‘कोलाहल’ एक भयावह जीवन संकट

February 1972

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शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए जहाँ अवाँछनीय आहार-विहार से गन्दगी और रोग कृमियों से बचना आवश्यक है उतना ही आवश्यक कोलाहल से बचना भी है। इस तथ्य को भारत में चिरकाल से जाना जाता रहा है। शान्त मनःस्थिति के लिए उपयुक्त दृष्टिकोण अपनाने पर हमारे पूर्वज जोर देते रहे हैं और साथ ही यह भी कहते रहे हैं कि सुविकसित जीवन के लिए शान्त वातावरण भी नितान्त आवश्यक है।

प्राचीन काल में बड़े नगर नहीं थे। जो थे वे भी सघन बसे हुए नहीं थे, उनमें काफी छिरछिरापन था। सटाकर घर बनाना-कई-कई मंजिल की इमारतें खड़ी करना न कलात्मक समझा जाता था न सुखद। स्वच्छ वायु-खुला सूर्य प्रकाश और शान्त वातावरण इन तीनों को अन्न-जल और वस्त्रों की तरह ही आवश्यक माना जाता था। यह इसलिए था कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को ठीक बनाये रखने की आरम्भिक आवश्यकता को पहले पूरा किया जाना चाहिए। धन, वैभव, ऐश्वर्य, यश, पद, विलास आदि तो पीछे की चीजें हैं, यदि शरीर और मन रुग्ण रहे तो फिर अन्य सफलताएँ और उपलब्धियाँ दुर्बल काया से किस प्रकार प्राप्त की जा सकेंगी? यदि प्राप्त कर भी ली गई तो उनका संरक्षण या उपयोग कैसे सम्भव होगा? स्वस्थ और समर्थ व्यक्ति स्वल्प साधनों से भी सुखी रह सकता है जबकि दुर्बल एवं रुग्ण व्यक्ति के लिए विपुल सम्पदा भी निरर्थक कष्टकारक और भार रूप ही सिद्ध होती है।

तथाकथित बुद्धि, विलास, वैज्ञानिक विकास, सभ्यता वृद्धि और सम्पदा बाहुल्य ने इन दिनों बड़े शहरों की भारी बढ़ोतरी है। देखते-देखते विगत दस वर्षों में बम्बई, दिल्ली, कानपुर, अहमदाबाद जैसे नगरों की आबादी दूनी हो गई। द्रुत गति से उसमें वृद्धि होती चली जा रही है। सघन बस्तियों में गगनचुम्बी अनेक मंजिलों के मकान बनते चले जा रहे हैं। रोशनी और हवा की भारी कमी पड़ती चली जा रही है। आधे से अधिक मकान ऐसे होते हैं जिसमें सूर्य की किरणों का कभी भी प्रवेश नहीं होता। स्वच्छ हवा की तो गुंजाइश ही कहाँ? बिजली की बत्तियाँ और पंखे ही सूर्य भगवान और पवन देवता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस पर भी कोलाहल की भरमार। जो वायु और प्रकाश के अभाव की अपेक्षा कुछ कम नहीं अधिक ही भयावह होता है।

शहरी सभ्यता-बड़े शहरों में रहने की प्रवृत्ति गरीब और मध्यम श्रेणी के लोगों के लिए एक प्रकार से प्राणघातक ही है। अमीर लोग तो साधनों के बल पर अपना बहुत कुछ बचाव कर भी लेते हैं। पर गरीबों के लिए तो यह चमकीले-भड़कीले बड़े नगर सड़-सड़ कर मरने के लिए एक प्रकार के नरक ही हैं। नई पीढ़ी के युवक इस बाहरी चकाचौंध से आकर्षित होकर शहरों में छुट-पुट नौकरी या धन्धा करने भागते हैं और अपने शान्त सरल देहाती जीवन का तिरस्कार करते हैं इस मनोवृत्ति को दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जाय?

नगरों में बढ़ता हुआ कोलाहल धीरे-धीरे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से अभिशाप ही बनता जा रहा है। कल कारखाने, मोटरें, लाउडस्पीकर, रेलें, भगदड़, वार्तालाप, आदि अनेक कारणों से कोलाहल की मात्रा बढ़ती ही चली जा रही है और वह प्रचलित बीमारियों में सबसे बड़ी सिद्ध हो रही है।

ध्वनि का माप करने की ईकाई ‘वेल’ कहलाती है। वेल की दशाँश को ‘डेली वेल’ कहते हैं। अन्तरिक्ष में 25 डेसी वेल कोलाहल ही मनुष्य के लिए पर्याप्त हैं। यह बढ़ने लगे तो संकट उत्पन्न होगा। 120 से 130 तक यह कोलाहल बढ़ जाय तो कानों में दर्द होने लगेगा। 140 से 150 तक पहुँचने पर उसे कुछ ही देर सुनने वाला कुछ समय के लिए बहरा ही हो जाता है।

रूस के ध्वनिवेत्ता ‘ब्लादीमिर चदनोव’ का कथन है कुछ समय पूर्व बड़े नगरों की सड़कों पर भी 60 डेसीबल से ज्यादा शोर नहीं होता था पर अब तो उसका औसत 100 से भी आगे बढ़ने लगा है। रात को भी वह 72 से नीचे नहीं घटती। जबकि स्वाभाविक निद्रा आने के लिए 25-30 से अधिक शोर नहीं होना चाहिए। बढ़े हुए शोर में रहने से उसका उत्तेजक प्रभाव नाड़ी संस्थान को धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त करता रहता है। फलतः स्नायु संस्थान, रक्त वाहिनियाँ, हृदय, मस्तिष्क सभी का संतुलन गड़बड़ाता है और उन प्रमुख अवयवों में कितने प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं।

आस्ट्रिया के शब्द वेत्ता-डॉ0 ग्रिफिथ ने बड़े शहरों का स्वास्थ्य सर्वेक्षण करके यह पाया कि यहाँ के 3 प्रतिशत लोगों को असमय में ही बुढ़ापा आ घेरता है। यहाँ के निवासियों की आयु औसतन आठ वर्ष घट जाती है। इस समय से पूर्व की अकाल मृत्यु का कारण शहरी वातावरण में बढ़ा कोलाहल ही होता है। श्रमिकों की क्षमता 4 प्रतिशत कम हो जाती है वे थके हुए रहते हैं और साधारण स्वस्थ मनुष्य की तुलना में 6 प्रतिशत ही काम कर पाते हैं। उनके काम में गलतियों की संख्या अनुभव एवं अभ्यास से घटते चलने की अपेक्षा बढ़ती ही जाती है और पुराने श्रमिक अपेक्षाकृत अधिक गलती करते हैं। वह जानबूझ कर नहीं होता, शोर के कारण उत्पन्न हुई उनकी स्नायविक दुर्बलता से ही ऐसा होता है।

अमेरिका में यान्त्रिक विकास सबसे अधिक है। वहाँ के 45 लाख कारखाना मजदूरों में से दस लाख के कान खराब पाये गये। इंग्लैण्ड में बड़े नगरों के सर्वेक्षण की रिपोर्ट है कि वहाँ एक तिहाई स्त्रियाँ और एक चौथाई पुरुष न्यूरोसिस (अर्ध विक्षिप्तता) के शिकार बने हुए हैं। फ्राँस की औद्योगिक बस्तियों के पागल खाने बताते हैं कि हर पाँच पीछे एक पागल कोलाहल की उत्तेजना से अपना दिमाग खो बैठा है। पूरी निद्रा न ले सकने वाले जब तेज सवारियाँ चलाते हैं तो सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में बेतरह अभिवृद्धि होती है।

साइन्स डाइजेस्ट के एक लेख में कुछ समय पूर्व बताया गया था कि कनाडा की मान्ट्रियल विश्व-विद्यालय में शोर के प्रभाव का चूहों पर परीक्षण किया गया। कोलाहल में रहने के कारण उन सभी के स्नायु संस्थान गड़बड़ा गये। शोधकर्ताओं का कथन है कि ऐसे उत्तेजित वातावरण के कारण मनुष्यों को अक्सर, ग्रन्थि-क्षय, गुर्दे की खराबी, हृदय की धड़कन जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं। कोलाहल से प्रभावित रोगियों की चिकित्सा में संलग्न डॉक्टर सेक्यूएल रोजेन का कथन है हम कोलाहल को क्षमा कर सकते हैं पर कोलाहल हमें कभी क्षमा नहीं करता। उसके संपर्क में आकर हमें बहुत कुछ खोना पड़ता है।”

शोर विशेषज्ञ उस रोजेन ने अपने विषय की शोध के सिलसिले में सूडान (अफ्रीका) का भी दौरा किया और वे ‘माबान’ कबीले के ऐसे लोगों के साथ रहे जिन्हें गाजे-बाजे तक का शौक नहीं था और शान्तिप्रिय वातावरण में रहने के आदी थे, उनमें से एक भी रक्तचाप, हृदय रोग, अनिद्रा सरीखी बीमारियों का मरीज नहीं था। रूस के 85 वर्षीय नागरिकों को इतनी श्रवण शक्ति पाई गई जितनी कि औसत 65 वर्ष के अमेरिकी की होती है। इस कारण वातावरण में शोर की न्यूनाधिकता ही है। डॉ0 रोजेन के प्रयोगों से शोर में रहने वाली चुहिया के बच्चे अधूरे और अस्त व्यस्त जन्मे और चूहों में से 80 प्रतिशत नसों की ऐंठन के शिकार हो गये।

संसार में आजकल लगभग 20 करोड़ से अधिक मोटरें दौड़ती है। ब्रिटेन के अर्थशास्त्री बार्बरा वार्ड का कथन है कि शहरों की असली निवासिनी यह कारें ही हैं और वे परमाणु बमों जितनी ही भयावह हैं। अन्तर इतना ही है कि बम तुरन्त मार डालते हैं और ये रगड़-रगड़ कर मारती हैं।

हवाई जहाज इस संकट को बढ़ाने में सबसे आगे हैं। अमेरिका के सुपर मगनक सोनिक जैट जहाज से उठने वाली ध्वनि तरंगों से केन्योन की कुछ प्राचीन गुफाएं दरार देकर मुँह फाड़ गईं। उन विमानों की ध्वनि तरंगें 50 मील का क्षेत्र प्रभावित करती चलती हैं। प्रभाव लगभग बिजली गिरने जैसी प्रतिक्रिया पैदा करता है। ब्रिटेन और फ्रान्स के सहयोग से बने कनवार्ड जैट की ध्वनि तरंगों से लन्दन के सेन्ट पाल गिरजे को तथा पार्लियामेन्ट भवन को खतरा उत्पन्न हो गया तो उसकी उड़ानें रोकी गईं। वैज्ञानिकों ने आगाह किया था कि इस विमान के रास्ते में 100 मील तक के दोनों और हृदय रोगियों का जीवन संकट में पड़ जायगा। समय-समय पर कोलाहल की वृद्धि के खतरे के संबंध में अन्य विशेषज्ञ भी चेतावनी देते रहे हैं। कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के विज्ञान अधिकारी डॉक्टर वर्न नुडसन ने कहा है कि - जिस गति से आकाश में शोर बढ़ रहा है उसी तरह बढ़ता रहा तो कुछ ही समय में संक्रामक और संघात्मक रोग के कारणों में एक और आधार ‘शोर’ जुड़ जायगा। वह विषाक्त वायु की तरह ही प्राणघातक सिद्ध होगा। अमेरिका के चिकित्सक संघ के अधिकारी डॉक्टर गेराल्ड डोर मेन ने चेतावनी दी है कि-जहरीली गैसों की तरह ही कोलाहल हमारे वातावरण को विषाक्त करता चला जा रहा है। इससे जल, वायु, वनस्पति, जमीन और प्राणियों का बुरी तरह विनाश होगा। जीवाणु वेत्ता नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ0 राबर्ट कोच ने कहा है कि अगले दिनों हमें स्वास्थ्य के निर्मम शत्रु ‘कोलाहल’ से भी जूझना पड़ेगा। उसे परास्त किये बिना मनुष्य का जीवन संकट में पड़ जायगा। डॉक्टर रोस युएन, डॉक्टर मार्क्स जान्सन, डॉक्टर फ्लूगार्थ ने तो यहाँ तक कहा है कि शोर की वर्तमान अभिवृद्धि अगले दिनों बधिरों की ऐसी पीढ़ी पैदा करेगी जो तीस वर्ष के होते-होते आधी श्रवण शक्ति खो बैठेगी।

इस बढ़ते हुए कोलाहल के विरुद्ध सजग जनसमाज द्वारा आवाज भी उठाई जा रही है। अमेरिका में जनस्तर पर इसके लिए आन्दोलन भी खड़ा हुआ है। न्यूयार्क के कोलाहल निवारक आन्दोलन के अध्यक्ष श्री एलेक्स बैरन का कथन है कि - जनता को कोलाहल से होने वाली हानियों की यदि पूरी जानकारी मिल जाय तो वह सरकार पर वैसा ही दबाव डालेगी जैसा कि बुरे से बुरे संकट के निवारण के लिए डाला जाता है।

इस संकट से सरकारें भी परिचित हैं और वे उससे बचने के लिए कुछ उपकरण बनाने की-कुछ बन्धन प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर रही है। कई देशों में ऐसा कुछ-कुछ हो भी रहा है। कितने ही देशों में जन-स्तर पर इसके लिए आन्दोलन खड़े किये गये हैं और शोर करने वालों पर प्रतिबन्ध लगाने तथा सर्वसाधारण को इस संदर्भ में प्रशिक्षित करने में यह आन्दोलन अपने ढंग से कुछ-कुछ कर भी रहे हैं।

सरकारी स्तर पर-जन-स्तर पर कोलाहल के समाधान के लिए प्रयत्न होने ही चाहिए। पर साथ ही व्यक्तिगत रूप से भी इस संदर्भ में ध्यान दिया जाना चाहिए। हमें यह समझ कर चलना चाहिए कि औद्योगिक प्रगति के नाम पर अन्धाधुन्ध बढ़ते चले जा रहे कल-कारखानों की आगे वृद्धि ही होगी। सम्पन्नता के साथ-साथ मोटरें रेलें भी बढ़ेगी। छोटी मोटर बनने वाली है अनुमान है कि इसके बनते ही मोटरों की संख्या में भारी वृद्धि होगी। सिनेमा, लाउडस्पीकर अपनी गतिविधियाँ कब कम करने वाले हैं। जनसंख्या की वृद्धि रुक नहीं रही है फलतः कारखाने यातायात के साथ यह भाग-दौड़


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