सौर परिवार जैसी रीति नीति, मानव परिवार भी अपनायें

February 1972

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समस्त ब्रह्माण्ड की कल्पना कर सकना तो कठिन है पर यदि हम अपने सौर मण्डल और उससे सम्बद्ध ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियों पर दृष्टिपात करें तो न केवल विश्व की विशालता और उसके निर्माता की महानता समझने का अवसर मिले वरन् यह भी सूझ पड़े कि इस सारी क्रम-व्यवस्था का संचालन किस आधार पर हो रहा है?

समस्त ग्रह-नक्षत्र निरन्तर क्रियाशील हैं। इस गतिशीलता पर ही उनका जीवन निर्भर है। समस्त पिण्ड अपनी धुरी पर परिक्रमा करते हैं जिसके साथ वे जुड़े हुए हैं। जिससे शक्ति प्राप्त करते हैं और जिस परिवार में बँधे रहने के कारण उन्हें सुरक्षा एवं स्थिरता प्राप्त है। वे उस केन्द्र सूर्य की भी परिक्रमा करते हैं।

इस प्रक्रिया पर ध्यान दिया जाय तो परम नियन्ता की उस इच्छा का आभास मिलेगा जिसका पालन करने के लिए सबको सहर्ष तत्पर रहना पड़ता है। ग्रह उपग्रह अपनी धुरी पर नियमित रूप से घूमते हैं। व्यक्तिगत जीवन की सुव्यवस्था, सतर्कता, नियमितता और क्रमबद्धता को ग्रहों के अपनी धुरी पर घूमने के सदृश्य समझना चाहिए, यदि यह गति न हो तो फिर उन्हें घोर दुर्गति में पड़ना पड़े। मनुष्य के लिए भी यही बात है यदि वह अकर्मण्य, अव्यवस्थित और अनियमित गतिविधियाँ अपनाये तो यह सृष्टा की इच्छा का उल्लंघन ही होगा और उसका दण्ड मिले बिना न रहेगा। क्षुद्र ग्रह कीटकों की एक ऐसी शृंखला भी इस ब्रह्माण्ड में मारी-मारी फिरती है जिन्होंने निर्धारित मर्यादा का उल्लंघन करने का दण्ड अपने अस्तित्व को छिन्न-भिन्न करने के रूप में भोगा है।

अपनी ही धुरी पर घूमते रहना-अपने ही गोरखधन्धे में उलझे रहना पर्याप्त नहीं। समाज रूपी केन्द्र का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। सभी ग्रह-अपने केन्द्र सूर्य की परिक्रमा में प्रमाद रहित तत्परता बरतते हैं। समाज के प्रति अपना कर्तव्य पालन करने के लिए भी मनुष्य को सजग और सक्रिय रहना चाहिए। सौर मण्डल के ग्रह सूर्य से बहुत कुछ प्राप्त करते हैं-यदि वह उपलब्धि बन्द हो जाय तो उन्हें मृत स्थिति में जाना पड़े। समाज का अनुदान बन्द हो जाय तो मनुष्य का एक दिन भी जीवित रहना कठिन है। सुख-सुविधायें व्यक्ति की एकाकी उपलब्धियाँ नहीं है। समाज के सहयोग से ही व्यक्ति का विकसित, सुखी और समृद्ध रह सकना सम्भव है। अस्तु उपलब्धियाँ प्राप्त करने के साथ-साथ उस केन्द्र के पोषण का उत्तरदायित्व भी उस पर आता है। सौर मण्डल का सहयोग न हो तो फिर सूर्य का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायगा। इसलिए नियति की व्यवस्था यही है कि ग्रह-सूर्य की परिक्रमा करके उसकी क्षमता बनाये रखे और सूर्य इन ग्रहों का अनेक अनुदान देकर पोषण करें। यह अन्योन्याश्रित प्रक्रिया ही सौर मण्डल की स्थिरता की रीढ़ है। जिसके टूटने का खतरा होने पर यह सारा सुन्दर सौर परिवार ही बिखर जायगा।

व्यक्ति और समाज के बीच ऐसी ही सुदृढ़ विधि व्यवस्था चलनी चाहिए। समाज का ढाँचा-व्यक्तियों को विकसित करने में समर्थ रहे और व्यक्ति समाज को प्रखर और सशक्त बनाने में निरन्तर योगदान करे। यही क्रम व्यवस्था मण्डल में चल रही है और यही क्रम व्यक्ति और समाज के संगठनों के ठीक तरह बरता जाना चाहिए।

हम कितने भाग्यशाली हैं कि चारों और बिखरी जीवनहीन या स्वल्प जीवन वाली-ऊबड़-खाबड़ ग्रह परिस्थितियों के बीच, अपनी इस सुन्दर पृथ्वी पर रह रहे हैं। जिसमें जीवन का अमृत ही हिलोरे नहीं ले रहा वरन् प्रकृति प्रदत्त ऐसी सुविधाओं का भी बाहुल्य है जो अन्य ग्रहों में उपलब्ध नहीं है। इसी पृथ्वी के वासी, सुख-सुविधाओं के उपभोक्ता होने के नाते हमारा और भी अधिक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व हो जाता है कि अपने उदार एवं सहृदय निर्माता की इच्छा का पालन करते हुए व्यक्ति एवं समाज की महान मर्यादाओं को बनाये रखने में पूरा-पूरा सहयोग करें।

अब आइए अपनी धरती सूर्य तथा सौर परिवार के सदस्यों की गतिविधियों पर दृष्टिपात करें-

7900 मील व्यास वाली अपनी पृथ्वी लट्टू की तरह अपनी धुरी में अधर आकाश में लटकी तेजी से घूम रही है। 23 घण्टे 56 मिनट में वह अपनी धुरी पर एक परिक्रमा कर लेती है जिसके फलस्वरूप दिन और रात होते हैं। किन्तु हम हैं पृथ्वीवासी जो सिद्धान्ततः तो यह बात मानते हैं पर प्रायोगिक तौर पर पृथ्वी घूमते हुये देखने में आती नहीं। अतएव मानना पड़ेगा कि केवल दृष्टिगत व्यवहार ही सत्य नहीं है विवेक और विचार की कसौटी पर खरे उतरने वाले सिद्धान्तों की भी सत्यता स्वीकार करनी चाहिये।

संसार का अणु-अणु गतिमान है। गति केवल वहाँ नहीं होती जहाँ इच्छायें और अभिलाषायें जड़ और मृत हो जाती हैं फिर यदि संसार में हर वस्तु गति कर रही हो तो हमें उस अदृश्य सत्य के कारण और गन्तव्य की भी जान पहचान करनी ही होगी। पृथ्वी अपनी परिक्रमा करके ही सन्तुष्ट नहीं। वह सूर्य के गुरुत्वाकर्षण से बँधी है और उसी के फलस्वरूप स्वयं नाचते हुये वह सूर्य की भी परिक्रमा करती है। दिन का 1/4 भाग परिक्रमा में अधिक लग जाने के कारण ही हर चौथा वर्ष लौंद वर्ष (लीप ईयर) मनाया जाता है जिसमें फरवरी 28 के बजाय 29 दिन की होती है।

यह थी अपनी पृथ्वी की बात अब और आगे चलते हैं तो सूर्य के सबसे समीप एक नवग्रह में सबसे छोटा 3000 मील वाला बुध दिखाई देता है। सूर्य से 36000000 मील दूर से सूर्य की परिक्रमा कर रहा है अपनी परिक्रमा वह 88 दिन में करता है थोड़ा सुस्त है न! अर्थात् बुध का दिन पृथ्वी के 44 दिनों के बराबर और रात भी 44 दिनों के अर्थात् 528 घण्टों के बराबर। हम एक परिस्थिति में रहने के आदी हो गये हैं इसलिये दूसरी परिस्थितियों को भी ध्यान में लायें तो इतनी लम्बी रात और इतने लम्बे दिन पर कौतूहल हुये बिना न रहे और फिर यह विचार भी उठे बिना न रहे कि क्या संसार में कोई ऐसा बिन्दु भी है जहाँ न कभी रात होती हो न कभी दिन-सम्पूर्णतः दृष्टा बिन्दु।

बुध की तरह शुक्र भी अन्तर्ग्रह है। अन्तर्ग्रह का अर्थ है जो सूर्य और पृथ्वी के मध्य स्थित है। शुक्र भी एक गतिशील पिण्ड है-रूढ़िवादी भारतीयों के समान वह अन्ध-परम्पराओं से बँधकर जीना नहीं चाहता। अपनी धुरी में 30 दिन की और अपने शक्तिदाता सूर्य की परिक्रमा वह पृथ्वी के पूरे 225 दिन में एक परिक्रमा करता है। कल्पना कीजिये वहाँ 112,1/2 दिनों की अर्थात् 3 माह 22,1/2 दिनों की रात कितनी भयंकर होती होगी भगवान ने पृथ्वी वासी के लिये कितना उपयुक्त वातावरण बनाया है प्राकृतिक सुविधायें दी हैं यह कल्पना करते ही श्रद्धा से सिर झुक जाता है बावरे तो वे लोग हैं जिनकी दृष्टि में सृष्टि की इस व्यापकता की कोई कल्पना नहीं वे अपने स्वार्थों से ही दबे मरे जा रहे हैं।

अब थोड़ा अपनी पृथ्वी से बाहर की ओर चलना चाहिये। कदाचित वहाँ में दूर तक उड़कर चलना सम्भव हो और आप सूर्य से विपरीत दिशा में उड़े तो पृथ्वी से 49000000 मील दूर एक ग्रह मिलेगा। इस ग्रह से कोई 1000 मील ऊपर ठहर जाइये तो आप देखेंगे कि वह भी घूम रहा है, अपनी धुरी पर। अपने आपकी परिक्रमा वह 24 घण्टा 37 मिनट में करता है। अर्थात् वहाँ के दिन व रातें लगभग पृथ्वी के ही समान हैं।

यह मंगल है जो सूर्य की प्रदक्षिणा 687 दिन में करता है। तो उससे आगे वाला भीमकाय ग्रह बृहस्पति जिसमें अपनी पृथ्वी की तरह की हजारों पृथ्वियाँ भरी जा सकती हैं सूर्य की परिक्रमा करने में योग 12 वर्ष का समय लेता है। इन 12 वर्षों में वहाँ का मौसम अर्थात् हरियाली रहती होगी तो पूरे 4 वर्ष तक गर्मी और 4 वर्ष तक घनघोर घटाओं की धूम। 4 वर्ष का जाड़ा सम्भव।

इतना भयानक ग्रह-पृथ्वी की इतनी परिक्रमा किन्तु स्वयं का उसका वेग कितना तीव्र होगा थोड़ा कल्पना करें कि वह कुल 9 घण्टे 5 मिनट में ही अपनी धुरी पर एक बार घूम जाता है। कुल 4 घण्टे 55 मिनट का दिन और इतने ही समय की रात। पर वह छोटी-सी रात भी कितनी विचित्र कि 12-13 चन्द्रमा एक साथ ही वहाँ उजाला फैलाते हैं।

शनि-बेचारा बुरा ग्रह माना जाता है पर सार्वभौमिक नियमों का पालन तो वह भी करता है। 10 घण्टा 14 मिनट में अपनी धुरी पर घूमने के अतिरिक्त वह 29, 1/2 वर्ष में सूर्य की भी परिक्रमा करता है। यूरेनस पृथ्वी की 84 वर्ष में तो अपनी निज की 10 घण्टा 48 मिनट में, नेपच्यून 165 वर्ष में एक बार सूर्य की प्रदक्षिणा करता है तो अपनी 15 घण्टा 48 मिनट में। प्लूटो अपनी परिक्रमा 6, 1/2 दिन में करता है तो उसकी गति कुछ ऐसी मन्द है कि अपने जीवनदाता की परिक्रमा करने में उसे पूरे 284 वर्ष लग जाते हैं।

इस महान सौर मण्डल के महान सदस्यों के अतिरिक्त कुछ ऐसे क्षुद्र ग्रह भी हैं जो ओछे और छोटे होने का परिचय निरन्तर देते रहते हैं। कभी-कभी कक्ष बदलते हैं कभी गतिविधियाँ। नियम और मर्यादाओं के उल्लंघन की चेष्टा करने में इन्हें अपनी चतुरता अनुभव होती होगी पर पाया इनने क्या? अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित प्रतिक्रिया ही इन्हें भुगतनी पड़ती। उपहासास्पद बनते हैं और क्षुद्र कहलाते हैं। प्रकृति इन्हें भी रखती तो नियन्त्रण में ही है अन्यथा वे अपने को नष्ट करें और दूसरों को संकट पैदा करे। इसलिए उन्हें छूट भी एक सीमा तक ही मिलती है। इस उपलब्ध स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके ये क्षुद्र ग्रह किस तरह अपनी गरिमा खो चले। महानता से च्युत होकर क्षुद्र परिस्थितियों में रहने लगें। इस तथ्य को यदि समझा जा सके तो मनुष्य महानता की गरिमा को ही स्वीकार करे और क्षुद्र ग्रहों जैसी दुर्दशा में पड़ने से बचा रह सके।

क्षुद्र ग्रहों की पहचान के लिये खगोल शास्त्रियों ने इनके नम्बर नियुक्त कर रखे हैं ये हैं भी वस्तुतः बहुत वाचाल, चंचल और शरारती। 433 नम्बर का क्षुद्र ग्रह ईरोस कई करोड़ मील पर है पर घूमते-घामते यह पृथ्वी के डेढ़ करोड़ मील पास तक चला आता है। 1566 नम्बर के इकारस-जिसने सन् 1968 में पृथ्वी में तहलका मचा दिया था-कहा जाता था कि उसके पृथ्वी से टकरा जाने की सम्भावना है-इस तरह का दुस्साहसी ग्रह है कि सूर्य और बुध के मध्य वाले अत्यन्त भीषण गर्म स्थान की भी परिक्रमा कर आता है।

हर्मेंस नामक ग्रह भी इकारस की तरह सन् 1937 में पृथ्वीवासियों को डरा गया था अब तो वह न जाने कहाँ चक्कर काट रहा होगा। वेस्टायों पृथ्वी से औसतन 22 करोड़ मील दूर का बौना ग्रह है पर वह भी शान्त नहीं-सूर्य की परिक्रमा करते हुये वह पृथ्वी के 10 करोड़ मील पास तक चला आता है। यह सूर्य भगवान् के आस-पास 3/1/2 वर्ष में चक्कर काट लेता है जबकि अपनी ही धुरी पर वह 10 घण्टे 45 मिनट में घूम लेता है। घूमने में हाइडाल्गों की अपनी शान है वह कभी-कभी 9 चन्द्रमा वाले शनि देवता से भी बिना डरे उनके आकाश तक घूम आता है। सूर्य स्वयं भी अपनी परिक्रमा कर अपने स्वत्व की रक्षा करता है साथ ही विराट परमात्मा के प्रति अपनी निष्ठा की अभिव्यक्ति के लिये वह अपने समस्त परिवार के साथ दण्डवती परिक्रमा के लिये निकला हुआ है। यह विराट की परिक्रमा वह 25 करोड़ वर्ष में पूरी करता है इसके लिए उसे प्रति सेकेंड दो सौ मील की गति से चलना पड़ रहा है जब कि वह अपनी धुरी का चक्कर भी 25 दिन 7 घण्टे और 48 मिनट में लगाता चल रहा है।

न केवल सूर्य वरन् विराट् ब्रह्माण्ड का हर पिण्ड गतिशील है। हमारा सूर्य जिस आकाश गंगा से जीवन ले रहा है वह और उससे दूर की आकाश गंगायें भी प्रकाश की सी भयंकर गति से कहीं जा रही हैं। समस्त सृष्टि का उद्गम किसी एक ही बिन्दु से हुआ वहीं अनन्त ब्रह्माण्ड की नाभि-होगी। विराट् चेतना भी उसी का अंश है उस सार्वभौमिक चेतना के दर्शन ही जब निर्जीव ग्रहों के लक्ष्य हैं तो मानवीय चेतना उसे जानने पहचानने की चेष्टा क्यों न करे?

आकाशस्थ ग्रह नक्षत्र मात्र हीरे, मोती जैसी शोभा सुषमा ही नहीं बखेरते वे महत्वपूर्ण शिक्षण भी देते हैं। यदि उस शिक्षण को हृदयंगम किया जा सके तो हम भी एक ज्योर्तिमय पिण्ड की तरह अपने अस्तित्व को सफल बना सकते हैं और नियन्ता की इच्छा पूरी कर सकते हैं।


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