बचपन में मैं बहुत दुबला था। जरा सी मेहनत करने पर चक्कर आते थे। पेचिश की बीमारी सदा घेरे रहती थी। भोजन न पचता था न अच्छा लगता था। कोई तन्दुरुस्त व्यक्ति सामने से निकलता तो ईर्ष्या होती। सोचता काश, मुझे भी भगवान ने ऐसा ही निरोग बनाया होता।
शीशे में अपना शरीर देखता तो लज्जा से सिर नीचा हो जाता। उदासी छा जाती। मन रो उठता। सोचता ऐसी बेकार जिन्दगी भी किस काम की। 21 वर्ष की आयु में गाँव के एक स्कूल में नौकरी मिल गई। मास्टर हो गया, अस्सी रुपये महीने का ड्राईंग मास्टर हुआ। जीवन इसी परिधि में घिर गया दीखा।
न जाने कैसे आत्म विश्वास जागृत हुआ। मन कहने लगा आदमी का संकल्प-बल महान है। वह कुछ महत्वपूर्ण निश्चय करे और उसे पूरा करने के लिए निष्ठापूर्वक जुट जाय तो प्रगति की ऊँची मंजिल तक पहुँच सकता है।
बस मैंने अपना स्वास्थ्य सुधारने की सोची। व्यायाम की जानकारी प्राप्त की और उसे अपनाने के लिए जुट गया। लोग हँसते-देखना यह मरियल मास्टर अब पहलवान बनने चला है।
लोग हँसते रहे और मैं अपनी धुन में लगा रहा। सौभाग्यवश एक मार्गदर्शक भी मिल गये। उनने मन लगाकर मुझे कसरत सिखाई और पहलवानी के दाव-पेंच भी। प्रयत्न तो सभी अपने-अपने कामों में करते हैं और शरीर और मन से एक होकर-कार्य को लक्ष्य बनाकर उसी में तन्मय कोई बिरले ही होते हैं। मेरा व्यायाम-मेरी पहलवानी कुछ इसी किस्म की थी। सो सफल मनोरथ उसी एकात्म निष्ठा ने बनाया।
राष्ट्रीय व्यायाम विजेता, भारत केशरी जो कुछ भी कहा जाय उस सारी सफलता का श्रेय उस संकल्प बल को है। जिसे मैंने कल्पना, आकाँक्षा तक सीमित नहीं रखा वरन् समग्र कर्म निष्ठा में समाविष्ट कर लिया।
-हिन्द केशरी मास्टर चंदगी राम के साथ चर्चा प्रसंग।