एक बार कुछ विरोधी महात्मा ईसा को असमंजस में डालकर नीचा दिखाने के इरादे से एक ऐसी स्त्री को पकड़कर उनके पास ले आये जिस पर व्यभिचार का दोष लगाया था। यहूदियों के शास्त्रानुसार दुराचारिणी स्त्री को सार्वजनिक रूप से पत्थर मार-मारकर मार डाला जाता था।
विरोधी सोचते थे कि यदि ईसा अपने दया-करुणा, क्षमा के सिद्धाँत के अनुसार यदि स्त्री को छोड़ देने के लिए कहेंगे तो उन पर शास्त्राज्ञा के उल्लंघन का दोष लगायेंगे और यदि वे इस दोष से बचने के लिए उसे मारने का समर्थन करेंगे तो उनकी दया आदि ढोंग करने वाला धूर्त प्रसिद्ध करेंगे।
उन्होंने आकर ईसा से पूछा-आप इस व्याभिचारिणी के विषय में क्या व्यवस्था देते हैं। ईसा एक क्षण चुप रहकर बोले-व्यवस्था क्या देना? इसे तो पत्थर मारे ही जाने चाहिएं, किन्तु शर्त यह है कि पहला पत्थर वही मारे जो स्वयं निष्पाप हो। क्योंकि पापी को निष्पाप ही दण्ड दे सकता है।
विरोधियों के होश उड़ गये और वे हाथों के पत्थर फेंककर खिसक गये। ईसा ने स्त्री के बन्धन खोलकर कहा—जा बेटी! अब कभी गलत काम न करना।