सुख-दुख में एक समान

February 1970

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चन्द्रचूड़ ने तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया। पीछे घर में धर्मपत्नी सौदाम, एक पुत्र, एक पुत्री और भृत्य रह रहे थे, सो चन्द्रचूड़ ने धन घर में रखना उचित न समझा। उन दिनों नगर में देवनिपुण की साधुता घर घर सराही जा रही थी, सो चन्द्रचूड़ ने अपना धन उसी को सौंप जाने का निश्चय किया।

तीर्थयात्रा पर चलने से पूर्व चन्द्रचूड़ ने देवनिपुण के पास आकर वह पोटली दी और लौटने तक उसे अपने पास सुरक्षित रखने की याचना की। चन्द्रचूड़! देवनिपुण ने कहा- ‘तुम धर्म कार्य सम्पन्न करने जा रहे हो, इसलिए तुम्हारी सहायता करना मेरा धर्म है, अन्यथा पराया धन अपने पास रखना बड़ा ही अहितकर होता है। चाहे वह ऋण के रूप में हो या सुरक्षा के लिए।’

चन्द्रचूड़ हर्षित हो यात्रा पर निकल गया। देवनिपुण ने मुद्राओं की थैली एक टूटे बक्से में डाल दी और अपने काम में लग गया।

बहुत दिन बीते चन्द्रचूड़ यात्रा समाप्त कर घर लौटे। सबकी कुशल-मंगल देखने के बाद उसे अपने धन का ध्यान आया। सो वह अपने सब काम छोड़कर सर्वप्रथम देवनिपुण के घर की ओर चल पड़ा।

देवनिपुण दरवाजे पर बैठे थे। जैसे जाते समय प्रसन्न चित्त छोड़ गया था, चन्द्रचूड़ को आज भी देवनिपुण में वैसी ही प्रसन्नता दिखाई दी। उसे एक बार तो ऐसा लगा जैसे तीर्थ बाहर नहीं मनुष्य के शरीर में ही भरे पड़े हैं। आत्म-सन्तोष, संयम, दया, करुणा यह तीर्थ ही तो है, जो इनके दर्शन स्पर्श का लाभ पा गया वह सचमुच ही जीवित ही मुक्ति पा गया।

कुशल-क्षेम हुई, फिर चन्द्रचूड़ ने अपना धन माँगा। उसी टूटी संदूक में पड़ी हैं तुम्हारी मुद्रायें, भाई चन्द्रचूड़ मैंने तो उन्हें देखा भी नहीं, जाओ और उठा ले आओ। अनासक्ति! एक बार तो चन्द्रचूड़ भारी प्रभावित हुआ। उसे लगा मनुष्य जीवन में साधुता और ईश्वर भक्ति से बढ़कर सुख नहीं, पुण्य नहीं। वह फिर सन्दूक की ओर गया पोटली उठाई, रुपये गिने। कुछ विस्मय हुआ, रुपये फिर गिने, विस्मय सही था सौ स्वर्ण मुद्राएं कम थी। लोभ-वृति और धनासक्ति में इतनी प्रबल शक्ति होती है कि वह उचित-अनुचित का विवेक भी नहीं रहने देती। मुद्रायें कम हैं तो निश्चित ही देवनिपुण ने चुराई होंगी। यह निश्चित समझकर यह देवनिपुण को बुरा-भला कहने लगा और उतनी धन-राशि लौटाने के लिए अड़ भी गया।

देवनिपुण बिना किसी क्षोभ या मनोमालिन्य के हंसे और बोले- ‘अरे भाई चन्द्रचूड़! गिनने में भूल हुई होगी। मुझे तो तुम्हारे पैसों का ध्यान भी नहीं रहा। देवनिपुण की प्रसन्नता और उसकी विषादयुक्त मुद्रा देखकर चन्द्रचूड़ की आशंका मानो और भी वेगवती हो उठी। उसने देवनिपुण को डांटा फटकारा ही नहीं कुछ साथियों को बुलाकर पीटा भी। देवनिपुण को और कोई दुख न था। था तो कुल इतना ही कि भविष्य में इससे सामाजिक जीवन में अविश्वास का भाव पनप उठेगा, अन्यथा उसे अपने कर्त्तव्य के लिए अब भी संतोष था।

अन्ततः हारकर चन्द्रचूड़ घर गया। पत्नी ने देर से आने का कारण पूछा। जब चन्द्रचूड़ ने सारी घटना सुनाई तो सौदाम के दुख का पारावार न रहा। उसने पति के पैर पकड़कर क्षमा माँगते हुए कहा-‘आपने देवनिपुण को अकारण दण्ड दिया। आवश्यक समझकर उतनी मुद्रायें तो मैंने ही निकाल ली थीं।’

चन्द्रचूड़ पश्चाताप से भर गया। उल्टे पाँव देवनिपुण के पास लौटा तो देखा कि वह तब भी गीत गा रहे थे और प्रसन्न चित्त थे। उसने देवनिपुण से अपनी भूल की क्षमा माँगी पर देवनिपुण के मुख पर तब भी किसी प्रकार की विजय या अभिमान का भाव नहीं आया। चन्द्रचूड़ ने अनुभव किया, जो सुख और दुख, यश और अपयश सबमें एक समान रहते हैं वस्तुतः वही सन्त हैं, साधु हैं।

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