हम अपनी क्षुद्रता और मर्यादा भी समझें

February 1972

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यह विराट् ब्रह्माण्ड कितना विशाल है और उसकी तुलना में हमारी पृथ्वी कितनी छोटी बैठती है इसका थोड़ा सा भी अनुमान लगाने पर सिर चकराने लगता है कि किसी बड़े पहाड़ की तुलना में धूलि का कण जितना छोटा होता है उतनी ही ब्रह्माण्ड की तुलना में अपनी पृथ्वी है। उस पृथ्वी की विशालता का यदि एक मनुष्य से तुलना की जाय तो वह और भी तुच्छ रह जाता है। प्रभु की अनन्त सृष्टि में मनुष्य का कितना स्वरूप, कितना नगण्य सा स्थान है इसे यदि वह समझ सके तो जिस अहंता से वह इठलाता फिरता है उसका कोई कारण ही प्रतीत न हो।

निस्सन्देह मनुष्य महान भी है पर वह महानता भौतिक नहीं, आत्मिक है। भौतिक दृष्टि से ही वह अन्य जीव जन्तुओं और पशु-पक्षियों से भी गया बीता है। हाथी, सिंह, गोरिल्ला जैसी सामर्थ्य उसमें नहीं है। घोड़े, हिरन जैसे बड़े जानवर ही नहीं खरगोश और कुत्ते भी दौड़ में आगे हैं। रात्रि में देखने की सामर्थ्य बिल्ली जितनी भी नहीं। पक्षियों की तरह आकाश में उड़ना और जलचरों की तरह पानी में रहना किस मनुष्य के लिए सम्भव है। सर्प और रीछ की तरह छः-छः महीने बिना खाये-पिये कौन निर्वाह कर सकता है?

प्रकृति प्रदत्त समर्थता को छोड़ दें तो भी शारीरिक, कायिक रोग और मानसिक उद्वेग से उसे जितना संतप्त व्यथित रहना पड़ता है उतना अन्य कोई प्राणी नहीं रहता। ऐसी दशा में उसकी भौतिक समर्थता का अहंकार सर्वथा मिथ्या ही कहा जायगा। ब्रह्माण्ड में अवस्थित असंख्य ग्रह-नक्षत्रों में अपनी पृथ्वी का स्थान राई भर है। इस पृथ्वी पर किसी मनुष्य का स्थान तो समस्त शरीर की तुलना में एक रक्त कण से भी स्वल्प बैठता है। इतनी छोटी हस्ती लेकर वह अहंता से मदोन्मत्त होकर उद्धत आचरण करने पर उतारू हो तो उसे मूर्खता के अतिरिक्त और क्या समझा जाये।

ब्रह्माण्ड और पृथ्वी की तुलना करना, अपनी चिन्तन परिधि से-कल्पना शक्ति से बाहर की चीज है। इसलिए उस कल्पना की तुक बिठाने के लिए सूर्य को एक मध्यवर्ती आधार मानकर चलो, उस तुलना के करने में थोड़ी सहायता मिलेगी, यद्यपि ब्रह्माण्ड में करोड़ों सूर्य अपने ग्रह-उपग्रह के साथ अपना-अपना सौर मण्डल बनाकर भ्रमण करते रहते हैं और किसी महा केन्द्र की परिक्रमा में संलग्न रहते हैं। तो भी अपने सौर मण्डल के केन्द्र सूर्य का ही ऊहापोह इतना विशाल हो जाता है कि उसकी कल्पना करने से ही मानवीय बुद्धि एक प्रकार से हताश होकर बैठ जाती है। फिर करोड़ों सूर्यों की सम्मिलित शक्ति एवं विशालता की कल्पना किस तरह की जाय?

अपने-ज्वलनशील गैसों के पिण्ड-सूर्य का व्यास पृथ्वी से 19 गुना बड़ा है। व्यास 865380 मील परिधि 2700000 मील और उसका क्षेत्र 3393000 अरब वर्ग मील है। यदि वह पृथ्वी से 93000000 मील की दूरी पर न होकर कुल 1000000 मील दूर होता तो हमें आकाश में एकमात्र सूर्य ही सूर्य दिखाई देता।

सूर्य की शक्ति का कोई वारापार नहीं। उसकी सतह का तापक्रम 600 डिग्री सेन्टीग्रेड है तो अन्दर का अनुमानित ताप 15000000 डिग्री सेन्टीग्रेड। 12 हजार अरब टन कोयला जलाने से जितनी गर्मी पैदा हो सकती है उतनी सूर्य एक सेकेंड में निकाल देता है। अनुमान है कि सूर्य का प्रत्येक वर्ग इंच क्षेत्र 60 अश्वों की शक्ति (हार्सपावर) के बराबर शक्ति उत्सर्जित करता है। उसके सम्पूर्ण 3393000000000000 वर्ग मील क्षेत्र में शक्ति का अनुमान करना हो तो इस गुणनखण्ड को हल करना चाहिये-3393000000000000&1760&3&12 इतने हार्स पावर की शक्ति न होती तो यह जो इतनी विशाल पृथ्वी और विराट सौर जगत आँखों के सम्मुख प्रस्तुत है वह अन्धकार के गर्त में बिना किसी अस्तित्व के डूबा पड़ा होता।

इस प्रचण्ड क्षमता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यदि 93000000 मील लम्बी और 880 गज मोटी बर्फ की सिल्ली के ऊपर उसको केन्द्रित (Focus) कर दिया जाये तो सारी बर्फ एक सेकिण्ड में गलकर बह निकलेगी। सूर्य के 1 वर्ग इंच में जिस ऊर्जा व प्रकाश की कल्पना की गई है वह 5 लाख मोमबत्तियों के एक साथ जलाने की शक्ति के बराबर होता है। यह सारी शक्ति एक साथ पृथ्वी पर फेंक दी जाती तो यहाँ की मिट्टी भी जलने लगती। जलने ही नहीं लगती यह भी एक प्रकार का सूर्य पिण्ड हो जाती जबकि सामान्य स्थिति में पृथ्वी को सूर्य-शक्ति का 220 करोड़वाँ हिस्सा ही मिलता है। 3 अरब आबादी मनुष्यों की 100 अरब आबादी पक्षियों की, 1000 अरब आबादी अन्य जीव जन्तुओं की और पृथ्वी पर पाये जाने वाले विशाल वनस्पति जगत तथा ऋतु संचालन का सारा कार्य उस 220 करोड़वें हिस्से जितनी शक्ति से सम्पन्न हो रहा है। पूरी शक्ति जो सौर मण्डल के करोड़ों ग्रहों-उपग्रहों, क्षूद्र ग्रहों का नियमन करती है, प्रकाश और गर्मी देती है। अपने 19 करोड़ 98 लाख महाशंख भार को 200 मील प्रति सेकेंड की भयानक गति से 25 करोड़ वर्ष में पूरी होने वाली विराट आकाश की परिक्रमा भी वह अपनी इसी शक्ति से पूरी करता है। उस सम्पूर्ण शक्ति और सक्रियता को कूता जाना सम्भव नहीं है उसे भावनाओं में केवल मात्र उतारा जाना सम्भव है।

यह तो पृथ्वी से उसकी इतनी दूरी है जो जीव-जन्तुओं को हँसने फुदकने का अवसर दे रही है यदि यह दूरी घट जाये तो जीवन अग्नि रूप हो जाये अर्थात् जो चेतना अब दिखाई दे रही है वह सूर्य के गहरे कराल अग्नि ज्वाल में समा जाये। कदाचित किसी तेज से तेज रफ्तार वाली डाकगाड़ी या तूफान एक्सप्रेस से सूर्य तक जाना सम्भव हो जाय तो वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते एक मनुष्य को 85-85 वर्ष के दो जीवन धारण करने पड़ जायें। इसमें मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच की निद्रा के 5 वर्ष अभी जोड़े ही नहीं गये। ध्वनि से भी तीव्र रफ्तार वाले जहाज को ही वहाँ पहुँचने तक 2 वर्ष लग सकते हैं और इस बीस वर्ष में तो सारी पृथ्वी का खाका ही बदल सकता है।

शक्ति की-विशालता की-कर्तृत्व की-वैभव की थोड़ी सी झाँकी अपने सूर्य के संबंध में ऊपर दी है। इससे भी हजारों गुने बड़े सूर्य-करोड़ों की संख्या में अपने सौर मण्डलों सहित उस ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं। उन सबकी गरिमा का लेखा-जोखा कैसे लिया जाय। पर देखते हैं कि वे समस्त शक्ति केन्द्र अपने-अपने कार्य में नियमितता व्यवस्था और मर्यादा लेकर चल रहे हैं। कहीं न उद्धतता है न उच्छृंखलता। निर्धारित कर्त्तव्य कर्म को अणु से लेकर महत तक सभी पालन कर रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो यह इतना बड़ा ब्रह्माण्ड व्यवसाय एक क्षण भर में बिखर जाता। ग्रह नक्षत्र आपस में टकरा जाते या शक्ति का व्यतिक्रम करके सारी ईश्वरीय व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट करके रख देते।

मनुष्य को विचार करना चाहिए कि वह प्रकृति की मर्यादाओं को तोड़कर अपने स्वास्थ्य को ही नष्ट कर लेगा। प्रकृति की व्यवस्था को बदल सकना और मर्यादा को बदलना उस जैसे क्षुद्र के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। नीति और सदाचार की-कर्तव्य और धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन करके वह अपने आतंक और अनाचार का परिचय दे सकता है पर इससे वह विश्व व्यवस्था को अपने अनुरूप बदलने में सफल नहीं हो सकता। इस उद्धत आचरण से वह अपनी मानसिक, सामाजिक और आन्तरिक समस्वरता ही नष्ट करेगा। उसे समझना चाहिए कि जो नियामक शक्ति इतने बड़े-ब्रह्माण्ड के-सूर्य को-शक्ति स्रोतों को मर्यादा में रहने वाले कर्त्तव्य पथ पर चलने के लिए विवश करती है वह इस क्षुद्र प्राणी के नगण्य से अस्तित्व को अपने ओछेपन पर इतराने ओर व्यवस्थायें बिगाड़ने की छूट देर तक कैसे दे सकती है?

अच्छा हो कि महा नियन्ता द्वारा कष्टकारक ब्रह्म दण्ड प्रयोग किये जाने से पूर्व ही हम सचेत हो जायें और अपनी मर्यादाओं में रहकर ब्रह्माण्ड की एक शिष्ट इकाई की तरह वह आचरण करें जिसे उचित एवं उपयुक्त कहा जा सके।


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