प्रार्थना का मतलब चाहे जो माँगना नहीं है।

February 1972

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इंजील में एक जगह कहा गया है कि - “जो तुम माँगते हो सो पाते नहीं-क्योंकि तुम गलत माँगते हो।” सचमुच माँगना भी एक कला है और उसमें भी समझदारी की आवश्यकता है। अन्यथा बिना विचारे किये गये अन्य कामों की तरह हमारी प्रार्थना याचना भी निष्फल चली जायगी। यदि माँगना ही हो तो पहले यह देख लेना चाहिए कि किससे क्या माँगना चाहिए और किस शर्त पर माँगना चाहिए। डाकखाने में जाकर आप जलेबी माँगे तो उपहास के अलावा क्या हाथ लगेगा। दर्जी की दुकान पर किताबें माँगी जायें तो निराश ही होना पड़ेगा। भिक्षुओं को भी याचना के साथ कारण बताना पड़ता है। शारीरिक असमर्थता या किसी आकस्मिक विपत्ति की चर्चा न की जाय और कोई तन्दुरुस्त व्यक्ति ऐसे ही भिक्षा माँगने लगे तो उसे कोई बिरला ही कुछ देगा।

ईश्वर दयालु और दाता तो है, पर देते समय वह भी विवेक से काम लेता है और पात्रता परखते हुए ही देने वाली मुट्ठी खोलता है। जहाँ तक सहज अनुदान का प्रश्न है वहाँ उसने सबको बहुमूल्य शरीर एक से एक उपयोगी अंग बुद्धि, सुन्दर दुनिया तथा सुविधाजनक परिस्थितियाँ प्रदान की हैं। एकाकी तो हम एक मक्खी भी नहीं बना सकते और उसकी प्रदत्त सामग्री न हो तो अन्न का एक दाना भी उगा सकना सम्भव नहीं। आदमी के पुरुषार्थ और बुद्धि का बहुत मूल्य है पर वह तभी कुछ कर सकने और पा सकने में सफल हो सकती है। जब आवश्यक साधन और सुविधायें उपलब्ध हों। कहना न होगा कि वस्तुएँ तथा सुविधाएँ इस संसार में भगवान ने ही उपलब्ध की हैं। मनुष्य तो उनमें थोड़ा हेर-फेर कर लेता या उपयोग उपभोग में अपनी चतुरता का ताल-मेल बिठा लेता है। उसके पुरुषार्थ और बुद्धि वैभव का दायरा इतना ही सीमित है। मूल उत्पादन और अनुदान तो सर्वत्र परमात्मा का ही बिखरा पड़ा है।

यह समस्त उपलब्धियाँ भगवान ने आरम्भ से ही मनुष्य को दे दी हैं और उसे इस लायक बना दिया है कि दैनिक जीवन की अपनी आवश्यकताओं को अपने कौशल से स्वयं पूरा कर लिया करे। इसके अतिरिक्त परिस्थितियों को अनुकूल बनाने, परस्पर सद्भाव, सहयोग बनाये रहने तथा प्रगति के लिए साधन जुटाने के लिए इतना बुद्धि कौशल दिया है कि आये दिन सामने आती रहने वाली उलझनों को सुलझाया जा सके। धैर्य, साहस, पुरुषार्थ, पराक्रम, विवेक, स्नेह आदि विशेषताओं से सम्पन्न ऐसा मन बनाया है जो प्रतिकूलता में अनुकूलता उत्पन्न कर सके और अपनी हँसी-खुशी को हर स्थिति में अक्षुण्य रख सके। हर दिशा में प्रगति की इतनी सम्भावनायें प्रस्तुत करके रखी गई है कि यदि बुद्धिमानी से काम लिया जाय तो अभाव और असुविधा सहने का कोई अवसर ही न आये, आ भी जाय तो इतना मनोबल दिया गया है जिससे विपत्तियों के सहने तथा उन्हें बदलने की चेष्टा करते हुए जीवन क्रम की सरसता को अक्षुण्य बनाये रहा जा सकें।

यह सब ईश्वर प्रदत्त अनुदान इतने बड़े हैं और इतनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं कि उसे महान दयालु और महान दानी कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। जीवनयापन की आवश्यक सुविधा, साधन देकर भगवान ने सब प्राणियों को भेजा है। फिर मनुष्य को तो वाणी, समझ तथा कुशलता का अनुदान अतिरिक्त रूप से भी दिया है जिसके आधार पर अन्य जीवों की तुलना में असंख्य गुना सुविधा सम्पन्न जीवन जी सकता है। इतने पर भी यदि कोई दुःखी या अभावग्रस्त रहता है, शोक-सन्ताप सहता है तो यही कहा जायगा कि उसने उपलब्ध साधनों तथा परिस्थितियों का ठीक से उपयोग करना एवं लाभ उठाना नहीं सीखा। इस नासमझी का दण्ड यदि उसे मिलता और अपने को विपन्न स्थिति में पड़ा पाता है तो उसमें दोष उसी का है। इसके लिए किसी अन्य को यहाँ तक कि भगवान को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता। थाली सामने परसी रखी हो पर यदि कोई उसे ठुकरा दे और खाना ही न चाहे तो उस आमन्त्रित कठिनाई से कोई क्योंकर किसी को बचा सकता है?

नब्बे प्रतिशत कठिनाइयाँ ऐसी हैं जो न भाग्य से उत्पन्न हुई हैं और न किसी दूसरे ने पैदा की हैं वरन् उनका कारण मात्र नासमझी या कर्तृत्व की दोषपूर्ण पद्धति है। इन्हें सुधार लिया जाय तो मनुष्य हँसी-खुशी का-शान्त और सन्तुष्ट जीवन जी सकता है। मनुष्य की वास्तविक आवश्यकतायें बहुत स्वल्प हैं। उसका आहार अन्य पशुओं से कम है। भोजन, वस्त्र, मकान आदि के साधन जुटा लेना इस महँगाई के जमाने में भी बहुत कठिन नहीं है। शिष्टता, सादगी, व्यवस्था और सज्जनता से रहना आता हो तो मिल-जुलकर शान्ति और स्नेहपूर्वक रहने का वातावरण बना रह सकता है। आहार-विहार का संयम हो तो रोगी बनने की भी नौबत न आवे। परिस्थितियों के अनुरूप चिन्तन को ढालने, मोड़ने का मानसिक लोच बना रहे तो आवेश, उद्वेग और शोक-सन्ताप भी सहन न करने पड़े। संग्रह और स्वामित्व का अहंकार अमीरी और आतंक की अभिलाषा न हो तो न असंतोष की आग में जलना पड़े और न पाप, अपराध करने की आवश्यकता पड़े। वासनाओं और तृष्णाओं को काबू में रखा जा सके तो इस सुन्दर से भगवान के संसार-उद्यान में हँसते खेलते दिन बिताये जा सकते हैं। मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक सुविधा सम्पन्न है उसे पाकर आदमी को भलमनसाहत आती हो तो सन्तोष और शान्ति के साथ स्वयं जी सकता है और दूसरों को जीवित रहने दे सकता है।

पर हम देखते हैं कि मनुष्य को जितनी सुविधायें मिली हैं उतना ही ज्यादा वह दुःखी तथा उलझा हुआ है। इसका कारण वस्तुओं की कमी नहीं, वरन् उनके सदुपयोग की क्षमता का अभाव है। इसका कारण परिस्थितियों की प्रतिकूलता नहीं वरन् उनके अनुकूल ढलने या उन्हें अपने अनुकूल ढालने वाले कलात्मक दृष्टिकोण की कमी है। यदि इन अपनी त्रुटियों को दूर कर लिया जाय तो न अभाव ग्रस्तता अनुभव होगी और न उसकी पूर्ति के लिए किसी से प्रार्थना करनी पड़ेगी। न अपने ऊपर संकट की घटायें घिरी दीखेंगी और न किसी का सहारा तकना पड़ेगा।

भगवान से माँगने योग्य वस्तुयें श्रद्धा, हिम्मत, श्रमनिष्ठा, सच्चरित्रता, करुणा, ममता, पवित्रता और विवेकशीलता जैसी वे सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियां हैं जो विपन्नता को सम्पन्नता में बदल देती हैं और अभाव रहते हुए जिनके कारण विपुल सम्पन्नता का सुख अनुभव होता रहता है। प्रगति और सफलता का सारा आधार सद्गुणों पर अवलम्बित है। उनके बिना अकस्मात किसी प्रकार कोई लाभ मिल भी जाय तो उसे सँभालना और स्थिर रखना असम्भव होगा। सदुपयोग केवल उस वस्तु का किया जा सकता है जो उचित मूल्य देकर उपार्जित की गई है। अनायास बिना परिश्रम के मिली हुई सम्पत्ति का अपव्यय ही होता है और उससे अनेक व्यसन और उद्वेग पैदा होते हैं जिनके कारण वह उपलब्धि सुखदायक न होकर अनेक विपत्तियाँ और विकृतियाँ उत्पन्न करने का कारण बन जाती है।

भगवान जिस पर प्रसन्न होते हैं उसे सद्गुणों का उपहार देते हैं क्योंकि वे अपने आप में इतने महान है कि यदि साधन सम्पन्नता न भी हो तो भी केवल उन सद्गुणों की सम्पदा के आधार पर मनुष्य सुखी, समुन्नत और सम्मानित जीवन जी सकता है। यही दिव्य सम्पदायें भगवान से माँगनी चाहिये। यही है वे विभूतियाँ हैं जिन्हें वे अपने भक्तों को दिया करते हैं।


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