सौंदर्य की पराजय

February 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कलिंग देश का छोटा सा ग्राम पर्णियाँ-पर्णियाँ का एक अपना मूर्तिकार चुँक। उस सामान्य मूर्तिकार की अपूर्व सुन्दरी कन्या ‘देवसी’ की कीर्ति राज्य भर में इस तरह व्याप्त हो रही थी जिस तरह पूर्णिमा के चन्द्रमा का धवल प्रकाश समस्त भूमण्डल में छा जाता है।

धन मद शक्ति मद की तरह सौंदर्य का अहंकार भी मनुष्य को पागल कर देता है बेचारी छोटी सी देवसी भला उससे कैसे बच पाती? पर्णियाँ ग्राम कुशल कलाकारों की बस्ती थी भगवान ने इस ग्राम में अपनी भी कला को निखारा था। कई युवक भी सौम्य और सुन्दर थे पर देवसी के मन को एक भी युवक सन्तुष्ट न कर सका वह अपने आपको उर्वशी से बढ़कर मानती और किसी भी अर्जुन से कम के साथ विवाह करने को राजी न थी।

सौंदर्य के साथ यौवन का चढ़ाव, देवसी की कान्ति दिनोंदिन और भी द्युतिमान होती गई। नील ताल की शोभा उसके सम्मुख पानी भरती थी। कलिंग का अन्तःपुर और राजकुमारियाँ देवसी का नाम सुनते चौंकती थी-राज्य भर के श्रेष्ठि सामन्तों, सत्ताधारियों और राजकुमारों तक में देवसी को पाने की प्रतिस्पर्द्धा थी किन्तु देवसी किस-किस को दुत्कार कर भगा दे इसका कुछ ठिकाना नहीं था। अब तक सैकड़ों लोगों को उसने उँगली पर नचा कर दूर फेंक दिया था अब तो लोग उसका नाम सुनते भयभीत होते थे।

एक दिन की बात है गाँव से एक अनजान युवक निकला वह किसी कामना से नहीं निकला था सत्य की शोध उसका लक्ष्य था और गुरु की खोज में वह इधर-उधर भटक रहा था चलते-चलते शाम हो गई। थकावट से चूर युवक धनंजय ने पर्णियाँ में ही विश्राम के लिए डेरा डाल दिया। देवसी के पिता चुँक ने इस युवक को भी देवसी का हाथ माँगने वाला ही समझा सो उसने अपना परिचय देना प्रारम्भ किया। उधर उसकी रूपगर्विता कन्या युवक को जितनी बार देखती हँस देती और अपनी सहेलियों से कहती? काला-कलूटा भ्रमर सौरभवती कलिका को प्राप्त करने की इच्छा करे, है न यह हास्यास्पद बात?

वृद्ध मूर्तिकार धनंजय को अपनी एक मूर्ति के पास ले गया और उसे दिखाकर वह उसकी शोभा और मूर्तिकला की बारीकियों को समझाने लगा। धनंजय हँसे और बोले - तात! मूर्तिकारी तो बस उस कलाकार की ही निर्विकार है जिसने इस संसार को बनाया है उस जैसी विज्ञता और कलाकारिता मनुष्य में कहाँ जिसने आग, पानी, वायु, मिट्टी और आकाश को मिलाकर जीवन पैदा कर दिया।

वृद्ध कलाकार चोंका - पहला युवक था जिसके लिए कलाकार के मन में मोह जागृत हुआ था और तो सब रूप के प्यासे पुतले आते थे और देवसी की रूपाग्नि में झुलस कर चले जाते थे पर आज का अभ्यागत रूप से नहीं ज्ञान से प्रभावित होना वाला था सो कलाकार जान गया कि आज की पराजय प्रतिकूल भी हो सकती है।

कलाकार एक-एक मूर्ति, मूर्तिकला के उपकरण, राजाओं द्वारा प्राप्त अलंकार और पदवियाँ दिखाता हुआ धनंजय को घर ले गया। अपनी कन्या का परिचय कराते हुए वृद्ध ने कहा-तात! यही है वह मेरी रूपवती कन्या जिसके सौंदर्य के सम्मुख राज घराने का सौंदर्य भी प्रतिहत हो चुका है।

ओह! देवसी!! धनंजय ने उसके मुख मंडल पर दृष्टि डालते हुए कहा-मैंने सुना है कि तुमने कितने ही लोगों का मान भंग किया है देवी! किन्तु तुम नहीं जानती जिस सौंदर्य को तुम अपनी सम्पत्ति समझ रही हो वह चार दिन का ज्वर मात्र है भद्रे!

ऐसे स्थान पर रहना निरर्थक है। कहकर धनंजय ने अपनी लकुट कामर उठाई और अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा। देवसी का सौंदर्य अभिमान चूर-चूर हो गया। वह युवक को पाने के लिये तड़प उठी किन्तु जब तक वह कुछ कहे, धनंजय उसकी आँखों से ओझल हो चुका था।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118