माँसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति हर दृष्टि से घातक

February 1972

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भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ 80 प्रतिशत लोगों की आजीविका कृषि पर निर्भर है। कृषि के साथ पशुपालन भी जुड़ा हुआ है। इस देश की निर्धन स्थिति तथा छोटे जीवों को देखते हुए यहाँ बड़े पैमाने पर मशीनों से खेती नहीं हो सकती। बैल कृषि का मूल आधार है। दूध पर मनुष्यों की स्वास्थ्य रक्षा निर्भर है। यह दोनों कार्य पशुपालन पर निर्भर हैं। पशु धन यदि पर्याप्त मात्रा में रहें तो ही उपरोक्त दोनों प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं।

पशुधन में गौ ही इस देश के लिए सर्वोपरि महत्व की है। भैंस तथा भेड़-बकरियों के बच्चे कृषि के प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकते और न उसका दूध ही गाय के दूध की तुलना में पौष्टिक एवं स्फूर्तिदायक है। गाय में सात्विकता की मात्रा अधिक रहने से गोरस का सेवन बुद्धि वृद्धि एवं सौम्य प्रकृति को लाभ भी देता है। अन्य पशुओं के दूध में यह विशेषता नहीं है। इन कारणों को देखते हुए यहाँ गौ को माता के सम्मान से सम्मानित किया गया है। भारतवासी गाय के अनुदानों का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते हुए उसे गौ माता कहकर सम्मानित करते हैं जो सब प्रकार उचित ही है।

पशुधन की-विशेषतया - गौधन की रक्षा भारतवर्ष की कृषि व्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था को देखते हुए नितान्त आवश्यक है। मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाय तो भी पशु हमारे छोटे भाई हैं। मनुष्य बुद्धि तथा पुरुषार्थ में बड़ा है अतः उसे अपना बड़प्पन अपने से छोटे पशु-पक्षियों की रक्षा में प्रयुक्त करना चाहिए। बुद्धि के अतिरिक्त उसकी एक और मानवीय विशेषता दया है। दूसरों को कष्ट पीड़ित देखकर स्वयं करुणा से द्रवित हो उठना, पराया कष्ट अपना कष्ट मानकर और अपने स्वार्थ के लिए किसी को कष्ट न देना यह तो धर्म भावना है। जिसका हर धर्म में समर्थन किया गया है। जिस भारत ने संसार को प्रेम, करुणा और अहिंसा का सन्देश सुनाया था और भविष्य में भी मानवी करुणा का पुनर्जागरण इसी के हिस्से में आने वाला है। अपनी प्राचीन परम्पराओं और भावी जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए हम भारतीयों के लिए यह आवश्यक है कि अपने यहाँ पशुधन की - गौधन की रक्षा में विशेष रूप से दिलचस्पी लें। देश की कृषि व्यवस्था और अर्थव्यवस्था को देखते हुए तो यह और भी अधिक आवश्यक है।

दुर्भाग्य से इन दिनों अपने देश में पशु धन का ह्रास बुरी तरह हो रहा है। कृषि के लिए बैल और दूध के लिए गायों को निरन्तर कमी होती जा रही है। माँसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति जहाँ अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव डाल रही है वहाँ हमारे प्रेम, करुणा, सहृदयता जैसे उच्च गुणों को भी घटाती जा रही है। दया और न्याय केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं रखे जाने चाहिए। वरन् यदि वे आदर्श सच्चे हैं तो उनका प्रयोग पशु धन तक भी व्यापक बनाया जाना चाहिए। माँसाहार का प्रचलन बढ़ने से हमारी जो भावनात्मक क्षति होगी उसका दुष्परिणाम परस्पर निर्दयता बरतने के रूप में भी सामने आवेगा। पशु वध और माँसाहार की वर्तमान स्थिति ऐसी है जिससे हमारा भविष्य अन्धकार मय ही बनेगा।

दस वर्ष पूर्व की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 43, 92, 35000 थी और देश में कुल मिला कर 17, 56, 71, 841 गोवंश तथा 5, 12, 37, 279 पशु थे। भैंस वंश अर्थात् 22, 68, 09, 120 पशु थे। देश में कुल कृषि योग्य भूमि, 42, 15, 21000 एकड़ थी। खाद्य विशेष समिति की रिपोर्ट के अनुसार आठ एकड़ जमीन के लिए एक जोड़ी बैल चाहिए। इस हिसाब से वर्तमान कृषि योग्य भूमि के लिए 10, 53, 80, 250, बैलों की आवश्यकता पड़ेगी। और तेल के कोल्हू, गाड़ियों तथा बोझा ढोने के लिए 15, 65000 की और आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रकार कृषि तथा भार वाहन के लिए 10, 69, 45, 250 पशुओं की जरूरत हुई। इस प्रयोजन के लिए बैल, गाय और भैंसे, भैंस दोनों ही जोड़ लिए जायें तो गणना के अनुसार बैलों की संख्या 6, 86, 01, 614 तथा गायों की संख्या 21, 77, 169 नर भैंसे 66, 05, 250 तथा मादा भैंसे 4, 97, 534 हैं। इस प्रकार गाय, बैल, भैंसे, भैंसे जो कृषि और बोझ ढोने के काम में आ सकते हैं कुल मिला कर 7, 98, 81, 467 होते हैं। स्मरण रहे भारत में कहीं-कहीं गायें तथा मादा भैंसे भी कृषि एवं बोझ ढोने के काम में प्रयुक्त होते हैं। तब भी आज की कृषि एवं बोझ ढोने की आवश्यकता पूरी करने में 2,90,63,783 पशुओं की कमी रह जाती है।

असली घी और दूध का उत्पादन तेजी से गिर रहा है और नकली घी की उत्पत्ति तथा खपत जिस तेजी से बढ़ रही है उसे देखकर आश्चर्य होता है। पशुवध की वृद्धि के कारण विदेशों को चमड़ा, माँस आदि की जो वृद्धि हुई है उसके आँकड़ों को देखते हुए दुःख तथा निराशा ही हो सकती है। केवल विदेशी मुद्रा कमाने का लाभ ही ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए वरन् यह भी देखा जाना चाहिए कि पशु धन घटने से कृषि उत्पादन तथा दूध, घी के अभाव से स्वास्थ्य की कितनी हानि होगी।

पशु विशेषज्ञ डॉक्टर राइट ने मन्दी के दिनों में हिसाब लगाकर भारत को गोवंश से मिलने वाली आमदनी 11 अरब रुपया वार्षिक बताई थी। अब उस समय से कम से कम 8 गुनी वृद्धि हुई है। इस हिसाब से उस आय का अनुमान 88 अरब रुपया होना चाहिए। यह समस्त राष्ट्रीय आय का लगभग एक चौथाई होता है। देश के इतने बड़े उद्योग की ओर आंखें बन्द किये रहना या उपेक्षा बरतना किसी भी दृष्टि से समझदारी नहीं है।

इसके विपरीत माँस उत्पादन पर ही जोर दिया जा रहा है। पिछले दिनों की सरकारी सूचना के अनुसार देश में सरकारी 1314 और गैर सरकारी 770 अर्थात् कुल 2084 बड़े कसाई खाने हैं। जिनमें 45649 सुअर, 277970 भैंसे, 4234828 भेड़ें, 4502578 बकरी तथा 315512 अन्य पशु कटते हैं।

राष्ट्र-संघ की ‘फूड एण्ड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन’ और ‘वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गनाइजेशन’ तथा माँस बाजार की रिपोर्ट तथा सिफारिशों से प्रभावित होकर भारत सरकार माँस उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील है। उसके अनुसार सन् 81 तक वार्षिक गो माँस उत्पादन 192062500 मन तथा साधारण माँस 154650000 मन बढ़ाने की तजबीज है।

इस योजना के अनुसार मद्रास, दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता में दो-दो करोड़ रुपये की पूँजी से चार बड़े कसाई खाने चलाये जाते हैं। इनमें से प्रत्येक में प्रतिदिन 6000 भेड़, बकरे, 300 गाय, बैल, 100 सुअर छः घण्टे में काटे जा सकेंगे। यह एक पाली की बात हुई। जरूरत के अनुसार इसकी दूसरी पाली भी चलाई जा सकेगी और इन्हीं कारखानों में दुगुना पशुवध किया जा सकेगा।

कुछ दिन पूर्व बम्बई में विश्व शाकाहारी सम्मेलन हुआ था। उसमें संसार भर में आये हुए प्रतिनिधियों में से बहुतों ने भारत भ्रमण किया और यहाँ की परिस्थितियों को देखकर कहा था- “जहाँ माँस की अनुपयुक्तता को समझकर यूरोप के देश तेजी से शाकाहारी होते चले जा रहे हैं वहाँ दुर्भाग्य से भारत में माँसाहार की प्रवृत्ति बढ़ रही है।”

योरोपीय देश में अण्डा प्रयोग के स्थान पर ‘अधिक दूध पियो’ आन्दोलन को सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर बढ़ाया जा रहा है और इसके लिए साधन उत्पन्न किये जा रहे हैं पर अपने यहाँ दूध उत्पादन की उपेक्षा माँस व्यवसाय एवं अण्डा उत्पादन पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है।

औषधियों के नाम पर जो जीव हिंसा बढ़ रही है वह भी कम चिन्ताजनक नहीं है। अन्य जीवों को इस प्रकार उत्पीड़न देकर जो दवायें बनाई जा रही हैं वे सेवनकर्त्ता के शरीर को भले ही क्षणिक लाभ पहुँचा दें उसकी आत्मिक स्थिति को दुर्बल ही करेंगे। दूसरों को सताकर जो अपने सुख प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें निराश ही होना पड़ेगा। इस बढ़ती हुई हिंसा को रोकने के लिए यदि प्रयत्न न किया गया तो हमारी भौतिक समस्यायें तो हल हो ही नहीं सकेंगी अपना रहा बचा आत्मिक स्तर भी खो बैठेंगे।


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