आत्मिक प्रगति का आधार-संवेदना, सहानुभूति

February 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपने शरीर के किसी एक अंग में पीड़ा होती है तो सारा शरीर ही बेचैन हो जाता है। पैर में चोट लगी-आँखों में आँसू आ गये। हाथ में फोड़ा उठा-सिर की नींद गायब। शत्रु ने लाठी पीठ पर मारने का उपक्रम किया बचाने को हाथ आगे आये। एक अंग दुखी हो तो शरीर की सारी मशीन काम करती है और उसका निवारण करने के लिए जिससे जो उपाय बन पड़ता है करने लगता है। इसे कहते हैं सहानुभूति। साथियों की जैसी भी सुख-दुःख भरी स्थिति है, उसमें अपने को भी साझीदार मानना-यही आत्म विकास या आत्म विस्तार है। आत्मा की उन्नतिशील स्थिति की पहचान यही है कि अपना आत्म भाव कितना विस्तृत हो गया। दूसरों के साथ अपने को कितनी घनिष्ठता के साथ जोड़ लिया। अपने और पराये के जोड़ को ही योग कहते हैं। जो अपने को दूसरों के साथ जितना अधिक जुड़ा हुआ मानता है-वह उतना ही बड़ा योगी है। योगी का अपनापन अलग रहता ही नहीं, वह परायेपन के साथ इतना अधिक जुड़ जाता है कि या तो सब पराये कहे जाने वाले अपने हो जाते हैं, या फिर अपना आपा भी पराया लगने लगता है।

समाज व्यवस्था के अनुसार चोर वह है-जो किसी की वस्तु बिना उसे पूछे, छिपाकर अपने लिए प्राप्त करता है। इस परिभाषा के अंतर्गत जिसने चोरी की है वह पकड़ा जाता है और राजदण्ड का भागी बनता है। यह चोरी की मोटी व्याख्या हुई और उसका प्रभाव केवल समाज में गड़बड़ी न होने देने, अपने उपार्जन का लाभ अपने को मिलने में कोई अड़चन उत्पन्न न हो इस दृष्टि से है। अध्यात्म के क्षेत्र में चोरी का अर्थ और भी अधिक सूक्ष्म हो जाता है। श्रुति कहती है जो अकेला खाता है सो चोर है-(केवला द्यो भवति केवलादि) गीता कहती है-जो आप ही कमाता है और आप ही खाता है सो पाप खाता है, (भुञ्जन्ते त्वद्यं पाया ये पचन्त्यात्म करणात्) मोटी दृष्टि से विचार करने पर यह व्याख्या अजीब लगती है। अपनी कमाई आप खाने में चोरी कैसे हुई। अपना कमाया आप खाया तो उसमें पाप क्यों लगा?

बात यह है कि अध्यात्म का तत्व ज्ञान आत्म-भाव के विस्तार से ही आरम्भ होता है वह जितना विकसित है उतनी ही आत्मोन्नति मानी जाती है। जिसका अहं भाव जितना सीमित और संकीर्ण है वह उस क्षेत्र में उतना ही पिछड़ा हुआ माना जाता है। पूजा-पाठ-कथा सत्संग तो इस वृत्ति को विकसित करने के साधन मात्र हैं। साध्य तो आत्म विस्तार है। जिन साधनों से साध्य की प्राप्ति होती हो उन्हीं की सार्थकता है। भजन, पूजन से यदि आत्म-विस्तार में सहायता मिलती हो तो ही उनका कुछ अर्थ है। वस्तुतः धर्म और अध्यात्म का सारा कलेवर केवल एक ही प्रयोजन के लिए खड़ा हुआ है कि व्यक्ति अपनी मलीनता और संकीर्णता को घटाते हुए अन्तःचेतना को निरन्तर व्यापक बनाता चले और यह विस्तार इतना अधिक होना चाहिए कि इस विश्व का कण-कण अपना दिखाई पड़ने लगे। अपनी आत्मा सब में ओत-प्रोत लगे। हर घर अपना ही घर दीखे और हर शरीर में अपने ही प्राण पिरोये हुए अनुभव हों। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अनुभूति तथा ‘विश्व बन्धुत्व’ के व्यवहार के इर्द-गिर्द ही अध्यात्म का समस्त तत्व ज्ञान घूमता है।

जिसका अन्तःकरण इस प्रकार अपनी अहंता विकसित कर रहा होगा उसे दूसरों की अनुभूतियाँ अपनी लगेंगी। दूसरों के कष्ट देखकर अपने कष्ट जैसी व्यथा होगी, दूसरों का पिछड़ापन अपने पिछड़ेपन की तरह ही असह्य लगेगा। दूसरों की अभावग्रस्तता देखकर अपने लिए चैन से बैठ सकना सम्भव न होगा। यह वृत्ति आत्म-विस्तार के साथ स्वाभाविक और अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है। इसे सहानुभूति-सम्वेदना या जो कुछ भी कहें -आत्मवेत्ता में विकसित होनी ही चाहिए। दूसरों की आँखों से बहते हुए आँसू अपनी आँखों को सजल न कर सकें तो समझना चाहिए यह निष्ठुरता आत्मिक दृष्टि से पिछड़ापन ही प्रकट करती है।

“सन्त हृदय नवनीत समाना” की रामायण व्याख्या में सन्त सज्जनों का हृदय मक्खन जैसा कोमल होना प्रतिपादित किया गया है। सच तो यह है कि वह मक्खन से भी अधिक कोमल होता है। मक्खन तो अपने ऊपर गर्मी का प्रकोप होने पर पिघलता है पर सन्त दूसरों की व्यथा को अपनी ही व्यथा समझकर पिघलने लगते हैं। कहा गया है-’दया बिनु सन्त कसाई’ जिसमें दयालुता और करुणा का विकास न हुआ हो उस निष्ठुर मन वाले को कसाई की श्रेणी में रखा गया है भले ही वह बाहर से सन्त जैसे कर्मकाण्ड करते या आवरण धारण करते दीखें। सन्त का अर्थ है सज्जन। सज्जनता के साथ सहानुभूति अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। “दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करना चाहिए जैसा कि हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं।” इस नैतिक आदर्श को भले ही शिष्टाचार, सामाजिकता, सज्जनता कहा जाय वस्तुतः यह आत्मविकास की प्रथम सीढ़ी है जिस पर चढ़े बिना कोई ऊँचा नहीं चढ़ सकता ऊपर नहीं उठ सकता।

वाल्मीकि डाकू का परिवर्तन सन्त के रूप में उस दिन हुआ जिस दिन की क्रौञ्च पक्षी को बाण विद्ध देखकर उसके साथी का विलाप उसे द्रवित करने में समर्थ हो गया। क्रौञ्च का वियोग डाकू को अपने जोड़े के वियोग जैसा लगा और सम्वेदना से उसकी छाती भर आई और आँखें बरसने लगी। जिस घड़ी निष्ठुर डाकू के अन्तःकरण में यह सम्वेदना उत्पन्न हुई उसी क्षण वह सन्त के रूप में परिवर्तित हो गया। सन्त तुकाराम की थाली में से कुत्ता रोटी लेकर भागा वे उसकी पीछे घी की कटोरी लेकर चले कि देव, मुझे घी से चुपड़ी रोटी भाती है आप रूखी क्यों खाते हैं, यह घी भी लेते जाइए। सन्त रामकृष्ण परमहंस ने एक कुत्ते को पिटते देखा, उनकी पीठ पर पिटाई के तीनों निशान उठ आये, जिसे वे कई दिनों तक कराहते हुए सहते रहे। कस्तूरबा ने जब यह सूचना दी कि जिस गाँव में महिलाओं को वे स्वच्छ रहने का आदेश देने गई थीं वहाँ की महिलाओं के पास तो एक-एक धोती ही है और वे उसी को आधी-आधी करके पहनती, धोती, सुखाती, रहती हैं ऐसी दशा में वे वस्त्रों को स्वच्छ कैसे रखें? गान्धी जी का जी पिघल पड़ा उनने कहा जिस देश में इतनी निर्धनता हो उसमें रहने वाले अन्य लोगों का अमीरी का जीवन जीना निष्ठुरता ही होगी। उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने छोड़ दिये और आधी धोती पहनने तथा आधी ओढ़ने के लिए रखी। वस्त्रों से जो बचत हुई उसे उन्होंने उन निर्धनों की सहायता के लिए दे दिया जो अधिक अभावग्रस्त थे। सहानुभूति का तकाजा यही है। आत्मविस्तार की स्थिति में अन्तःकरण की यही स्थिति हो जाती है और उस कोमलता के लिए दूसरों के कष्ट कठोरता पूर्वक देखते रहना सम्भव ही नहीं होता।

अब यह बात आसानी से समझ में आ सकती है कि अकेला खाने वाले को चोर क्यों कहा गया? यहाँ चोर से मतलब संकीर्ण, स्वार्थी या निष्ठुर से है। जिसे स्वयं विलास, वैभव का उपभोग करते हुए अपने समीपवर्ती दीन-दुखियों का ध्यान नहीं आता उसे सज्जन और सहृदय कैसे कहा जाएगा और जो आत्म-विस्तार की इस पहली सीढ़ी पर भी नहीं चढ़ सके उसे भक्त या ज्ञानी कैसे कहा जायगा? निष्ठुरता की मोटी परिभाषा में दूसरों का शोषण या उत्पीड़न आता है। पर अध्यात्म की परिभाषा में निष्ठुर उसे कहा जायगा जिसे अपने लिए सुविधा-साधन जुटाते हुए यह अनुभूति नहीं होती कि अपने खर्च में किफायत करके उसे बचत से न जाने किस दुखिया का कष्ट हलका किया जा सकता था। जिसके मन में यह भाव उपजेंगे वह अपनी विभूतियों को-जिसमें धन ही नहीं, ज्ञान, समय, श्रम के प्रभाव आदि भी आते हैं-अपने लिए न्यूनतम मात्रा में ही खर्च कर सकता है बाकी तो वह उनके लिए प्रस्तुत करेगा जो उससे भी अधिक अभावग्रस्त हैं। इसलिए सज्जन सदा सादगी का जीवन जीते हैं-उनके खर्च न्यूनतम ही होते हैं। अपने लिए वे धन ही कम खर्च नहीं करते, समय और मन को भी निज की सुविधायें जुटाने तथा इच्छायें पूर्ण करने की अपेक्षा दूसरों की समस्यायें हल करने में लगाये रहते हैं। आत्मिक-प्रगति होने के साथ-साथ सम्वेदना अनिवार्य रूप से बढ़ती है और उसे चरितार्थ करने के लिए अपने साथ कठोरता और दूसरों के साथ उदारता बरतने का क्रम स्वयमेव चलने लगता है। इसके लिए किसी को किसी से कहना नहीं पड़ता पर अन्तःप्रेरणा ही इतनी प्रबल हो जाती है कि उसे रोक सकना ही सम्भव नहीं रहता।

स्वार्थी और विलासी व्यक्ति अध्यात्म की परिभाषा में निष्ठुर ही कहा जायगा। छोटे बालक मुँह की ओर लालसा भरी दृष्टि से ताकते रहें और घर का बड़ा कहलाने वाला अकेला मिष्ठान्न पकवान खाता रहे तो उसे भावना क्षेत्र में निष्ठुर ही कहा जायगा और धिक्कारा ही जायगा। यों सामूहिक और राजकीय कानून इस बात के लिए बाधित नहीं करते कि अपनी कमाई का पैसा उस घर के तथा कथित ‘बड़े’ को मिष्ठान्न या पकवान के रूप में नहीं खाना चाहिए। पर अध्यात्म कानूनों से ऊँचा है इसलिए उसकी व्याख्याएँ भी सूक्ष्म हैं। यदि निष्ठुरता और संकीर्णता पर अंकुश न लगाया जा सका और आत्मानुभूति को विस्तृत न किया जा सका तो फिर इन तथाकथित धर्म धारणाओं और भक्ति भावनाओं के कलेवर का प्रयोजन ही क्या रह गया?

सम्वेदना का दूसरा पहलू है सुखियों को देखकर सुख अनुभव करना, श्रेष्ठ पुरुषों से-उद्योगी और पुरुषार्थियों से प्रेरणा ग्रहण करना। और भी स्पष्ट समझना हो तो यों कह सकते हैं कि अपने द्वारा जिन दूसरों के सुखों को बढ़ाया गया हो, उस सुखद अनुभूति को अपनी सुख-सुविधा की तरह ही प्रसन्नता दायक मानना। देवता उन्हें कहते हैं जो देने की प्रवृत्ति में तल्लीन रहते हैं। देने से दूसरों को जो सुख मिलता है उसे अपने लाभ या सुख के बराबर समझ लेने से यह दान किसी से कुछ ग्रहण करने की अपेक्षा अधिक आनन्द देता है। माता अपने बच्चे को छाती से दूध पिलाते हुए कितनी प्रसन्न होती है। यद्यपि उस दुग्ध दान से उसे अपनी शारीरिक शक्ति और सौंदर्य में प्रत्यक्ष घाटा ही है पर घाटे को खुशी-खुशी माता इसलिए उठाती है कि उस पयपान से बालक की भूख मिटती है और उसके विकास में सहायता मिलती है। ऐसी ही मातृभावना जब दूसरों के लिए विकसित होने लगे तो मातृत्व-देवत्व अथवा अध्यात्म का विकास चरितार्थ होने लगा।

जिस समाज में हम पैदा हुए हैं उसके पिछड़ेपन की ओर अपना ध्यान जाना चाहिए। उसे दूर करने के लिए कुछ प्रयत्न करना चाहिए। अपना शरीर रुग्ण हो-अपना बच्चा बीमार हो तो क्या हम उपेक्षा बरतते हुए हाथ पर हाथ रखे बैठे रहेंगे। ऐसा कोई निष्ठुर ही कर सकता है। हमें अपने आपे का विस्तार शरीर और घर, परिवार तक सीमित न रखकर अधिक व्यापक बनाना चाहिए। वह भी क्या जीवन जो पेट के लिए जिया जाय, वह भी क्या आदमी जो अपने वैभव, विलास के ही साधन जुटाता रहे। वह भी क्या धर्मात्मा जिसे अपने नैतिक कर्त्तव्यों की प्रेरणा न मिले। वह भी कैसा ईश्वर भक्त जो दरिद्र नारायण के रूप में खड़े हुए भगवान की सहायता करने से इनकार कर दे।

धर्म का आवरण ओढ़ने से काम न चलेगा उसे अन्तःकरण में प्रतिष्ठापित किया जाना चाहिए। ईश्वर-ईश्वर कहने से काम न चलेगा उसके सर्वव्यापी स्वरूप से अधिक सुन्दर और सुगन्धित बनाने के लिए-लोक मंगल के लिए बढ़-चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करना चाहिए। आत्मा को परमात्मा से मिलाने की यही राह है कि हम अपनी संकीर्णता को-विशालता में और निष्ठुरता को उदारता में परिणत कर दें। सम्वेदना और सहानुभूति के साथ आत्मिक प्रगति का ‘अन्योन्याश्रय’ संबंध है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118