऐ. व्रा. 6।20
समस्त विश्व का मित्र विश्वामित्र । उसके सभी मित्र होते हैं।
तयोरादौ सरस्वत्याश्चालनं कथयामि ते।
अरुन्धत्यैव कथिता पुराविद्मि सरस्वती॥
- योगकुण्डल्युपनिषत 1।9
सुषुम्ना नाड़ी को अरुन्धती अथवा सरस्वती कहते हैं। शरीर की स्थूल इन्द्रियों में नहीं वरन् इन इन्द्रियों के संचालक सूक्ष्म केन्द्र जो मानसिक क्षेत्र में विद्यमान् हैं। उन्हें ही ऋषि स्थापना का उद्गम मानना चाहिए, इन्द्रियों का माँसल भाग तो मात्र क्रिया कलाप सम्पन्न करता है। अनुभूतियाँ तो मस्तिष्क में ही होती हैं। इन्द्रियाँ उपभेजा के पीछे दृष्टि कोण का निर्धारण और उसके संचालन का निर्देश तो मानसिक आस्था पर ही निर्भर रहता है। अस्तु उन्हीं मस्तिष्क में अवस्थित चेतना केन्द्र को ऋषि मानना चाहिए।
सप्तऋषि मस्तिष्क में निवास करने वाले सात प्रमुख चेतना केन्द्र हैं-
(1) आज्ञा केन्द्र Motor area
(2) प्रज्ञा केन्द्र Sensory area
(3) श्रवण केन्द्र Hearing
(4) वाणी केन्द्र Speech
(5) दृष्टि केन्द्र Vision
(6) घ्राण केन्द्र Smell
(7) स्वाद केन्द्र Taste
इन्हें ही सप्त ऋषि आश्रम कहना चाहिए । काय तपोवन में हमारा मस्तिष्क-मानसिक स्तर ही सप्त ऋषि आश्रम हैं। इन्द्रियाँ तो अपना आहार पदार्थों के रूप में माँगती हैं पर यह ऋषि तो तप और ब्रह्म-परायणता के आधार पर ही पोषण प्राप्त करते हैं-जीवित रहते हैं।
तद्ब्रह्य च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति
ब्रह्यावर्चस्युप्रजीवनीयो भवति एवं वेद।
अथर्व 8।13।16।10।4
सप्त ऋषि तप और बल के आधार पर जीवित रहते हैं। जो इस रहस्य को जानता है वह ब्रह्मचर्य और जीवन प्राप्त करता है।
तदब्रह्य च तपश्च सप्तऋष्य उपजीवन्ति ब्रह्यःवर्चस्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद।
अथर्व 8।13।16।10।4
सप्त ऋषि तप और बल बल के आधार पर जीवित रहते हैं जो इस रहस्य को जानता है वह ब्रह्मवर्चस और जीवन प्राप्त करता है।
वस्तुतः मनुष्य के अन्त-करण-हृदय में निवास करने वाली दिव्यता ही ‘देव’ है। इन्हीं की समर्थता के अनुरूप जीवन विश्व का निर्माण होता है। यह सच्चे ऋषि महात्मा हैं। भावना, बुद्धि और क्रिया में इनका प्रकाश प्रत्यक्ष झलकता है। जो व्यक्ति इस ऋषि प्रक्रिया के साथ जुड़ गया है समझना चाहिए कि उसे अमृत की प्राप्ति हो गई । श्रेष्ठतर उपनिषद् में इसी तथ्य का प्रतिपादन किया गया है।
एष देवो विश्वकर्म्मा महात्मा
सदा जनाना ह्नदये सन्निविष्टः।
ह्नदा मनीषा मनसाभिल्कृप्तो
य एतहुदुरमृतास्ते भवन्ति ॥
(श्रेताश्वर 4।17)
यह देवता विश्व के बनाने वाले और महात्मा हैं, सदा लोगों के हृदय में सन्निविष्टः हैं। हृदय, बुद्धि और मन के द्वारा पहचाने जाते हैं, जो इसे जानते हैं वे अमृत होते हैं।