सन् 59 के एक वर्ष वाले अज्ञातवास से जब गुरुदेव लौटे तो हम सब आश्चर्यचकित रह गये। उन दिनों हम लोगों का उनसे सीधा संपर्क भी था। आरम्भ के एक महीने ही वे हिमालय के हृदय-’चेतना के ध्रुव प्रदेश’ में रहे थे। इसके बाद गंगोत्री, उत्तरकाशी ही उनके साधना केन्द्र रहे। गंगोत्री में वे केवल पत्तियों पर रहे। खाद्य प्रबन्ध न हो सकने अथवा जो भी कारण हों उन्हें पालक, बथुआ जैसी जंगली शाक वनस्पतियों को उबाल कर उसी पर निर्वाह करना पड़ा। आरम्भ में पतले दस्त होने लगे थे। पीछे वे पत्तियाँ जैसे-तैसे हजम होने लगीं थीं।
उत्तरकाशी में वे शकरकन्द, गाजर जैसे शाक लेते थे सप्ताह में एक दिन खिचड़ी आदि। दूध गंगोत्री में तो था ही नहीं। उत्तर काशी में एक पाव प्रतिदिन का प्रबन्ध हो सका। सो कई बार वनस्पतियों की चाय के रूप में काम आ जाता। घी, मेवे फल आदि वे यहाँ भी कहाँ लेते हैं, वहाँ तो इन चीजों को छुआ तक नहीं। ऐसी दशा में यही आशंका की जा रही थी कि वे लौटेंगे तो बहुत दुबले होंगे।
आशंका के विपरीत उनका वजन 18 पौण्ड बढ़ा हुआ था। चेहरे पर लालिमा झलकने लगी थी और झुर्रियाँ आधी से ज्यादा मिट गईं थीं। लोकाचार किसी के अच्छे स्वास्थ्य पर आश्चर्य प्रकट करने का नहीं है। सो आरम्भ में कुछ भी नहीं कहा पर अवसर पाकर मैंने एक दिन इस सुधार का कारण पूछ ही लिया।
अमानत जो केवल दिव्य प्रयोजनों के लिये मिली है
उन्होंने उत्तर दिया-मात्र आहार पर ही शारीरिक स्वास्थ्य निर्भर नहीं रहता। जलवायु, मनःस्थिति और संयम-नियम पर भी बहुत हद तक अवलम्बित है हिमालय का शीत प्रधान वातावरण, निरन्तर गंगा जल का उपयोग हर काम में समय की नियमित व्यवस्था, भूख से कम खाने से पाचन सही होना, चित्त का दिव्य चिन्तन में निरत रहना, मानसिक विक्षोभ और उद्वेग का अवसर न आना यह ऐसे आधार हैं जिनका मूल्य पौष्टिक आहार से हजार गुना ज्यादा है। तपस्वी लोग सुविधा साधनों का, आहार का अभाव रहने पर भी दीर्घजीवी, पुष्ट और सशक्त रहते हैं उसका कारण उपरोक्त है जिसका महत्व आमतौर से नहीं समझा जाता।
हिमालय पिता की गोदी में जब भी वे गये। अपने शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य में अद्भुत अभिवृद्धि करके ही वापस आये। सूनेपन की हानिकारक प्रक्रिया बताते हुए वे अक्सर अपने स्वतन्त्रता संग्राम के जेल जीवन की यह बात सुनाया करते जिसमें उन्हें एक मास की काल कोठरी भुगतनी पड़ी थी। एक मास के सूनेपन ने उनके शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक सन्तुलन को बुरी तरह बिगाड़ दिया था।
इसके विपरीत एक बार सन् 62 में तीन महीने के लिये वे हिमालय गये और सर्वथा एकाकी सघन वन प्रदेश में रहे तो आश्चर्यजनक मनोदशा लेकर आये। वे अत्यधिक प्रसन्न, प्रफुल्लित और सन्तुष्ट दिखाई देने लगे। आशंका उन दिनों भी यही थी कि कहीं जेल जीवन की तरह यह तीन महीने भी उन्हें कष्टकारक सिद्ध न हों, पर उलटे जब आँखों में नई चमक देखी तो इस बार भी विचित्रता का कारण पूछना पड़ा।
उनने बताया हिमालय के दिव्य वातावरण में उनके शरीर को ही नहीं मन को भी एक दिव्य स्फुरण मिलता है। इस बार एक नया प्रकाश मिला। पशु-पक्षी, छोटे जीव-जन्तु यहाँ तक कि वृक्ष और पौधों में भी आत्मा की चेतना की उपस्थिति प्रत्यक्ष परिलक्षित हुई। पुस्तकों में तो आत्मा के सर्वव्यापी होने की बात पढ़ते रहते थे पर उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति इसी बार हुई। लगता रहा-मानो इस सघन वन प्रदेश में रहने वाले सभी जीवधारी मनुष्यों के समान ही हैं। बोलना और सोचना कम जानते हैं-उससे क्या? अनेक तपस्वी भी तो मौन धारण किये रहते हैं, और ध्यानावस्थित स्थिति में भी तो सोचना बन्द हो जाता है। इस क्षेत्र के निवासियों को मौन साधक और ध्यानावस्थित समझा जाय तो क्या हर्ज है। यह विचार मान्यता में बदला-निष्ठा बना, फिर प्रायः वैसी ही अनुभूति होने लगी।
कितने ही शाकाहारी और माँसाहारी पशु वहाँ फिरा करते थे। पहले उनसे डर लगता था। अब नई दृष्टि से वे एक ही गाँव, मुहल्ले में रहने वाले साथी सहचर से दीखने लगे। डरने की बात छूटी विश्वास बढ़ा, परिचय के साथ ममत्व भी विकसित हुआ। जिनके निवास समीप थे-उनसे घनिष्ठता बढ़ी। नाम रख लिये। यह देखा कि जिस आकृति वाले पशु को जो नाम दिया था वह उसने बिना सिखाए-पढ़ाये जाने लिया। अक्सर आवाज देकर बुलाने पर वही पशु समीप आ जाता जिसका नाम लिया गया था। इस तरह छः सप्ताह व्यतीत होते-होते सारा पशु परिवार मनुष्य जैसा घनिष्ठ हो गया। वे आते घण्टों पास बैठे रहते, धूप सेंकते रहते उन्हें खुजलाने, सहलाने, नहाने में सहयोग दिया तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। हिंस्र पशु भी आने लगे। एक मादा रीछ तो बहुत ही हिल गई। वह अपने छोटे बच्चों को झोंपड़ी के पास छोड़कर आहार की तलाश में चली जाती। बच्चे अपने पास खेलते उछलते रहते। पहले उस क्षेत्र में माँसाहारी पशु, शाकाहारियों को आये दिन मारते खाते रहते थे पर जितने दिन अपना रहना उधर हुआ एक भी ऐसी घटना नहीं हुई। लगा कि उन सबने हमारे साथ ही नहीं परस्पर भी कौटुम्बिकता और सद्भावनाओं को अपना लिया है।
पक्षियों के प्रति भी यही दृष्टि विकसित हुई तो वे भी छोटे बच्चों की तरह वहीं आस-पास फुदकने लगे दूर रहने वालों ने अपने घोंसले पास की झाड़ियों में बना लिये। झोंपड़ी घोंसलों से भर गई। रात को उसमें दर्जनों पक्षी विश्राम करते। खरगोश, लोमड़ी जैसे छोटे जानवरों ने तो मानों इसे अपना घर ही मान लिया हो। रात को वे उसी में घुस पड़ते और शीत से बचने के लिए परस्पर ही सटकर बैठते।
पशु-पक्षियों तक ही यह दृष्टि सीमित न रही वरन् मेंढक, गिरगिट, गिलहरी, चींटी, झींगुर, तितली जैसे छोटे जीवों ने भी इस आत्मीयता के दृष्टिकोण को पहचाना और स्वीकार किया। वे पास बैठते और इर्द−गिर्द चक्कर लगाने में प्रसन्नता अनुभव करते।
पीछे तो वृक्ष और झाड़ियां भी भाई-भतीजे जैसे लगने लगे। वे अपने स्थान पर से हट तो नहीं सकते थे पर दीखते ऐसे थे मानो हमारी सुरक्षा के प्रहरी तथा शुभ चिन्तक के रूप में खड़े ड्यूटी दे रहे हैं। सद्भावना उनमें भी प्रतिध्वनित होती देखी। झरने के पास जब बैठते तो तरह-तरह की भावुकता भरी दिव्य संवेदनाएं अनायास ही मन में उठती और लगता मानों वे कभी सन्त, तपस्वी, ब्रह्मज्ञानी की तरह अपनी मूक वाणी से हमें-अन्तःकरण को पुलकित करने की कवित्व जैसी संवेदनाएँ प्रदान कर रहे हैं। उन स्थानों से उठने को जी न करता।
दृष्टिकोण के इस नये परिवर्तन से सारा वन्य प्रदेश सुनसान न रहकर कोलाहल भरा प्राणी संकुल दीखने लगा। यह एक नया ही लोक था। मनुष्यों में पाई जाने वाली धूर्त्तता और दुष्टता का जहाँ नाम निशान नहीं। सभी प्राणधारी वाणी और विचारों के मात्र निर्धारित कर्त्तव्य के लिए प्रयोग करते प्रतीत हुए। सूनेपन के कारण जो भय पहले लगा करता था इस बार तनिक भी नहीं लगा। वरन् यह प्रतीत होता है-दुष्ट मनुष्य की तुलना में यह वन्य लोक कहीं अधिक शान्त, सात्विक एवं उत्कृष्ट है।
यह गाथा पुरानी है कि बालक भरत सिंहनी के बच्चों को खिलाने के लिए पकड़ ले जाता था। शिवाजी ने सिंहनी का दूध दुहा था। सन्त ज्ञानेश्वर ने भैंसे से वेद मन्त्र उच्चारण कराये थे। ऋषियों के आश्रमों में गाय और सिंह एक ही घाट पर पानी पीते थे। नई अनुभूति गुरुदेव की है कि यदि अपनी आत्मा में भय, शंका, अविश्वास, द्वेष, परायापन न हो, आत्मीयता की निष्ठा अति प्रगाढ़ हो तो मनुष्य जैसे संवेदनशील प्राणी द्वारा अविकसित पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं में भी कौटुम्बिकता विकसित की जा सकती है।
उन दिनों जब वे लौटे मथुरा में भी यही कौतुक हजारों ने देखा। उनकी थाली में चिड़िया, चुहिया, गिलहरियाँ भोजन साथ-साथ करतीं। जहाँ उन्होंने आवाज लगाई कि यह सारा जन्तु परिवार एकत्रित हुआ, एक सज्जन साथ बैठे थे। छोटी चुहिया उन्हीं की थाली में घुस पड़ी। उनने चुहिया को तो नहीं भगाया पर रोटी हाथ में लेने के लिए ऊपर उठाई। चुहिया रोटी से लटक गई पर रोटी नहीं छोड़ी। इतनी निर्भयता और आत्मीयता तो उनने घरेलू प्राणियों में पैदा कर ली थी। वन में भी उन्हें वैसा ही कौटुंबिक वातावरण जीव-जन्तुओं के साथ मिला इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। आत्मीयता का उत्कृष्ट प्रवाह अपने साथ किसी को वहीं बहा ले चलने में समर्थ हो सकता है फिर भले ही वे पशु-पक्षी या कीट पतंग ही क्यों न हों।
यह हिमालय पिता का ही अनुदान था जिसने ज्ञान चक्षु खोले और आत्मा के सर्वव्यापी होने का आभास कराया। इस आभास के कारण सर्वत्र आत्मीयता बिखरी और उसकी प्रतिक्रिया समस्त चेतन जगत की सद्भावना अपने प्रति बरसने लगी इससे आन्तरिक आनन्द एवं सन्तोष असंख्य गुना बढ़ गया और साथ ही अवलम्बन भी विकसित होता चला गया।
यह आत्मीयता का विकास ही है जिसने लाखों व्यक्तियों को मजबूत रस्सी के साथ जकड़ कर उनके साथ बाँध दिया है। विद्वता, प्रतिभा, भाषण, लेखन, संगठन, आन्दोलन, प्रतिपादन आदि बहुत छोटे आधार हैं। यह कला दूसरों को भी अच्छी तरह आती है पर वे उतना सघन कुटुम्ब कहाँ बना पाते हैं? ऐसे व्यक्तित्व किसी को घनिष्ठ आत्मीयता में बाँध लेने और किसी से कोई साहसपूर्ण कार्य करा सकने में समर्थ नहीं होते। गुरुदेव ने हिमालय के वातावरण में अन्तर्मुखी होकर प्रकृति के कण-कण में सन्निहित दिव्यता को पढ़ा, समझा और असली शिक्षा जिसने उन्हें मात्र विद्वान ही नहीं बना रहने दिया वरन् तत्वदर्शी के स्तर पर पहुँचा दिया।
हिमालय को वे जड़ नहीं चेतन मानते हैं। उमा, महेश से लेकर अन्य देवताओं की सघनता उस क्षेत्र में विद्यमान है ऐसा वे अनुभव करते हैं। जब-जब वे वहाँ जाते हैं कुछ ऐसे विचित्र अनुभव सुनाते हैं जिससे वहाँ देव सत्ता की प्रत्यक्ष उपस्थिति पर विश्वास करना पड़ता है।
एक बार कुछ जड़ी-बूटियों की खोज में रास्ता भटक गये और अपने स्थान से बहुत दूर सम्भवतः 20 मील आगे निकल गये। रात हो गई। हिंस्र पशुओं की आवाज गूँजने लगी। ऐसे समय में एक मनुष्य जैसा शरीर उन्हें हाथ पकड़ कर आधे घण्टे में ही यथा स्थान पहुँचा गया। एक बार वर्षा के पानी से उनका निवास सब ओर से घिर गया। खाद्य पदार्थ समाप्त। इसी समय एक मनुष्य का दीखना और हाथ के इशारे से जमीन खोदने का इशारा करना। खोदा जाना और वहाँ से बीस सेर भारी एक ऐसे मीठे और स्वादिष्ट कन्द का निकलना जिस पर भली प्रकार निर्वाह किया जा सके। हिंस्र जन्तुओं से आये दिन मुकाबला होते रहना पर कुछ दुर्घटना न घटना। एक बार विपत्तिग्रस्त को सारे पैसे दे दिये। पास में कुछ भी न रहा। दूसरे दिन सिरहाने काम चलाऊ धन मिल जाना उस क्षेत्र में निवास करने वाली दिव्य आत्माओं का आभास और उनसे भेंट करने का सुयोग आदि एक से बढ़कर एक ऐसे अद्भुत अनुभवों की शृंखला उस हिमप्रदेश की है-जिसे सुनते जादू तिलिस्म जैसी कथा प्रसंग का रस आता है; पर उसमें अत्युक्ति की बात तनिक भी नहीं उनका उच्च व्यक्तित्व, कौतुहल वर्धक गाथाएँ गढ़कर किसी को भ्रमित करने की चेष्टा करेगा यह तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। फिर भी वे प्रसंग उन्होंने किसी को बताएं भी तो नहीं। वे सिर्फ उन्हें ही विदित थे जिनमें से कुछ की एक हल्की सी झाँकी इसलिए प्रस्तुत करनी पड़ी की हिमालय की दिव्यता को समझा जा सके और उस खदान से बहुमूल्य रत्नों को उत्खनन करने का अन्य आत्मविद्या प्रेमियों को भी लाभ मिल सके।
इन दिनों वे फिर इसी क्षेत्र में हैं। लगता है वे भविष्य में भी वहीं से निरन्तर दिव्य उपलब्धियाँ प्राप्त करने और सर्वसाधारण तक पहुँचाने का कार्य करेंगे। प्रतिबन्धित अवधि तो वसन्त पर्व तक की थी। इसके बाद उनका उभय पक्षी कार्यक्रम कब से चलेगा यह तो कहा नहीं जा सकता पर भावी क्रम यही है बादलों की तरह समुद्र से पानी लाना और खेतों पर बरसाना। हरिद्वार का मध्य केन्द्र उनके इस ध्येय को पूरा करते रहने के लिए ही तो बना है। वे हर बसन्त पर बहुत कुछ प्राप्त करते रहे हैं और आगे के लिए अधिक दुस्साहस पूर्ण कदम बढ़ाते रहे हैं। उनका यह वसन्त पिछले 42 वसन्तों से अधिक महत्वपूर्ण होगा। ऐसी आशा हम लोग सहज की कर सकते हैं। उन्हें अपने पिता पर- हिमालय पर कितना गर्व-कितना विश्वास और कितना अवलम्बन है इसे समझने पर ही उनकी पितृभक्ति की हिमालय प्रीति का अनुमान लगा सकना सम्भव हो सकता है।
गुरुदेव के व्यक्तित्व में जो कुछ शालीनता, उत्कृष्टता, गम्भीरता, शीतलता, पवित्रता, दृढ़ता दीख पड़ती है। उसे हिमालय पिता का अनुदान ही माना जाना चाहिए, उसकी सार्वभौमिक क्षमता उनके गुरुदेव का वरदान है। वे जन्मजात विद्वान नहीं हैं। आर्ष ग्रन्थों में सुलभता का उनका कार्य अद्भुत है। इसीलिए उनका लेखा-जोखा लेने वाले उन्हें दूसरा व्यास कहते हैं। अन्य उनके छोटे-बड़े कितने ग्रन्थ हैं। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के प्रतिदान को देखते हुए लोग उन्हें ज्ञान-विज्ञान का मूर्तिमान कोष कह उठते हैं और कार्ल मार्क्स के अध्यवसाय से उनके श्रम की तुलना करते हैं। पर उनकी निकटवर्ती होने के नाते मैं जानती हूँ कि यह सब विशुद्ध उधार का अनुदान है जो इनके मार्गदर्शक द्वारा ऐसे ही लिखाया जाता है जैसे पौराणिक कथा के अनुसार व्यास बोलते गये थे और महाभारत को गणेश जी लिखते गये थे। जब हम लोग अकेले में होते हैं और साहित्य सृजन की चर्चा चल पड़ती है तो वे मजाक में यही कहते हैं-पुरानी शैली में हम बिना सूँड़ के गणेश और नई शैली में स्टेनो टाइपिस्ट भर हैं।
सार्वजनिक जीवन में उनकी जितनी भी अद्भुत सफलताएँ हैं वे लगती ऐसी हैं मानों घोर परिश्रम से उनने की हों। पर सच तो यह है कि उन्हें वे चुपचाप धरोहर की तरह मिली है। नव निर्माण आन्दोलन का विस्तार आँधी तूफान की तरह होता चला जा रहा है। पर्दे के पीछे उसे कौन चला रहा है उसका पता सर्वसाधारण को कहाँ है। यदि मार्गदर्शक के दिव्य अनुदान बन्द हो जायें तो उनकी स्वतंत्र प्रतिभा नगण्य सी ही सिद्ध होगी।
मुझे उन दिनों की याद है जब सहस्र कुण्डी यज्ञ उन पर थोपा गया था। मार्गदर्शक का आदेश हुआ कि देशभर की सुसंस्कारी आत्माओं को एकत्रित करके उन्हें नव-निर्माण में तत्पर होने की प्रेरणा दी जाये। युग परिवर्तन अभियान का श्रीगणेश करने के लिए सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ किया जाये। उनकी जो रूप-रेखा बताई गई वह अति विशाल थी। (1) चार लाख संस्कारी व्यक्तियों को ढूँढ़ना और उन्हें बुलाना (2) इतने व्यक्तियों के निवास, भोजन आदि की निःशुल्क व्यवस्था करना। (3) सहस्र कुण्डी यज्ञ के साधन उपकरण जुटाना (4) आगन्तुकों में हर एक के साथ विचार-विमर्श करके उनकी स्थिति के अनुरूप काम बाँटना। यह चारों ही काम कहने-सुनने में भले ही सरल लगते हों पर उनकी बारीकियों पर विचार किया गया और उनकी रूपरेखा तथा आवश्यकता का ढाँचा खड़ा किया गया, साधनों का अनुमान लगाया गया तो उन्हें पसीना आ गया। कहाँ अपनी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति और कहाँ यह आयोजन। मात्र उत्सव भी तो नहीं था जो धन के आधार पर कर लिया जाय? चार लाख व्यक्ति कहाँ से तलाश किये जायें? फिर वे अपरिचित के आमन्त्रण पर इतना समय और पैसा खर्च करके आने को क्यों तैयार होंगे? आ भी गये तो चार लाख व्यक्तियों की पाँच दिन की व्यवस्था में जो खर्च पड़ेगा वह कहाँ से आयेगा। लोग आ भी गये, खर्च का साधन बन भी गया तो सबसे संपर्क, विचार-विमर्श और कार्य विभाजन तो सर्वथा असम्भव है। असम्भव को सम्भव कैसे बनाया जा सकता है। इसी अन्धकार में उनका सिर घूमने लगा। लगा कि वे कार्य को पूरा कर सकना तो दूर वे उसकी विशालता सोचने मात्र से सन्तुलन खो बैठे हैं।
फिर उन्हें नया प्रकाश मिला और बताया गया-वे अपनी वस्तुस्थिति को न भूलें। अदृश्य मार्गदर्शक ने उन्हें मात्र दृश्य माध्यम बनाया है। कार्य जिसका है उत्तरदायित्व भी उसी का है। पूरा भी वही करेगा-व्यवस्था तथा साधन भी वही जुटाएगा। उन्हें तो दृश्य प्रतीक की तरह हाथ-पांव चलाते भर रहना है। भ्रम दूर हुआ तो हँस-हँस कर पूरी निश्चिन्तता के साथ काम करने लगे लोगों को अचम्भा होता था। काम इतना बड़ा साधन नगण्य। आमतौर से उन दिनों उन्हें सनकी और विक्षिप्त समझा गया था। और किसी भी समझदार ने उनका साथ देने से इनकार कर दिया था। रीछ-वानरों की सेना इकट्ठी करके ही वे कुछ महीनों पहले से इस कार्य की औंधी-सीधी रूपरेखा और व्यवस्था जुटाने का कार्य करते रहते हैं। समीक्षा करने वालों को यह सिर्फ पागलपन ही लग रहा था। नियत समय पर हर कार्य इस तरह होता चला गया मानों सब कुछ पहले से ही सुनिश्चित करके रखा गया हो। सब कुछ जादू जैसा हुआ। निमन्त्रण पत्र कुछ हजार ही छपे थे और कुछ हजार पतों पर भेजने के अतिरिक्त यह सूझ ही नहीं पड़ा कि शेष को कहाँ भेजे? पर लगभग चार लाख व्यक्ति ही आये और उनमें से हर एक ने अपना यही अनुभव बताया कि उन्हें आमन्त्रण ही नहीं ऐसा आन्तरिक दबाव भी अनुभव हुआ कि उसमें सम्मिलित हुए बिना छुटकारा नहीं।
निवास के लिए कुल पाँच हजार डेरे-तम्बू जुटाए जा सके थे। खाद्य पदार्थ एक हजार मन खरीदा जा सका था। यह तो कुछ हजार व्यक्तियों के लिये ही अपर्याप्त था। पर इतने में भी सब कुछ निपट गया। बिना मूल्य भोजन भण्डार चलता रहा और अन्त में पाँच सौ मन बचा हुआ खाद्य पदार्थ वितरण करना पड़ा। पैसा दान पेटियों में एक लाख से कम ही निकला था। जिसमें तम्बू और बिजली के ठेकेदारों को निपटाया जाना भी कठिन था। खर्च की मदें तो सैंकड़ों थी और हर मद में हजारों लाखों ही चुकाए जाने थे। चन्दा करना नहीं था। कोई धनी मानी भी साथ नहीं। अपनी गुंजाइश नहीं। निर्धारित पेटी को वे स्वयं ही खोलते बन्द करते रहते थे। पेटी वह अब भी मौजूद है पर उन दिनों तो उसने कुबेर के अक्षय भण्डार का रूप धारण कर लिया था। सब कार्य सानन्द हो गये। हजारों कर्मचारी, हजारों स्वयं सेवक व्यवस्था में जुटे रहे। किसी की एक सुई तक चोरी नहीं गई, किसी का सिर तक नहीं दुखा, किसी को ठोकर तक नहीं लगी-जबकि इतने बड़े आयोजन में सहज ही दुर्घटनायें हो सकती हैं। सरकारी अफसर हैजा आदि फूट पड़ने के भय से चिन्तित थे। सूचना तो उन्हें थी पर सम्भावना पर विश्वास न था सो वे कुछ प्रबन्ध भी न कर सके। यकायक प्रबन्ध हो भी नहीं सकता था। उनकी चिन्ता दूर करते हुए पूरा पक्का विश्वास यह दिलाया कि वे चिन्ता जरा भी न करें उन्हें बदनाम न होना पड़ेगा सो ही हुआ भी। दर्शक यही कहते रहे, यह उनके जीवन का अनुपम दृश्य था। इतना बड़ा धर्मानुष्ठान वस्तुतः हजारों वर्षों से न देखा गया न सुना गया। सर्वथा साधनहीन व्यक्ति द्वारा इतना बड़ा कार्य हो सकता है सामान्य बुद्धि इसे किसी प्रकार स्वीकार नहीं कर सकती पर प्रत्यक्ष तो क्या कहा जाय? जो सामने मौजूद था, जो आँखों ने देखा उससे इनकार कैसे किया जाय?
दृश्य आयोजन से भी बड़ी बातें वह थीं, जो अदृश्य रूप से चलती रहीं और जिनका स्वरूप और महत्व समझ सकना हर किसी के लिए सहज सम्भव भी नहीं है सर्वथा अपरिचित लोगों को सम्मानित होने की प्रबल अन्तःप्रेरणा और उनका अनेक कठिनाईयों के रहते हुए भी आ पहुँचना और आगन्तुकों में कुछ दर्शकों को छोड़कर शेष का उच्च व्यक्तित्व, सम्पन्न स्तर का होना। यह एक अनोखापन ही है इसका कोई प्रत्यक्ष आधार तलाश नहीं किया जा सकता।
चार लाख आगन्तुक, दर्शकों की भीड़ उससे भी अधिक। इस जन समुद्र में एक व्यक्ति क्या करे क्या न करे? सो कुछ गुरुदेव को सूझा नहीं। वे प्रातः से सायं काल तक आगन्तुकों का अभिवादन करने के लिये एक तखत पर खड़े रहते। मुझे भी उनके साथ खड़ा रहना पड़ता। बस हम लोगों का इतना ही काम था। पूरे पाँच दिन 5-5 चुल्लू गंगाजल पीकर हम लोगों ने उपवास किया और खड़े रहे। रात में नित्यकर्म। व्यक्तिगत संपर्क तो व्यवस्थापकों से भी न हो पा रहा था फिर आगन्तुकों से परामर्श की बात तो सम्भव ही कहाँ थी? आकर्षण का केन्द्र बना एक व्यक्ति उस स्थिति में परामर्श तो क्या कुछ भी नहीं कर सकता था, लाखों आँखें उसी पर लगी थीं।
रिपोर्ट यह है कि आगन्तुकों में से अधिकाँश ने यह अनुभव किया कि आचार्यजी से उनकी व्यक्तिगत भेंट हुई परामर्श हुआ और भावी रीति-नीति के संबंध में प्रेरणायें दी गई। बुद्धि इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकती। पर तथ्यों से भी इनकार कैसे किया जाय। परिवार का संगठन उन्हीं पाँच दिनों में हुआ 2400 यज्ञ आयोजनों द्वारा जन जागृति की व्यापक लहर उत्पन्न करने और शत-सूत्री कार्यक्रमों को, युग-निर्माण योजना को कार्यान्वित करने का उत्तरदायित्व यहीं बाँटा गया। यह हर दिन एक भाषण से सम्भव नहीं था हर एक की योग्यता मनोभूमि एवं परिस्थिति भिन्न है सो कोई भी भिन्न हो सकते हैं इसके लिए व्यक्तिगत परामर्श के बिना काम नहीं चल सकता। यदि वह सम्भव न हुआ होता तो सहस्र कुण्डी यज्ञ आयोजन दूसरे लोगों के धर्मानुष्ठानों की तरह एक क्रिया कृत्य मात्र रहकर समाप्त हो गया होता। एक महान् क्रान्ति का शुभारम्भ उससे कैसे होता?
परामर्श करके और निर्देश लेकर ही वे आगन्तुक वापस नहीं चले गये वरन् उन्होंने अपेक्षित तत्परता और निष्ठा के साथ काम भी किया। उसी का परिणाम है जो अब बारह वर्ष बाद अपनी अनुपम गरिमा को प्रदर्शित कर रहा है। सचमुच वह आयोजन हर दृष्टि से ऐसा अद्भुत था कि जो देखा गया उसकी संगति मिलाने में बुद्धि चकराती है। कितने ही जेबकटों और उचक्कों ने बताया कि वे सारे हिन्दुस्तान से सैकड़ों की संख्या में अच्छी कमाई करने की आशा में आये थे पर यहाँ उनके हाथ-पाँव बँध गये। मन ऐसा बदला कि उस धर्मानुष्ठान में दूसरों की तरह भावनापूर्वक संलग्न रहने के अतिरिक्त और कुछ उनसे बन ही नहीं पड़ा। मार्ग के व्यय से अधिक जो उनके पास था, उसे दान पेटियों में डालकर खाली हाथ घर पहुँचे और वह धन्धा एक प्रकार से सदा के लिये ही छूट गया।
उन्हीं स्मृतियों में से एक यही भी है कि जिनके समान खो गये थे, गिर गये थे या गुम गये थे वे उन्हें अपने घर पर पहुँचने पर मिल गये। इन सूचना देने वालों का कहना है कि हमने अपना सामान मथुरा में भली प्रकार देख लिया था कि कोई चीज कहीं इसी में उलझी, लिपटी तो नहीं है। फिर घर पहुँचने पर वे चीजें हम यात्रा वाले बिस्तर या सामान में नहीं उससे बाहर रखी मिली। इसका कारण क्या हो सकता है? बौद्धिक कोई समाधान नहीं। मनगढ़न्त बात लगती है-पर जिनने कहा वे अविश्वस्त नहीं थे और न वे सूचनाएं मुझे देने से उनका कोई स्वार्थ सिद्ध होता था। इन घटनाओं की चर्चा पर जबकि प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तब तो उसकी अत्युक्तियाँ मनगढ़न्त और भी निरर्थक हो जाती हैं। जो हो, उस आयोजन के साथ एक नहीं अनेकों स्मृतियाँ ऐसी हैं जिससे उसे अलौकिक या अति मानवीय कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। यहाँ चर्चा सहस्र कुण्डी यज्ञ की की गयी है। पर एक नहीं गुरुदेव के सार्वजनिक जीवन की लोक-मंगल के लिये किये गये अनेक प्रयत्नों की अगणित क्या, प्रायः सभी घटनायें ऐसी हैं जिनकी सफलतायें साधनविहीन स्थिति की तुलना करते हुए अवाक् कर देने वाली हैं। भविष्य में क्या किया जाने वाला है-उसकी कभी-कभी वे चर्चा करते हैं। रूपरेखा बताते हैं तो उसे बाहर का व्यक्ति सुनकर शेखचिल्ली की उड़ानें ही कह सकता है। हनुमान के समुद्र लाँघने, अंगद के पैर जमाने, नल, नील के समुद्र पर पुल बाँधने, अगस्त्य के समुद्र सोखने जैसी योजनायें क्या सचमुच सम्भव हो सकती हैं, इस सन्देह का आज कुछ उत्तर दिया जा सकना सम्भव नहीं। उसकी यथार्थता जानने के लिए कल की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। जिस महान सत्ता के साथ उनका अविच्छिन्न संबंध है उसका महान अनुदान गुरुदेव की दुर्बल काया से कुछ भी करा सकता है। इस पर कम से कम मुझे तो पूरा विश्वास है। लोक-मंगल के लिये दिव्य सत्ता की चेष्टाएं काम करती समझी जा सकें तो इस कठपुतली को नाचते देखकर किसी को भी न हैरत में पड़ने की जरूरत होगी न अविश्वास करने की।
तीसरी है उनकी सगी माँ-पेट में नौ महीने रख कर जन्म देने वाली और छाती का दूध पिलाने, दुलार की वर्षा करने वाली भौतिक माता से अधिक करुणा ममता एवं वात्सल्य बिखेरने वाली सच्ची माता के रूप में वे वेदमाता की उपासना करते हैं। उपासना क्या भावना की हिलोरों में आत्म-विभोरता की स्थिति ही उसे कहना चाहिये। सुना है मीरा के साथ कृष्ण नाचते थे। सुना है, रामकृष्ण परमहंस काली को अपने हाथ से भोजन कराते थे। सुना है चैतन्य महाप्रभु के साथ भगवान खेलते थे, सुना है अन्धे सूरदास की लाठी पकड़कर कृष्ण उन्हें ले जाते थे। पता नहीं वे घटनायें कहाँ तक सत्य हैं। पर यहाँ आँखों से देखा गया है कि वे अपने अस्तित्व का पृथक अनुभव ही नहीं करते। चौबीस पुरश्चरणों में उनके निर्धारित कर्मकाण्ड चले थे। अब तो उनकी ध्यान भूमिका ही प्रखर है-जिसे तादात्म्य भाव की संज्ञा दी जा सकती है। बदले में क्या मिलता है-उसे उनके ब्रह्मवर्चस के रूप में सभी ने देखा है।
मनुष्य के त्रिविधि कलेवर और पंच-विधि आवरण में सब कुछ बीज रूप में विद्यमान है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर के त्रिविधि कलेवर तीनों लोक कहलाते हैं और इनके आधि भौतिक, आधि दैविक, आध्यात्मिक सम्पदाओं के रत्न भण्डार छिपे बताए जाते हैं। अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश में पाँचों प्रधान देवताओं का निवास कहा गया है। षट्चक्रों में छः विश्वव्यापी महान शक्तियों का संबंध सूत्र जुड़ा बताया जाता है। कुण्डलिनी को अग्नि और सहस्रार को सोम कहा गया है। अग्नि में परा, अपरा प्रकृति की द्विविधि जड़ चेतन शक्तियाँ ओत-प्रोत हैं। कुण्डलिनी उसी महा अग्नि का प्रतीक है। ब्रह्मरन्ध्र से सहस्रार कमल को विष्णु का क्षीर-सागर, शिव का कैलाश और ब्रह्मा का ब्रह्म लोक बताया जाता है। सोम का निर्झर अमृत का कलश यही है। तीसरा लोक आज्ञाचक्र, दिव्य-दृष्टि सम्पन्न है-आदि रहस्यों का वर्णन योग साधना के अंतर्गत आता है। और कहा गया है कि यह मानवी सत्ता अद्भुत एवं अलौकिक है। साधना तपश्चर्या से उस बीज रूप में विद्यमान दिव्य सत्ता का उत्थान होता है। गुरुदेव की गायत्री साधना से उनका समग्र अतः क्षेत्र इस प्रकार जागृत हो चुका है कि जो कुछ भी मानवी पिण्ड में विद्यमान होगा वह उन्हें उपलब्ध होकर रहेगा।
कष्ट पीड़ितों और अभावग्रस्तों को उनका अनुदान सदा मिलता रहा है। यह सहायतायें करते रह सकना उपासना की उपलब्धियों द्वारा ही सम्भव हो सका है। परिवार के अगणित सदस्य उसका सम्भव लाभ सदा उठाते रहेंगे। रोतों को हँसाने में उन्हें मजा आता है, उसे उनका सबसे बड़ा चाव, विनोद या व्यसन कहा जा सकता है। जिन्हें वे कुछ ऊँचा उठा देखते हैं, उनकी कामनाओं और तृष्णाओं को तृप्त नहीं समाप्त करते हैं और उन्हें बड़प्पन से छुड़ाकर महानता में संलग्न करते हैं। उनके साथ भी तो यही बीता है। जिन्हें और भी ऊँचा समझते हैं उन्हें और भी ऊँचा उपहार देते हैं-अहंता और तृष्णा छोड़े बिना ब्रह्मवर्चस मिलता नहीं, सो जिसे सबसे अधिक प्यार करते हैं उसकी तृष्णा अहंता छीनकर अपने सदृश बनाने का जाल फैलाते हैं। पखेरू फँसते तो विरले ही हैं पर आंतरिक निष्ठा और अभिलाषा रहती उनकी यही है। त्रिविध अनुदान देने की राजा कर्ण जैसी-वाजिश्रवा जैसी उनकी ललक जो निरन्तर बढ़ती दिखती है और जिससे असंख्य लोग आशाजनक लाभ उठाते हैं वह गायत्री माता का ही अनुदान है। उनकी उछल-कूद उसी उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पदा के बलबूते पर चलती रहती है। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न उन्होंने उसी आधार पर देखा है कि स्वर्ग की ज्ञान-गंगा को धरती पर लाने के प्रयास में वे भागीरथ की तरह जूझते रहेंगे और गायत्री माता की दिव्य सत्ता उन्हें मुक्त हस्त से सहायता प्रदान करेगी।
गुरुदेव को तीन अभिभावकों के तीन अनुदान उपलब्ध होते रहे हैं। हिमालय पिता से प्रखर, पवित्र व्यक्तित्व। मार्गदर्शक गुरु से लोग मंगल के लिये अभीष्ट सामर्थ्य। गायत्री माता से देवत्व युक्त ब्रह्मवर्चस। यह तीनों ही उनकी उधार ली हुई अनुदान में प्राप्त विभूतियाँ हैं। वे इस शर्त पर मिली हैं कि उनका एक-एक कण भी अपने लोभ मोह के लिए स्वार्थ साधन के लिए खर्च न किया जाय, सो उन्होंने इस प्रतिबन्ध का सदा पूरा-पूरा ध्यान रखा है। हम दोनों में से कोई अस्वस्थ हो जाता है तो दवादारु का ही सहारा लेते हैं। दूसरों को दी जाने वाली दिव्य सहायता में से एक कण भी अपने लिए प्रयोग नहीं करते, जिन्हें वे अपना अति घनिष्ठ मानते हैं उनके प्रति भी ऐसी ही कठोरता बरतते हैं। घनिष्ठ आत्मीयता के साथ उनके दिव्य अनुदान ही जुड़े होते हैं-भौतिक आशीर्वाद नहीं। भौतिक आवश्यकतायें समाप्त ही कर लीं हैं- इच्छा-आकाँक्षाओं का उन्माद कब का हवा में उड़ गया। यदि कहीं कुछ रह भी गया तो उसे अपने निजी पुरुषार्थ से पूरा करते हैं या फिर सहते हैं। उसमें इस अमानत का एक कण भी खर्च नहीं किया जाता जो लोक मंगल के लिये धरोहर के रूप में ली गयी अथवा दी गयी है। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि विभूति कामनाएं सभी कुछ उनके लिये निरर्थक हैं। बार-बार जन्म लेना-बार-बार मरना और निरन्तर सर्वतोभावेन इस परमसत्ता के इशारों पर चलते रहना ही उनका लक्ष्य है जिसने दिव्य माता, दिव्य पिता और दिव्य गुरु की महान उपलब्धियाँ देकर अनाथ से सनाथ बनाया है। वे दूसरों से भी यही कहते रहते हैं - दिव्य अनुदान, दिव्य प्रयोजन के लिये माँगे जायें तो उत्कृष्टता दिव्य सत्ता को द्रवित कर सकती है और सहायता के लिये वाँछित भी।