दयानिधान भगवान के महान अनुदान

February 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भगवान को दया निधान, करुणा सिन्धु, अजस्र दानी कहा गया है। उसका कितना अधिक अनुदान मनुष्य को मिला है उसे यदि समझा जा सके तो उस करुणा सागर की-अनुकम्पा के प्रति हृदय कृतज्ञता से भर जाय। और इसके लिए भावना उमड़े कि ऐसे उपकारी अभिभावक के अनुशासन में रहना, निर्देशित रीति-नीति का पालन करना ही उचित है। मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता सर्वविदित है। इस श्रेष्ठता को प्राप्त करने के साथ-साथ उस पर यह उत्तरदायित्व भी आया कि भगवान की सृष्टि को सुन्दर, समुन्नत और सुरभित बनाने के लिए काम करे। और ईश्वर की उस इच्छा, आशा को पूरी करने करे जो मनुष्य को विशेष अनुदान देते समय उसने अपने मन में रखी थी।

भगवान मनुष्य के लिए ही नहीं अपने सभी पुत्रों के प्रति उदार है। प्रत्येक जीव को उसने उनकी स्थिति एवं आवश्यकता के अनुरूप क्षमतायें और विशेषतायें दी हैं। यदि प्राणियों को शरीर ही मिले होते कुछ अतिरिक्त विशेषता न मिली होती तो उनका जीवन ही दुर्लभ हो जाता।

परमेश्वर की प्राणियों से सम्बन्धित शक्ति, जिसे प्रकृति कहते हैं-अतिशय उदार है। उसने मुक्त हस्त से प्राणियों को बहुत कुछ दिया है। जीवन धारण करने और सुख-सुविधा के साथ जीने के लिए ही नहीं-आत्म-रक्षा के लिए भी वे विशेषतायें दी हैं जिनके आधार पर वे आगत विपत्ति एवं कठिनाई का मुकाबला करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकें।

किसी भी प्राणी पर दृष्टिपात करें, उसे भी प्रकृति का प्यार, संरक्षण और अनुदान प्राप्त हुआ है। ऐसा प्रत्यक्ष दीखता है। जन्मदात्री प्रकृति ‘कुमाता’ नहीं हो सकती उसका असीम स्नेह तो सब पर बरसता है। अन्य प्राणी उसका सदुपयोग करते हैं और दुर्बल, असमर्थ प्रतीत होते हुए भी अपने अस्तित्व की रक्षा कर लेते हैं।

दक्षिणी अमेरिका में एक पक्षी पाया जाता है उसका नाम है ‘स्लाथ’ यह संसार के सबसे अधिक आलसी जीव के रूप में विख्यात है। अपना अधिकाँश जीवन का वह पेड़ पर उल्टा लटके-लटके ही काट देता है। अपना आस-पास की टहनियाँ और हरे पत्ते की उसका भोजन है। वर्षा ऋतु आती है पानी बरसता है किन्तु वह अपनी शीर्षासन मुद्रा का परित्याग नहीं करता। यह प्रकृति के ज्ञान और उसकी महान् कृपा का ही फल कहना चाहिए कि उसके रोयें सीधे न होकर उलटे बनायें गये हैं जिससे उसके शरीर पर आया सारा पानी टपक जाता है अन्यथा उसका नाम अब तक लुप्त प्रायः जीवों की सारणी में आ गया होता।

व्हेल मछली संसार का सबसे बड़ा जानवर है। बाइबिल में इसे ‘महामत्स्य’ लिखा गया है और सचमुच ही उसका मीलों लम्बा दैत्याकार इस सम्बोधन के सर्वथा अनुरूप है। जब वह साँस छोड़ती है तो ऐसा लगता है जैसे समुद्र के नीचे से फव्वारे छूट रहे हों। एक बार अटलांटिक महासागर में व्हेल का शिकार किया गया। साँघातिक चोट खाये मत्स्यराज का पेट चीरा गया तो उसके पेट के भीतर से पूरे 6 फीट लम्बा और 4 फीट चौड़ा एक कटल मछली का टुकड़ा निकला। 18 फीट लम्बा एक अस्थि पिंजर जो तब तक पच नहीं सका था और शार्क मछली का था उसके पेट से निकला।

इतनी बड़ी मछली जो पचासों हाथियों को भी तौल सकती है समुद्र के सारे जीवों को साफ कर गई होती यदि प्रकृति ने उसका मुँह छोटा न बनाया होता। इसका जबड़ा इतना छोटा होता है कि हेटिंग नामक समुद्री मछली उसके गले में फँसकर श्वाँस की गति में बाधा उत्पन्न कर सकती। इस प्रकार प्रकृति अन्य समुद्री जीवों की रक्षा करती है।

उड़ने से लेकर मौसम के हर उतार-चढ़ावों को बर्दाश्त करने की जितनी क्षमता चिड़िया के पंखों में होती है वैज्ञानिक यह मानते है कि प्रकृति की उस रचना के समकक्ष आज तक कोई भी आविष्कार मनुष्य नहीं कर सका।

दक्षिण अमेरिका का उत्तरी कार्डिलरा प्रदेश सूखा अनुपजाऊ पहाड़ी क्षेत्र है न तो कोई पैदावार, न दूध देने वाले पशुओं की व्यवस्था। वृक्ष भी सूखी पत्तियों वाले पाये जाते हैं। प्रकृति को “कुमाता भवति” मान लिया जाता यदि उसने इस सुखे प्रदेश में जीवन की रक्षा का प्रबन्ध न किया होता। दया दर्शायी उसने और यह एक पौधा पैदा किया-गोवृक्ष (काऊ ट्री)। देखने में इसकी शाखायें मृत और सूखी जान पड़ती हैं पर जब इसका तना कुरेदा जाता है तो उसमें एक प्रकार का दूध निकलता है जो मीठा और पौष्टिक ही नहीं होता वरन् अन्न और तरकारियों में पाये जाने वाले सारे तत्व भी उसमें पाये जाते हैं। प्रातःकाल भूख लगती है और प्रातःकाल सूर्योदय के समय ही यह इतना दूध दे देता है कि वहाँ के नीग्रो दिन भर अपना काम चलाते हैं। वैज्ञानिकों ने इस दूध की जाँच की तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि इस दूध और पशुओं द्वारा प्राप्त दूध में बहुत घनिष्ठ एकता है।

शायद प्रकृति को मालूम था कि सहारा जैसे रेगिस्तान में ऊँट को ही एकमात्र वाहन बनना पड़ेगा। वहाँ मनुष्य को तो जल मिलता नहीं ऊँट को कौन पानी पिलायेगा इसकी चिन्ता उसने स्वतः की और उसको वह क्षमता प्रदान की जिससे वह एक बार में पूरे 90 लीटर तक पानी पी लेता है और उससे सप्ताहों तक कड़ी धूप में भी अपना गुजारा कर लेता है।

शेर यों तो किसी का भी शिकार कर डालता है किन्तु यदि उसे 5 मील की दूरी तक एक जिराफ दिखाई दे जाये तो इससे कम दूरी पर अन्य जानवर तो भी वह कितना भी परिश्रम करना पड़े जिराफ को ही मारने की कोशिश करता है। एक प्रकार का गुलाब जामुन है जिराफ शेर के लिए। फिर अब तक जिराफ की नस्ल बची क्यों है उत्तर फिर वही मिलेगा-प्रकृति की दया और ममता के कारण। उसने जिराफ की खाल ऐसी बनाई है कि वह पेड़ों के बीच खड़ा हो जाता है तो बहुत पास पहुँचकर भी उसे पहचानना कठिन हो जाता है।

साँप-अच्छा हुआ कि प्रकृति ने उसे पृथ्वी के अन्दर छिपा रहने वाला जीव बनाया वरना एक साँप का जहर हजार व्यक्तियों को मार सकता है। जावा और मलेशिया में एक प्रकार के सर्प पाये जाते हैं जिनके पंख होते हैं और वह उड़ते भी हैं। वे अधिकाँश एक पेड़ से दूसरे पर उड़कर ही जाते हैं उड़ते समय गोलाकार होते हुए उतरते हैं। इस प्रकार उन्हें आहार प्राप्त करने की, आत्मरक्षा की तथा क्रीड़ा-कल्लोल की त्रिविध सुविधायें मिली हुई हैं।

पहलवान पहले अपने घरेलू अखाड़ों में कुश्ती का अभ्यास करते हैं तब कहीं बाहरी दंगलों में दाँव-पेच दिखाने का साहस करते हैं। विदेशी सैनिकों से लड़ने के पहले देशी फौजें अपने आपको दो हिस्सों में बाँटकर युद्ध


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118