लघुतम से महत्तम-महत्तम से विराट्तम

February 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विचार न करने भर की भूल है अन्यथा मनुष्य और छोटे-छोटे एक कोषीय जीव अमीबा या हाइड्रा में कोई अंतर नहीं। प्रकाश रूप आत्मा की लघुतम सत्ता में भी विराट् विश्व संव्याप्त है।

स्त्री के प्रजनन क्षेत्र में भी विशेष प्रकार के जननेन्द्रिय कोष (ओवम) पाये जाते हैं। प्रत्येक पन्द्रहवें दिन दायें या बायें और स्त्री के काम-अवयव (सेक्स-आर्गन) जिसे ‘ओवरी’ कहते हैं, में एक जननेन्द्रिय कोष प्रकट होता है। वहाँ से निकलकर ‘फिभ्रिएटेड एण्ड’ जो एक पंजे की शक्ल का अवयव होता है, उसमें चला जाता है यहाँ से चलकर वह गर्भाशय की भीतरी दीवाल से चिपक जात है, जब तक कामेच्छा नहीं होती, मासिक धर्म के साथ ओवम-कोष खुलकर बाहर निकल जाता है, किन्तु यदि काम की इच्छा हो और स्त्री को पुरुष का संयोग मिले तो यह संभव है कि पुरुष का एक वीर्य-कोष (स्पर्म) गर्भाशय में जाकर ओवम से मिल जाये। ओवम और स्पर्म का मिलना ही गर्भाधान कहलाता है।

पुरुष शरीर का वीर्य-कोष (स्पर्म) मछली के बच्चे जैसी आकृति का होता है किन्तु उसे नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता। परमाणु का सैद्धान्तिक व्यास 0.00000001 मिलीमीटर होता है, जबकि उसके नाभिक का व्यास 0.00000000001 मिलीमीटर होता है। इनका ही अध्ययन करने के लिए शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्रों (माइक्रोस्कोप) की आवश्यकता होती है तो इनसे भी लघुतम आकार के मानव प्रजनन कोषों को तो बिना न्यूक्लियर माइक्रोस्कोप के देख पाना भी संभव नहीं। लघुतम होकर भी वीर्य-कोष का सुनिश्चित आकार होता है। सबसे ऊपर त्रिपार्श्व, फिर एक अण्डाकार पिण्ड और उसमें भी पूँछ। यह है, मनुष्य शरीर का आधार। कितना लघुतम रूप पर कितनी शक्तिशाली सत्ता। एक मुर्दा परमाणु में 27 लाख किलो कैलोरी ऊर्जा हो सकती है, तब इस जीवन परमाणु की शक्ति का तो कहना ही क्या। यदि मनुष्य इस लघुता का चिन्तन कर सका होता तो यह शक्ति को एक अत्यन्त शुद्ध और विशाल अवस्था में होता। अज्ञानता का दम्भ और अहंकार तो स्वयं उसी के लिए कष्टदायक सिद्ध होता है। अहंकार के वशवर्ती मनुष्य अपने घर, पास-पड़ोस वालों से भी मैत्री बनाये रख पाता। यदि वह अपनी इस सूक्ष्मता का चिन्तन कर सका होता, तब उसे सृष्टि के छोटे से छोटे जीव और जर्रे-जर्रे में अपनी ही प्रतिच्छाया दिखाई देती, तब न किसी के साथ द्वेष होता न दुर्भाव। शक्ति, क्रियाशीलता, संतोष और आनन्द की विभूतियों से आच्छादित हो गया होता।

‘अमीबा’ के अध्ययन से यह निश्चित हो गया है कि जीवन की प्रणाली नाभिक में ही है और वह शक्ति रूप में है, उसका कोई आकार नहीं है। एक अमीबा का नाभिक है, उसका कोई आकार नहीं है। एक अमीबा का नाभिक साइटोप्लाज्म (नाभिक के अतिरिक्त कोष में जल वायु, गैस खनिज आदि जो भी कुछ होता है, वह सब साइटोप्लाज्मा कहलाता है) का कुछ अंश लेकर दो अमीबाओं में बदल जाता है, दोनों की आकृति स्वभाव भिन्न-भिन्न हो जाते हैं, लगता है वे दोनों अलग-अलग विचार प्रणाली के रूप में जन्में हों। एक ही विचार प्रणाली या केन्द्रीभूत सत्ता का अनेक रूपों में विभक्त होना ऐसा ही है। वस्तुतः चेतना सारे विश्व में एक ही है। उस विश्व-व्यापी चेतना को जब हम एक महत् इकाई के रूप में देखते हैं तो वही सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी ईश्वर के रूप में दिखाई देने लगता है। सविता के रूप में वही आत्मा मनुष्य और कीड़े-मकोड़ों के जीवन में वही जीव कहलाता है। तीनों अवस्थायें विराट से सूक्ष्म और सूक्ष्म से विराट। इसी विद्या का अवगाहन कर हम भारतीय भी योगी, दृष्टा, ऋषि और महर्षि हो गये थे। ज्ञान के पुँज थे, शक्ति के पुँज थे हम, और उसका एकमात्र आधार यह तत्व-दर्शन ही था जिसने हमें असीम से असीम बना दिया था।

जिस प्रकार एक अमीबा उपरोक्त विधि द्वारा अनेक अमीबाओं में बदल सकता है, उसी प्रकार स्त्री के गर्भाशय में पहुँचा हुआ, आत्म-चेतना कण या वीर्य-कोष अपना विस्तार प्रारंभ करता है। एक वीर्य कोष टूटकर दो हो जाते हैं। इस क्रिया में कोष की अन्तःप्रेरणा काम करती है। फिर दो कोष विभक्त होकर चार बन जाते हैं। चार-आठ, आठ-सोलह, सोलह-बत्तीस। इस क्रम में यह कोष ही बढ़ते और पकते रहते हैं। प्रारंभ में इनकी स्थिति शहतूत के फल की सी होती है। फिर एक प्लेट और प्लेट से ट्यूब की शक्ल बनती है, यह ट्यूब आकृति ही तीन स्थानों से मुड़कर मस्तिष्क के तीन भाग (1) अग्रभाग (2) मध्य मस्तिष्क (3) पिछला मस्तिष्क बन जाते हैं।

कोषों का बनना अभी भी जारी रहता है, मुख्य कोष माँ के शरीर से पोषण लेकर प्रत्येक कोष के लिये शारीरिक प्रकृति (साइटोप्लाज्मा) भाग जुटाता रहता है, जब अनेक कोष एकत्र होते हो जाते हैं तो फिर सुषुम्ना शीर्षक (स्पाइनल कार्ड) बनना प्रारंभ होता है और इस तरह नीचे का शरीर बनता हुआ चला जाता है। यह कोष प्रत्येक स्थान की परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप मुड़ते, सीधे होते, कड़े और कोमल होते चले जाते हैं और इस प्रकार नौ महीने की अवधि में एक विकसित बच्चा बन जाता है।

आठ, दस पौण्ड वजन का बालक सौ पौण्ड के मनुष्य में बदल जाता है। कुछ ईश्वर की लीला ऐसी ही विचित्र है अन्यथा जो चेतनता इस मनुष्य शरीर में है, वही उस एक मूल कोष में थी और वह अपने आप में एक पूर्ण संसार था। मनुष्याकृति में एक विस्तृत और वैज्ञानिक क्षमताओं में परिपूर्ण शरीर देने का उद्देश्य तो यही था कि मनुष्य स्थूल और सूक्ष्म-ज्ञान और अज्ञान, यथार्थ और अयथार्थ के लक्ष्य को अच्छी तरह समझेगा, किन्तु दुर्भाग्य मनुष्य का कि वह शरीर के साथ अपनी आत्मिक चेतना को भी सूक्ष्म बनाता चला जाता है। इस तरह उसकी शक्तियाँ भी अपवित्रता के अंधकार में छुपती चली जाती हैं और जीवन मुक्ति, शाश्वत लक्ष्य प्राप्ति जैसे लक्ष्य से वह वंचित होता हुआ चला जाता है।

आत्मा की सूक्ष्मता अनन्त है, उसी तरह उसकी शक्तियाँ भी अनन्त हैं पर उसे यों ही यंत्रों से नहीं पाया जा सकता। आत्मा ज्ञान है, आत्मा विचार से और अनुभव से ही पाया जा सकता है। योगी लोग ध्यान और नाटक के द्वारा विभिन्न प्रकार के प्राणायाम, आसन और हठधर्मी साधनाओं द्वारा उसका साक्षात्कार करते हैं तो ज्ञानी जन उसे तत्व रूप में चिंतन करके प्राप्त करते हैं, दोनों ही अवस्थाओं में उसकी सूक्ष्मता तक पहुँचना अनिवार्य है। शास्त्रकार ने श्वेताश्वेतरोपनिषद् में बताया है-

अँगुष्ठमात्रो रवितुल्य रुपः संकल्प अहंकार समन्वितो यः। बुद्धेर्गुणेनात्म गुणेन चैव अराग्रमात्रो ह्यपरोऽपि दृष्टाः॥

बालाग्रशत भागस्य शतधा कल्पितस्य च। भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते। नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः। यद् यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते॥

-5/8/10

अर्थात्- जो अंगुष्ठ मात्र संकल्प, विकल्प युक्त तथा बुद्धि के गुण में अपने श्रेष्ठ कर्मों के गुण से सुई के अग्रभाग जैसे आकार वाला हो गया है। ऐसी सूर्य के समान तेजस्वी आत्मा भी ज्ञानियों ने देखी है। बाल के अग्रभाग के सौवें भाग के भी सौवें भाग जितने छोटे अस्तित्व वाला भाग ही प्राणी का स्वरूप जानना चाहिए। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म गुण वाली आत्मा ही असीम गुणों वाली हो जाती है।

चेतना मनुष्य के शरीर के रूप में विकसित होकर परमाणु से भी बड़ी दिखाई देने लगी, यह उसका महत्तम रूप है और परमात्मा ने यह किसी विशेष हेतु से किया है। हम सब आनन्द की खोज में हैं, उस आनन्द की परिभाषा कर पाना दूसरे जीवों के लिए कठिन है, क्योंकि उनमें बुद्धि विवेक की ऐसी क्षमता नहीं, जैसी मनुष्य में, मनुष्य चाहे तो इस शरीर की विज्ञानमय शक्तियों का प्रयोग करके अपने महत्तम रूप और सौभाग्य को विश्वात्मा, विराट शरीर में विकसित कर सकता है। यही स्थिति जिनमें मनुष्य को न तो कोई अभाव हो, न अज्ञान, अशक्ति हो, न अक्षमता सबसे अधिक आनन्द उल्लास और सामर्थ्य से परिपूर्ण हो सकती है।

अक्टूबर 68 के अंक में एक लेख छपा था कि वैज्ञानिकों ने जब सूक्ष्मदर्शी की सहायता से कोष को देखा तो उनकी आंखें फटी की फटी रह गईं, उन्होंने देखा उसमें असंख्य नदियाँ, हिमालय के समान पर्वत सूर्य जैसी चमक वाले नक्षत्र और अपार सावन-सम्पत्तियों के भाण्डागार। यदि कोई ऐसी मशीन हो जिसे शरीर के किसी उपयुक्त केन्द्र-स्थान में लगाकर संपूर्ण 56 अरब कोशिकाओं को देखा जाना संभव हो तो उस विराट को देखकर खड़ा भी रह सकेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। उसमें करोड़ों सूर्य, अरबों नक्षत्र, लाखों पर्वत, करोड़ों नदियाँ और न जाने क्या-क्या होगा। भगवान कृष्ण ने योग-शक्ति से अर्जुन को इसी विराट के दर्शन कराये थे और वह काँप गया था। भयभीत होकर उसे आंखें ही मूँदनी पड़ी थीं।

इस शक्ति, इस अहंकार, इस विराट को विकसित करने का श्रेय हम भारतीयों को है। हमने ध्यान प्रणाली और योगाभ्यास द्वारा विचार, चिन्तन और संकल्प प्रणाली को जीत लिया है। चेतना की पीठ पर खड़े होकर जब हमने अपने शरीर के भीतर देखा तो यही विराट जगत अपने में दिखाई दे गया। इस निखिल ब्रह्मांड में बिखरे पड़े हैं ‘प्राण मेरे’ का गीत फूट पड़ा था। इस विराट की अनुभूति कर सकना मनुष्य के लिए संभव हो तो वह इसी शरीर से आत्म-कल्याण की भूमिका सम्पादित कर सकता है। दूसरे शरीरों में तो उसे कर्मफल भोगने पड़ते हैं और यदि वह मनुष्य शरीर की उपयोगिता नहीं अनुभव करता, अमानवीय कृत्य करता है तो उन्हें भोगता भी रहता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles