दुर्व्यवहार-दुरुपयोगकर्त्ता के ही प्राण लेता है।

February 1972

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दुरुपयोग यदि नन्हीं सी वस्तु का भी किया जाय तो वह तुच्छ दीखने वाला पदार्थ कितना घातक-कितना खूँखार हो जाता है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम अणु विस्फोट के रूप में देखते हैं।

यह सारी सृष्टि अणु परमाणुओं की बनी है। हर जगह कोटि-कोटि कण बिखरे पड़े हैं। उन्हीं के समूह का एक भी कण तो पदार्थों के रूप में दीखता है। इस संसार की सबसे छोटी सबसे तुच्छ इकाई परमाणु ही तो है। उसका मूल्यांकन मोटी दृष्टि से करें तो कुछ भी तो नहीं बैठता। जिसका आकार अस्तित्व देखने समझने तक में न आये आखिर उसका मूल्यांकन भी कैसे और कितना किया जाय।

सामान्य क्रम से यह परमाणु अपने निर्धारित क्रियाकलाप में लगे रहते हैं सृष्टि क्रम चलाने में-मनुष्य की सुविधा बढ़ाने में सहायता ही करते हैं। उनके स्वाभाविक क्रम में व्यतिरेक न होने पर वे अनन्तकाल तक अपनी उपयोगिता से शोभा और सुविधा ही बढ़ाते रहेंगे।

दुरुपयोग का-व्यतिरेक का कदम जहाँ भी उठाया जायगा वहीं विग्रह उत्पन्न होगा। कर्तव्यों और मर्यादाओं का व्यतिरेक करके मनुष्य अपने लिए और सबके लिए संकट उत्पन्न करता है। उद्धत और उच्छृंखल बनकर अतिरिक्त लाभ उठाने की बात सोची तो जाती है पर वह पार नहीं पड़ती। अपराध और अनाचार दूसरों को तो हानि पहुँचाते ही हैं उनका कर्त्ता भी अछूता नहीं बचता। मर्यादाओं के व्यतिरेक का अर्थ विनाश ही होता है। यह तथ्य अणु परमाणु जैसी छोटी इकाई के साथ विग्रह, व्यतिरेक उत्पन्न करके उसका दुष्परिणाम प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

6 अगस्त 1945 को जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर जो दो परमाणु बम अमेरिका ने गिराये उनसे सारी दुनिया दहल गई। इस महाविनाश को देखकर जापान हक्का-बक्का हो गया और उसने हथियार डाल दिये। सेना से सेना लड़ सकती है पर सर्वनाशी काल से कौन लड़े। एक ही क्षण में अणु विस्फोट ने हिरोशिमा के 78000 नर−नारी भून डाले और 56000 अर्द्धमृत घायल कर दिये। नागासाकी में 74000 मनुष्य मरे और 77000 घायल हुए। इस प्रकार लगभग 30 लाख व्यक्तियों के अस्तित्व निरर्थक बन गये। लगभग 15 मील का घेरा पूर्णतया भस्म हो गया। इसके अतिरिक्त उन लोगों की संख्या और भी बड़ी - कई गुनी है - जो इस विस्फोट से निकली हुई गामा किरणों के कारण तिलतिल करके-रोते कलपते-धीरे-धीरे मरने के विवश हो गये।

तब से लेकर अब तक इन सत्ताईस वर्षों में इन अणु आयुधों के निर्माण का उनके परीक्षणों का सिलसिला चलता ही रहा है। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फाँस, चीन आदि देशों ने इस बीच अणु विस्फोट के सर्वनाशी महादैत्य को पाल-पोस कर बहुत मोटा तगड़ा बना लिया है। और अब वह इस स्थिति में हैं कि एक सनकी का आवेश एक सैकिंड में इस सारी सुन्दर दुनिया को बारूद की तरह भड़का कर नष्ट कर सकता है और यह सारी पृथ्वी धूलि बनकर अन्तरिक्ष में विलीन हो सकती है।

सन् 54 में विकीनका जिस हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया गया वह जापान पर गिराये गये बमों से 600 गुना अधिक विनाशकारी था। 30 अक्टूबर 61 में इससे भी बड़ा परीक्षण हुआ वह 56 मेगाटन का उससे भी सैकड़ों गुना बड़ा था। अब तक कुल मिलाकर 400 से अधिक परमाणु बम और हाइड्रोजन बमों का विस्फोट परीक्षण हो चुका है।

इन परीक्षणों में अब तक जो रेडियो विकरण फैल चुका है उसकी विभीषिका से भी मानव जाति को भारी क्षति उठानी पड़ेगी। यदि विधिवत युद्ध में यह शक्ति काम में आई तो उसका परिणाम संक्षेप में इस विश्व की सामूहिक आत्महत्या ही, कहा जा सकता है उस सर्वनाश के बाद कहाँ क्या कुछ बना रहेगा यह कहा नहीं जा सकता।

एक आणविक विस्फोट से पैदा होने वाला धुआँ-75000 मनुष्यों को मार डालने के लिए पर्याप्त है। यह विनाश तो तात्कालिक है। इसके बाद जो ‘न्यूक्लीय विकरण’ फैलता है उससे 50 मील के लोगों पर ऐसा अदृश्य प्रभाव पड़ता है जिससे वे कराहते हुए मरने के अतिरिक्त और किसी काम के नहीं रह जाते। समस्त वायुमण्डल में जो ‘रेडियेशन’ फैलता है उसके परिणाम तो मन्द विष की तरह और भी अधिक भयानक होते हैं। उसका प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता है किन्तु बहुत समय तक चलता रहता है। उससे मनुष्य की सारी विशेषताएँ नष्ट होती जाती हैं और वह शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से अपंग बनने के लिए विवश होता है। पीढ़ी दर पीढ़ी इसका प्रभाव चलेगा और भावी संतानें अंग-भंग अर्द्ध-विक्षिप्त, कुरूप, रोगग्रस्त एवं ऐसी विलक्षण आकृति-प्रकृति की होंगी कि उनसे केवल धरती का भार ही बढ़ेगा संकट ही उत्पन्न होंगे।

अणु बमों का विस्फोट शक्ति प्लूटोनियम 239 और यूरेनियम 235 के विखण्डन से उत्पन्न होती है। इस प्रक्रिया को ‘न्यूक्लीय विखण्डन’ कहा जाता है। इससे प्रायः 400 प्रकार के रेडियोधर्मी तत्व निकलते हैं। हाइड्रोजन बम ही भागों में विभक्त होता है। पहला-केन्द्र स्थल जहाँ विशुद्ध परमाणु बम रहता है। दूसरा-जहाँ संलयन मिश्रण भरा जाता। तीसरा-जहाँ यूरेनियम तथा दूसरे विखण्डनीय पदार्थ भरे रहते हैं। संलयन मिश्रण दो प्रकार का होता है। (1) भारी सम स्थानिक ड्यूटीनियम तथा ट्रीशियम का (2) इनके साथ लीथियम ड्यूटेटाइड मिश्रण का। संलयन मिश्रण क्रिया उत्पन्न करने के लिए लाखों डिग्री का तापमान अपेक्षित होता है इसे मध्यवर्ती परमाणु बम का विस्फोट करके उत्पन्न किया जाता है। इस ताप से बड़ी संख्या में तीव्र न्यूट्रोन निकलते हैं। वे तीसरे खंड का विस्फोट करके अधिक शक्ति उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार प्रायः आधी शक्ति मूल अणु बम से और आधी शक्ति शेष सम्बद्ध पदार्थों से निकलती है। विस्फोट के उपरान्त इन बमों से कितने ही प्रकार के हानिकारक तत्व वायुमण्डल में फैलते हैं। इनमें स्टानशियम 90, सीजियम 137, आइडीन 131, कार्बन 14 तथा ट्रीशियम मुख्य हैं। इन्हें अति भयावह मारक किन्तु मन्द विष ही कहना चाहिए। इनके घातक प्रभाव को सहकर मरने की अपेक्षा एक बारगी आत्महत्या करना सरल पड़ सकता है।

इस रेडियेशन का प्रभाव एक उदाहरण से जाना जा सकता है-”मेक्सिको (अमेरिका) की एक कैमिस्ट महिला अपने पति से पीछा छुड़ाने पर उतारू हो गई। उसने उसके लिए ‘रेडियेशन’ का विषाक्त प्रयोग किया। वह जरा सा ‘यूरेनियम’ अपने पति के भोजन के निकट रख देती। इससे वह भोजन रेडियोएक्टिव हो जाता। वह धीरे-धीरे कमजोर होने लगा और बीमार पड़ गया। डॉक्टरों को कुछ पता न चला कि आखिर मर्ज क्या है। परीक्षणों में कहीं कोई विष आदि भी नहीं मिला। मरने के बाद उसकी लाश की परीक्षा से पता चला कि उसके स्नायु तन्तु किसी प्रकार ‘रेडियो एक्टिव’ हो गये थे। जो कार्य उपरोक्त महिला ने अपने पति के साथ किया वही व्यवहार जब सारा वायुमण्डल सब लोगों के साथ करेगा तो जन साधारण की क्या दुर्गति होगी इसका अनुमान लगा लेना कुछ कठिन नहीं होना चाहिए।

यह तो वह हानि है जो अब तक के 400 परीक्षणों से हो चुकी है। इसी को भुगतना सरल नहीं है। फिर आगे जो परीक्षणों का सिलसिला चल रहा है उसके क्या परिणाम होंगे? अथवा युद्ध खड़ा हो गया तो उसका प्रभाव मनुष्य जाति पर क्या पड़ेगा उसकी कल्पना भर कर सकना भी कठिन है।

स्टॉक होम अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति अनुसंधान संस्थान (सिपरी) द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ “विश्व शस्त्र भण्डार और निरस्त्रीकरण का अब्दकोश” (ईयर बुक ऑफ वर्ल्ड आर्मामेन्टस एण्ड डिसआर्मामेन्ट) में जो आँकड़े दिये हैं। उसे देखकर मनुष्य की अबुद्धिमत्ता और अदूरदर्शिता पर भारी खेद होता है। सरकारें चलाने वाले मूर्धन्य व्यक्ति अपने संकीर्ण राष्ट्रीय हितों को प्रधानता देते हुए किस प्रकार विश्व विनाश के संकट को बढ़ा रहे हैं यह देखते हुए हैरत होती है।

नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता श्रीफिलिप नोएल बेकर ने अन्य मूर्धन्य बुद्धिजीवियों के साथ समस्त विश्व के राज्य नेताओं और सचेतन मनुष्यों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि यदि ‘अणु आयुधों’ की दौड़ को रोक कर पीछे न लौटाया गया तो इसके परिणामों की भयानकता कल्पनातीत होगी, प्रख्यात दार्शनिक वर्नेड रसेल ने भी विश्व जनमत को जागृत करने के लिए अपील की है। यह सब अपने स्थान पर हो रहा है पर राजनेता अभी भी बाज नहीं आ रहे हैं। चीन के विस्फोट अभी कुछ महीने पूर्व ही हुए थे कि अमेरिका ने एक भूमिगत विस्फोट अभी-अभी प्रस्तुत किया है। अणु विस्फोट चाहे हवा में किये जायें अथवा जमीन या समुद्र में-उनसे कुछ बहुत अन्तर नहीं पड़ता। विष चाहे हवा में उड़ाया जाय चाहे पानी में घोला जाय अथवा भूमि में मिलाया जाय, लौट पलट कर उसका प्रभाव जीवधारियों पर पड़ेगा ही। समुद्र का जल लेकर बादल बरसेंगे ही। जमीन से वनस्पतियों तथा धातुओं को लेना ही पड़ेगा। हवा में साँस ग्रहण की ही जायेगी। घुमा-फिरा कर कहीं भी किया गया विस्फोट मनुष्यों के, पशुओं के शरीर में प्रवेश करेगा। वनस्पतियाँ-पशु और मनुष्य अब एक ही परिवार के हो गये हैं। उनका आदान-प्रदान एक दूसरे के साथ रहता है। रेडियो धर्मी विकरण उन तीनों में से किसी एक को भी प्रभावित करें दूसरे दो को भी उसकी चपेट में आना पड़ेगा।

सरकार हथियारों पर हर व्यक्ति पीछे एक डॉलर खर्च कर रही है जबकि स्वास्थ्य पर केवल 30 सेन्ट का औसत आता है, जो युद्ध साधनों में खर्च होने वाले धन की तुलना में तीस गुनी है। निर्माण के लिए जितनी धन और जनशक्ति लगी है उसकी तुलना में विनाश के साधनों पर 10 गुना अधिक खर्च किया जा रहा है। जितना बुद्धिबल विनाश के उपाय सोचने और साधन ढूँढ़ने में खर्च हो रहा है उससे आधा चौथाई भी यदि शान्ति की सम्भावना और उत्कर्ष के साधन ढूँढ़ने में लगाया जा सका होता तो भविष्य की विभीषिकाओं और आशंकाओं से काँपती हुई दुनिया ने सन्तोष की साँस ली होती और मनुष्य आकृति के प्राणों पर सवार पिशाच का आतंक हलका हो सका होता।

दुर्व्यवहार अणु जैसे तुच्छ पदार्थ से भी किया जाय तो वह ऐसी विभीषिका उत्पन्न कर सकता है जैसी कि आज के अणु-अस्त्र उत्पन्न कर रहे हैं। दुरुपयोग छोटी वस्तु का भी करने से विनाश का संकट प्रस्तुत होता है। धन का, बुद्धि का, समय का, साधनों का दुरुपयोग करने वाले तत्काल कुछ चमत्कारी लाभ प्राप्त करने की बात सोचते हैं। अपराधियों, उत्पातियों और दुरात्माओं की यही मान्यता होती है। वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति का नियम क्या है। उच्चारण किये हुए शब्द समस्त विश्व में घूमने के बाद शब्दबेधी बाण की तरह वहीं लौट आते हैं जहाँ से उन्हें छोड़ा गया था। दुर्बुद्धि, दुष्प्रवृत्ति और दुर्व्यवहार दुरुपयोग ऐसे ही शस्त्र हैं जिन्हें दूसरों पर प्रयोग करके लाभान्वित होने की बात सोचने वालों को पश्चाताप ही करना पड़ता है। अपनी खोदी खाई में उन्हें स्वयं की गिरना पड़ता है-अपनी जलाई आग अपने को ही जलाती है। यह बात मर्यादाओं का उल्लंघन करने वालों पर पूर्णतया लागू होती है।

नगण्य सी इकाई परमाणु के साथ बरता गया दुर्व्यवहार दुरुपयोग कितना भयावह सिद्ध हो रहा है इस तथ्य को समझते हुए हम अपनी उपलब्धियों के- शारीरिक, मानसिक, आर्थिक क्षमताओं के सदुपयोग की बात ही सोचें, इसी में कल्याण है।


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