गुरु के भाव (kahani)

April 1973

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साधक गुरुदेव के निकट रहकर ही उनकी सेवा किया करता था। एक बार उनसे आज्ञा लेकर वह कुछ दिनों के लिये अपने गाँव चला गया। जब वह लौट कर पहुँचा तो उसने अपने गुरु से कहा-गुरु देव मेरी सगाई हो गई है।’

‘तब तो तुम मुझसे भी दूर हो गये।’ इतना कहकर वह मौन हो गये।

दूसरी बार जब उस साधक को घर जाने का अवसर मिला तो शुभ मुहूर्त में उसका विवाह कर दिया गया। विवाह की सूचना जब गुरु को मिली तो उन्होंने कहा-अब तो तू अपने माता पिता से भी गया।’

अब उस व्यक्ति ने गुरु के साथ रहना छोड़ दिया था क्योंकि उस पर पहले की अपेक्षा उत्तरदायित्व बढ़ गये थे। लगभग 1 वर्ष बाद गुरु के दर्शन करने का अवसर मिला तो उसने शुभ संदेश सुनाते हुए कहा-मुझे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है।’

‘तब तो तू अपने से भी गया’ कहकर गुरु जी मौन हो गये।

इन छोटे रहस्यपूर्ण उत्तरों से वह व्यक्ति असंतुष्ट हो गया था पर कुछ कहने और पूछने का भी साहस न कर पा रहा था एक दिन अचानक उसकी भेंट अपने गुरु से हो गई । औपचारिकता का निर्वाह करते हुए उसने घर चलने का आग्रह किया। ‘जब तुम्हारी इच्छा हो तब मुझे बुला लेना’ कह कर दोनों साथ-साथ चल दिये।

आज गुरुजी अकेले थे अच्छा मौका था अतः उसने पुरानी बातों को जानने की इच्छा व्यक्त की। गुरुजी ने सहज भाव से समझाते हुए कहा-क्या तुम इतनी साधारण सी बातों को भी नहीं समझ सके। सगाई होते ही मेरे प्रति तुम्हारी निष्ठा कम हो गई और उसके परिणाम स्वरूप मुझ से अलग होना पड़ा। और विवाह होते ही अपने सुख के लिये माता पिता से भी अलग हो गये। अब पिता बनने पर तो तुमने अपने सुख को भी खो दिया है। रात दिन परिवार वालों की चिन्ताओं में घुलते रहते हो। अधिक से अधिक कमा कर उन्हें सुखी बनाने की चिन्ता तुम्हारे सिर पर सदैव सवार बनी रहती है।


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