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February 1972

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वर्षा का परिणाम शरीर पर और उसके द्वारा मन पर होता है; प्रार्थना का परिणाम हृदय के द्वारा आत्मा पर होता है। -विनोबा

भौतिक सुख, सम्पदाओं का जितना अपना हक था उतना जन्मते ही मिल चुका अब अपने पुरुषार्थ और प्रयत्न की बात रह जाती है जितनी योग्यता संग्रह करेंगे, जितनी कुशलता का परिचय देंगे और जितना मनोयोग पूर्वक श्रम करने की आदत डालेंगे उतने ही सुख-साधन मिलते जायेंगे। इसमें परमात्मा से माँगने की क्या बात है। जो हम अपने पुरुषार्थ से प्राप्त कर सकते हैं उसके लिए हाथ पसारने की क्या जरूरत? शरीर रोगी है तो आहार-विहार का संयम, आरोग्य के नियम पालन में कड़ाई और उपयुक्त चिकित्सा परिचर्या की व्यवस्था करनी चाहिए। पैसों की तंगी पड़ती है तो उपार्जन के लिए अधिक पुरुषार्थ, योग्यता की अभिवृद्धि तथा खर्च में कमी करने वाली सादगी अपनानी चाहिए और उस संकट को पार करना चाहिए। यदि आरोग्य, धन जैसी वस्तुओं को माँगे, परीक्षा में उत्तीर्ण होने की अथवा मुकदमा जीतने की योजना करें, और माँगने मात्र से भगवान उन कामनाओं को पूरी कर दें तो फिर योग्यता एवं पात्रता बढ़ाने की क्या आवश्यकता रह जायगी। फिर वे घाटे में रहेंगे जो पराक्रम करने में जुटे हुए हैं। जब सरलतापूर्वक प्रार्थना मात्र से अभीष्ट सफलतायें मिल सकती हैं और मनोकामनायें पूर्ण हो सकती हैं तो फिर कर्मफल का सिद्धान्त ही गलत हो जायगा और लोग कर्मनिष्ठ बनने की अपेक्षा प्रार्थना परायण बनना पसंद करेंगे। क्योंकि सरलता उसी में है। इसी प्रवृत्ति ने अपने देश में भिक्षुओं की संख्या 56 लाख बढ़ा ही है। यह परावलम्बन देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को दुर्बल कर रहा है। प्रार्थना के साथ भौतिक सुख-सुविधाओं की याचना जोड़ देने से अध्यात्म तत्व की महत्ता गिर गई। उस क्षेत्र में अब आत्म-बल सम्पन्न महामानव नहीं दिखते वरन् दीनता भरी गिड़गिड़ाने की वाणियाँ मात्र सुनाई पड़ती है।

क्या माँगने मात्र से अभीष्ट प्रयोजन पूरे हो सकते हैं? क्या सुख-सुविधाओं का उपहार याचना मात्र से मिल सकता है? उत्तर नहीं में ही मिलेगा। इंजील ने ठीक ही कहा है-’जो तुम माँगते हो सो पाते नहीं-क्योंकि गलत माँगते हो।’ गलत जगह पर गलत चीज माँगने से उसका मिलना कैसे सम्भव हो सकता है। भौतिक सफलतायें हमें अपनी भुजाओं और कलाइयों से माँगनी चाहिए। अपनी अकल को तेज करना चाहिए और सूझबूझ से काम लेना चाहिए। अवरोध उत्पन्न करने वाली त्रुटियों को सुधारना चाहिए। सफलता का द्वारा खुल जायगा। नास्तिक लोग जो कभी पूजा, प्रार्थना नहीं करते, भौतिक उन्नति के पर्याप्त साधन जुटा लेते हैं इसके विपरित जो पूजा प्रार्थना में ही लगे रहते हैं, वे अभाव, दारिद्रय की, निराशा और असफलता की परिस्थितियों से घिरे रहते हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि जो चीज जहाँ से माँगी जानी चाहिए थी वहाँ नहीं माँगी गई। पराक्रम से जो माँगा जाना चाहिए था वह भगवान से माँगा गया। जो भगवान से माँगा जा सकता था उसकी आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। इस भ्रमग्रस्त दशा में मनोरथ पूरे हों भी कैसे?

भगवान स्वयं अपनी विधि-व्यवस्था में बँधे हुए हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने आप के साथ तक कोई रिआयत नहीं की, अपने सगे सम्बन्धियों तक को छूट नहीं दी। कर्म-फल की व्यवस्था को ही सर्वत्र प्रधान रखा। ऐसा न होता तो कोई पुरुषार्थ करने के लिए तैयार ही क्यों होता और कुकर्मों से बचने के लिए किसी को आवश्यकता ही क्या पड़ती। प्रार्थना मात्र से सारी सुविधायें मिल जाती तो फिर कठोर, कर्मठता के लिए कटिबद्ध होने की इच्छा ही क्यों होगी।

दशरथ जी ने श्रवण कुमार को क्यों मारा - मृतक के पिता ने शाप दिया कि मेरे पुत्र को मारने वाले को इसी प्रकार पुत्र के शोक में बिलख कर मरना पड़ेगा। दशरथ जी की मृत्यु उसी प्रकार हुई। भगवान राम अपने पिताजी को कर्मफल भोगने की अनिवार्यता से छुटकारा न दिला सके। त्रेता में रामचन्द्र जी ने छिपकर बालि का बाण मारा - द्वापर में बालि ने बहेलिया बनकर भगवान कृष्ण के पैर में तीर मारा। मृत्यु के समय कृष्ण जी ने कर्मफल की अनिवार्यता का इस घटना को प्रमाण बताया। अर्जुन पुत्र - अभिमन्यु श्री कृष्ण की बहिन का पुत्र था, मृत्यु का विधान और प्रारब्ध को टाल सकने की अपनी असमर्थता को ही भगवान व्यक्त करते रहे। उन्होंने ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’ की उक्ति को विश्व के व्यवस्था, संचालन का प्रधान तथ्य माना है। सो उसे प्रार्थना के बदले रिआयत के रूप में भी टाला जा सकना सम्भव नहीं है। भगवान की भक्ति और प्रार्थना का स्वरूप व्यावहारिक जीवन में कर्मनिष्ठा के रूप में होना चाहिए। उन सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने के रूप में होना चाहिए जो परिस्थितियों को बदलने या उनका धैर्य और साहस के साथ सामना करने की क्षमता प्रदान करती है। वह विवेक प्रार्थना का उपहार ही कहा जायगा जो हर परिस्थिति में हँसते-मुस्कराते हुए हलका-फुलका जीवन जी सकने की क्षमता प्रदान करता है।

कुछ तो कामनायें ही ऐसी होती हैं जिनकी कोई उपयोगिता नहीं, फिर भी उन्हें अकारण चाहते हैं। जैसे संतान का न होना आज की परिस्थिति में भारत जैसे गरीब देश में एक सौभाग्य ही है; पर कितने ही बुद्धिहीन लोग इस सौभाग्य को दुर्भाग्य मानते हैं और दुःखी रहते हैं तथा उस दुर्भाग्य की याचना के लिए प्रार्थना करते हैं। ऐसे लोग न प्रार्थना का स्वरूप समझते है और न उपयोग। जो भी जी में आया सो मुफ्त की लूट मानकर माँगने के लिए हाथ पसारने लगे। ऐसे लोगों की कामनायें यदि भगवान यों ही स्तुति, प्रार्थना से प्रभावित होकर पूरी करने लगें तो फिर इस संसार में कर्म, पुरुषार्थ-पात्रता और विवेकशीलता की कुछ आवश्यकता ही न रह जायगी फिर यहाँ “अन्धेर नगरी बेबूझ राजा” की उक्ति ही सर्वत्र चरितार्थ होती दिखाई देगी। वस्तुतः ऐसा होता नहीं, न हो ही सकता है। उपलब्धियों के लिए पात्रता आवश्यक है। पात्रता की अभिवृद्धि के लिए आत्मबल प्राप्त करना ही प्रार्थना का प्रयोजन है। ऐसी सार्थक प्रार्थना ही सफल होती है और उन्हें ही सफल होना भी चाहिए।


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