मानव-जीवन का प्रादुर्भाव और 84 लाख योनियाँ

February 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विकासवाद के सिद्धाँत के समर्थकों में प्रसिद्ध वैज्ञानिक हीकल्स भी आते हैं। वे भी यह मानते हैं कि मनुष्य शरीर का विकास एक कोषीय जीव (प्रोटोजोन्स) से हुआ। पहले अमीबा, अमीबा से स्पंज, स्पंज से हाइड्रस फिर जेलीफिश मछली, मेंढक, साँप, छिपकली, चिड़िया, घोड़े आदि से विकसित होता हुआ आदमी बना। इसके लिए (1) जीवों के मिले अवशेषों (2) विभिन्न प्राणियों की शारीरिक बनावट के तुलनात्मक अध्ययन, (3) थ्योरी आफ यूज एण्ड डिसयूज (अर्थात् जिस अंग का प्रयोग न किया जाए, वह घिसता और नष्ट होता चला जाता है, उदाहरण के लिए पहले मनुष्य पेड़ों पर रहता था। उछल कर चढ़ने के लिए पूँछ आवश्यक होती है तब मनुष्य को पूँछ थी यह इसका निशान ‘टेल वरटिब्रो’ के रूप में अभी भी शरीर में है। पर जब मनुष्य पृथ्वी पर रहने लगा, पेड़ों पर चढ़ने की आवश्यकता न पड़ी तो पूँछ का प्रयोग भी बंद होता गया और वह अपने आप घिस गई) इन तीन उदाहरणों से यह सिद्ध किया जाता है कि मनुष्य शरीर विकसित हुआ है।

किन्तु एक शरीर से दूसरे शरीर के विकास का समय इतना लंबा है कि उन परिवर्तनों को सही मान लेना बुद्धि संगत नहीं जान पड़ता। प्रकृति के परमाणुओं में भी ऐसी व्यवस्था नहीं है कि एक बीज से दूसरे बीज वाला पदार्थ पैदा किया जा सके, भले ही उसके लिए भिन्न प्रकार की जलवायु प्रदान की जाये। जलवायु के अंतर से फल के रंग आकार में तो अंतर आ सकता है पर बीज के गुणों का सर्वथा अभाव नहीं हो सकता।

‘सेल फिजियोलॉजी ग्रोथ एण्ड डेवलपमेन्ट्स’ विभाग कार्नेल यूनिवर्सिटी के डाइरेक्टर डॉ. एफ सी स्टीवर्ड ने एक प्रयोग किया। उन्होंने एक गाजर काटी। उसका विश्लेषण करके पाया कि वह असंख्य कोशिकाओं (सेल्स) का बना हुआ है। इन सभी कोशिकाओं के गुण समान थे। कुछ कोशिकायें निकालकर काँच की नलियों में रखीं। खाद्य के रूप में नारियल का पानी दिया। कोशिका जो संसार में जीवन की सबसे छोटी इकाई होती है, जिसके और टुकड़े नहीं किये जा सकते। वह इस खाद्य के संसर्ग में आते ही 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8 अनुपात में बढ़ने लगीं और प्रत्येक कोष ने एक स्वतंत्र गाजर के वृक्ष का आकार ले लिया।

इस प्रयोग से दो बातें सामने आती हैं- (1) कोष अपने भीतर की शक्ति बढ़ाकर अपनी तरह के कोष बना सकते हैं (2) किन्तु नई जाति का कोष बना लेना किसी अन्य कोष के लिए संभव नहीं, यदि ऐसा होता तो नारियल के पानी के आहार के साथ गाजर का कोष किसी अन्य प्रकार के वृक्ष और फल में बदल गया होता। प्रकृति की यह विशेषता विकासवाद के साथ स्पष्ट असहमति है। एक कोषीय जीव (प्रोटोजोआ) से मनुष्य का विकास तथ्य नहीं रखता। जोड़ गाँठ करके बनाया गया तिल का ताड़ मात्र है।

‘थ्योरी आफ यूज एण्ड डिस्यूज’ की बात में तो भी कुछ दम है, उससे इच्छा शक्ति की सामर्थ्य का पता चलता है। यदि हमारे मस्तिष्क में किसी जबर्दस्त परिवर्तन की आकाँक्षा हो तो निश्चय ही वह कोषों के संस्कार सूत्रों (जीन्स कोष में बटी हुई रस्सी की तरह का अति सूक्ष्म अवयव जिस पर कोष के विकास की सारी संभावनायें और भूत का सारा इतिहास संस्कार रूप में अंकित रहता है, को बदल सकता है। यदि संस्कार सूत्र (जीन्स) बदल जायें तो नये बीजों में परिवर्तन आ सकता है पर यह सब चेतन इच्छा शक्ति के द्वारा ही संभव है, किसी वैज्ञानिक प्रयोग से नहीं।

इस बात से जहाँ विकासवाद के सिद्धाँत का खंडन होता है, वहाँ 84 लाख योनियों में भ्रमण और कर्मफल की बात भी सत्य जान पड़ती है। हम देखते हैं कि मनुष्य की इच्छा शक्ति का कभी अंत नहीं होता। मृत्यु के समय एक या अनेक इच्छायें बलवान हो उठती हैं, उसके अनुरूप ही संस्कार सूत्र (जीन्स) में परिवर्तन आ जाता है। जीन्स कभी नष्ट नहीं होते, यदि किसी तरह उनमें चेतना का अंश सिद्ध किया जा सके तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अपनी इच्छाओं के वश में बंधा हुआ होने के कारण ही मनुष्य दूसरी-दूसरी योनियों में भटकता रहता है।

अंतिम इच्छाओं के अनुसार परिवर्तित जीन्स जिस जीव के जीन्स से मिल जाते हैं, उसी ओर ये आकर्षित होकर वही योनि धारण कर लेते हैं। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद वह फिर मनुष्य शरीर में आता है। गर्भोपनिषद् में इस बात की पुष्टि हुई है।

पूर्व योनि तहस्त्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया। आहारा विविधा मुक्ताः पीता नानाविधाः। स्तनाः………………………...। स्मरति जन्म मरणानि न च कर्म शुभाशुभं विन्दति॥”

अर्थात्- उस समय गर्भस्थ प्राणी सोचता है कि अपने हजारों पहले जन्मों को देखा और उनमें विभिन्न प्रकार के भोजन किये, विभिन्न योनियों के स्तन पान किये। अब जब गर्भ से बाहर निकलूँगा, तब ईश्वर का आश्रय लूँगा। इस प्रकार विचार करता हुआ प्राणी बड़े कष्ट से जन्म लेता है पर माया का स्पर्श होते ही गर्भ ज्ञान भूल जाता है। शुभ अशुभ कर्म लोप हो जाते हैं। मनुष्य फिर मनमानी करने लगता है और इस सुरदुर्लभ शरीर के सौभाग्य को गंवा देता है।

सौभाग्य से हीकल्स की अपनी व्याख्या से ही इस बात का समर्थन हो जाता है। उन्होंने भ्रूण-विज्ञान में एक प्रसिद्ध सिद्धाँत दिया—“आन्टोजेनी रिपीट्स फायलोजेनी” अर्थात् चेतना गर्भ में एक बीज कोष में आने से लेकर पूरा बालक बनने तक, सृष्टि में या विकासवाद के अन्तर्गत जितनी योनियाँ आती हैं, उन सब की पुनरावृत्ति होती है। प्रति तीन सेकिंड से कुछ कम के बाद भ्रूण की आकृति बदल जाती है। स्त्री के प्रजनन कोष में प्रविष्ट होने के बाद पुरुष का बीज कोष 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8, 8 से 16, 16 से 32, 32 से 34 कोषों में विभाजित होकर शरीर बनता है।

इन भावनात्मक परिस्थितियों को हम समझते कहाँ हैं? बौद्धिक दृष्टि से परावलम्बी हम भारतीयों को तो अब पाश्चात्य विद्वानों ओर वैज्ञानिकों की बातें अधिक प्रामाणिक लगती हैं। भले ही उनके विचार-चिन्तन की दिशा एकाँगी हो। वही तथ्य जब हमारे सिद्धान्त पुष्ट करते हों, तब भी हम अपने दर्शन अपनी धार्मिक मान्यताओं से बिलकुल आँखें मूँदे रहें, इससे बढ़कर दुर्भाग्य हमारे लिये और क्या हो सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles