कवि भी राष्ट्र-प्रहरी

February 1972

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सम्राट भोज राज-कवि का चुनाव करेंगे-यह घोषणा सम्पूर्ण राज्य में फैल गई। एक से एक धुरंधर कवि धारानगरी पहुँचने लगे। महाराज ने उन सब के स्वागत, निवास आदि का अच्छे से प्रबन्ध किया। आकर सभी कविगण अपने-अपने लिये नियत तम्बुओं में ठहरने लगे। नगर कवियों के कोलाहल से इस तरह भर गया मानों साँझ के समय पखेरू अपने-अपने कोटरों में तरह-तरह की ध्वनि में चहचहा रहे हों।

दूसरे दिन पहला कवि दरबार लगा। सरस्वती के एक से एक बाँके पुत्र सम्पूर्ण साज-सज्जा के साथ रंग-मंच पर ऐसे जा विराजे मानों वे कविता पाठ के लिए नहीं विवाह रचने आयें हों? कवियों की वह सज-धज, बाँकी और परस्पर रसीली वार्तायें देखते और सुनते ही बनती थी?

महामन्त्री बैताल ने सभा के प्रयोजन की घोषणा की कलामंच प्रजा के मन को व्यवस्थित और अनुशासित रखने वाला उन्हें प्रेरणाएं और प्रकाश देने वाला सबसे श्रेष्ठ साधन है! महाराज चाहते हैं कि उस मंच को चलाने, नियंत्रित और संगठित करने वाला कोई उस विद्या का ज्ञाता ही हो इसी उद्देश्य से यह कवि सम्मेलन आयोजित किया गया है। ‘राजकवि’ की पदवी किसे दी जाये इसका निर्णय महाराज श्री स्वयं करेंगे।

और तब प्रारम्भ हुआ काव्य सम्मेलन। एक-एक कवि मंच पर आते और अपनी कविता का पाठ कर उपस्थित प्रजाजनों पर अपनी विद्वता की छाप डालने को कोशिश करते पर धारानगरी के नागरिक पागल नहीं थे जो हर कवि की विचारधारा से प्रभावित हो जाते?

नायिका भेद, विप्रलम्भ, विरह गीत, अभिसार कथाओं के ऐसे-ऐसे रंगीन गीत कवियों ने एक से एक बढ़-चढ़ कर सुनाये कि कवि दरबार में शृंगार रस मूर्तिमान हो उठा। एक कवि आये और अपनी कविता में सारी शक्ति नारी के नख-शिख वर्णन में लगाकर चले गये। दूसरे ने आकर उसके काम अंगों और काम-भावनाओं का ऐसा सुरम्य किन्तु स्पष्ट वर्णन किया मानों वे एक-एक कील को जोड़कर आभूषण बनाने वाले स्वर्णकार रहे हैं। किसी कवि ने नारी के परिधानों को उपमाओं और अलंकारों से सजा डाला तो किसी ने उसे साक्षात् रति के रूप में ही गढ़ डाला। शृंगार-वादी कवियों की ही बाढ़ देखकर महाराज भोज को लगा मानो कला मर गई और यह सब उसका मुर्दा ढो रहे हों? तथापि वे कुछ बोले नहीं।

तभी आया एक युवक कलाकार रंगमंच पर। सभी कवि एक साथ चिहुँक उठे-कल का छोकरा क्या जाने काव्य किसे कहते हैं? किन्तु उसके उदात्त स्वर और आदर्शवादी काव्य प्रेरणाओं ने एक बार फिर से महाराज को आश्वस्त कर दिया कि कला के सच्चे उपासक अभी नितान्त समाप्त नहीं हुए भले ही चारणों की कितनी ही वंश वृद्धि क्यों न हो गई हो।

इतने पर भी राजकवि का चुनाव नहीं हो पाया। कविगण अपने-अपने आवासों में चले गये। उनके लिये उत्तम स्वाद युक्त भोजन, मदिरा और न जाने क्या-क्या राज भोग उपस्थित थे वे सब उन पर टूट पड़े और सुरा-सुन्दरी के ताप से झुलस-झुलस कर थोड़ी ही देर में ढेर हो गये। एक युवक कवि दीवट जलाये बैठा है। उसकी लेखनी चल रही है, उसे पता ही नहीं चला कब अर्द्धरात्रि आ पहुँची। प्रहरी ने टोका आर्य! रात्रि काफी बीत चुकी है अब आपको विश्राम करना चाहिए। युवक ने प्रहरी की ओर देखा और कहा तात! तुम क्यों नहीं सो रहे हो? इसलिए कि-प्रहरी ने उत्तर दिया-कहीं ऐसा न हो कि शत्रु अचानक हमला कर दें और राष्ट्र पराधीन हो जाये? बस यही उत्तरदायित्व मेरा भी है तात!

प्रहरी कोई उत्तर दे इससे पूर्व ही महाराज ने आगे बढ़कर कहा - तात! मुझे जिसकी खोज थी वह तुम मिल गये। आज से तुम मेरे राजकवि हो-राजकवि भास्कर।


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