हम असत्य का आश्रय न लें

February 1970

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लोकापवाद के भय से असत्य का आश्रय लेना एक ऐसा दोष है, जो मनुष्य को नैतिक पतन की ओर ले जाता है। मनुष्य से भूल हो जाना कोई अपराध बन पड़ना आश्चर्यजनक नहीं है। अज्ञान अथवा असावधानी के कारण ऐसा हो जाता है। अपराध निश्चय ही अपराध है। उसको मान्यता नहीं दी जा सकती। तथापि क्वचित् प्रायश्चित से उसका परिमार्जन हो सकता है। पर जब मनुष्य अपने उस अपराध को छिपाने के लिए असत्य का आश्रय लेता है, तब वह अपराध और भी जघन्य हो जाता है। साधारण दोष भी पाप में बदल जाता है।

जान-अनजान में कोई अपराध अथवा पाप बन पड़े तो उसे झूठ बोलकर अथवा मिथ्या व्यवहार कर छिपाने की भूल नहीं करनी चाहिए। यदि उसे जन-साधारण पर न भी प्रकट किया जाए तब भी अपने हितैषी गुरुजनों पर उसे प्रकट ही कर देना चाहिए। इससे कई बड़े-बड़े लाभ होते हैं। एक तो यह कि प्रकट हो जाने से पाप की पीड़ा कम हो जाती है। छिपाने के लिए असत्य अथवा छल का आश्रय नहीं लेना पड़ता। सबसे बड़ी बात यह है कि गुरुजन उसका प्रायश्चित तो बतलाते ही हैं, साथ ही अपनी शिक्षा, उपदेश, निर्देश अथवा परामर्श द्वारा पाप प्रवृत्ति के दमन की प्रेरणा देते हैं, जिससे कि आगे का जीवन अधिकाधिक निष्कलुष हो जाता है। गुरुजनों पर पाप प्रकट करने से अपवाद, उपहास अथवा जग हंसाई का भय नहीं रहता। वे तो जन-मानस के उत्तरदायी वैद्य होते हैं। उनका काम, पीड़ित का उपचार करना होता है, उपहास करना नहीं।

आधार कोई भी हो और कोई भी कारण क्यों न हो, असत्य का आश्रय लेना ठीक नहीं। असत्य स्वयं में ही एक बहुत बड़ा पाप है। मानव-जीवन की आधार-शिला सत्य पर ही अवस्थित है। असत्य तो उसका विरोधी भाव है। मानव-जीवन जहाँ स्वयं भी एक सत्य है, वहाँ उसका लक्ष्य भी सत्य ही है। इसलिए अधिकाधिक सत्य को आश्रय करके ही जीवन की व्यवहार विधि निर्धारित करनी चाहिए।

असत्य को अपनाना नास्तिकता को प्रश्रय देना है। ईश्वर का विरोध करना है। ‘सत्यंह्येव ब्रह्म’। सत्य ही ब्रह्म है। इस दशा में जो सत्य के विपरीत जाता है, वह परमात्मा से विमुख होता है। मानव-जीवन का यथार्थ लक्ष्य परमात्मा को जानना और पाना है। उसके उपायों में सत्य को सबसे बड़ा उपाय बतलाया गया है। धर्माचरण से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है और उस धर्म का सार सत्य में निहित है-महाभारत के शाँति पर्व में एक स्थान पर कहा गया है-

नास्ति सत्यात्परो धर्मो, नानृतात्पातकं परम। श्रुतिर्हिं सत्यं धर्मस्य तस्मात्सत्यं न लोपयेत्॥

सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं। असत्य से बढ़कर कोई पातक नहीं। सत्य ही धर्म का आधार है। अतएव सत्य का परित्याग कभी भी नहीं करना चाहिए।

सत्य का परित्याग कर देने वाले जीवन जगत् के मूल तथ्य से ही परे चले जाते हैं। वे असत्य के भ्रम के और अज्ञान के गहरे अंधकार में भटकते हुए अपने बहुमूल्य जीवन को नष्ट करते रहते हैं। असत्य दोष से दूषित धर्माचरण भी कोई फल नहीं लाता। मिथ्या साधक जीवन भर साधना, जप, अनुष्ठान आदि में लगे रहते हैं। पर उनके हाथ कुछ भी नहीं आता। उनकी सारी साधना, सारी तपस्या और सारा धर्माचरण यहाँ तक कि सारा जीवन ही व्यर्थ चला जाता है। बाद में वे सोचते और पछताते हैं कि ऐसी क्या कमी रह गई कि साधना का कोई लाभ नहीं हुआ। इस निराशा में वास्तविकता यह होती है कि वे इस आप्त वचन को नहीं जानते-

सत्यं ब्रह्म तपः सत्यं, सत्यं विसृजते प्रजाः। सत्येन धार्यते लोकः स्वर्गं सत्येन गच्छति॥

सत्य ही ब्रह्म है, सत्य ही तप, सत्य से ही सृष्टि उत्पन्न होती है। सत्य ही इस पृथ्वी को धारण किए हुए है। सत्य से ही स्वर्ग प्राप्त होता है।

इतने महनीय महत्व का तत्व-सत्य छोड़कर जो साधना की जाएगी, उसका निष्फल हो जाना स्वाभाविक ही है। सारे श्रेयों का मूल सत्य ही है। जब उसका परित्याग कर साधना में निरत हुआ जाएगा तो वह एक विडम्बना के सिवाय और क्या सिद्ध हो सकती है। सामान्य जीवन में ही नहीं, सत्य का महत्व तो आध्यात्मिक जीवन में और भी अधिक है। जो आध्यात्मिक जीवन में उतरता है, वह मानों एक प्रकार से सत्याचरण करने की प्रतिज्ञा करता है। अध्यात्मवाद और सत्य समानार्थी शब्द हैं। अध्यात्मवादी बनकर भी जो असत्य को अपनाता है। वह एक सामान्य व्यक्ति से बढ़कर पाप करता है। सत्य या तप करने से अच्छा है कि किसी तप में न होकर सत्य को ही अपना लिया जाए। सत्य स्वयं में ही बहुत बड़ा तप है। उसका महत्व बतलाते हुए कहा गया है-

अश्वमेध सहस्रं च सत्यं तुलया धृतम्। अश्वमेध सहत्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते॥

सहस्र अश्वमेध के पुण्य को एक ओर और सत्य को एक ओर तुला पर रखा जाए तो सहस्र अश्वमेध की अपेक्षा सत्य विशिष्ट बैठेगा।

अध्यात्म की सिद्धि- परमात्मा की प्राप्ति जीवन में सत्य को आश्रय दिए बिना नहीं हो सकती। हम सत्य बोलें, सत्य के अनुसार ही विचार करें, सत्य से प्रकाशित कर्म करें और सदा-सर्वदा सत्य-परायण होकर व्यवहार करें तो निश्चय ही एक इस ही जन्म में परमात्मा की प्राप्ति कर सकते हैं। एक सत्य का ही आश्रय ले लेने पर फिर किसी और तप आदि की आवश्यकता नहीं रहती। महापुरुषों ने अपने जीवन के जिन अनुभवों को संसार को दिया है, उनमें सत्य को ही प्रथम स्थान-प्रदान किया है।

मन-वचन और कर्म से सत्य का आचरण करने वाला निश्चय ही एक महान् तपस्वी होता है। सच्चा तप क्या है? किसी सत्-व्रत का निरन्तर निर्वाह। सत्-व्रतों की गणना में सत्य सर्वश्रेष्ठ व्रत है। इस व्रत का समुचित निर्वाह करने वाला सहज ही भवसागर में पार हो जाता है। उसके द्वारा पालित सत्य स्वयं ही नौका रूप बनकर उसका संतरण कर देता है। सत्य की साधना से आत्मा में आप्त तेज का विकास होता है। साधक का व्यक्तित्व सुखद और प्रभावशाली बनता है। संसार में जितने भी आत्मज्ञानी और तत्वदर्शी हुए हैं, उन सबने अपने अनुभवों और साँसारिक निष्कर्षों के आधार पर एक स्वर में सत्य की महत्ता घोषित की है। और अभिवचनों, धर्म-ग्रन्थों, शास्त्रों तथा आत ग्रन्थों द्वारा मानव-समाज को सत्य को धारण और उसी का आचरण करने का निर्देश किया है। जो धर्म जन महापुरुष के इन वचनों का आदर करते हुए सत्य पथ का आलम्बन करते हैं, वे क्या भौतिक और क्या आध्यात्मिक किसी भी जीवन क्षेत्र में सफल नहीं होते। हर दिशा और हर चरण पर उनकी विजय ही होती चलती है।

सत्य की इतनी महत्ता, प्रेरणा और आदेश न होने पर भी लोग असत्य का आश्रय क्यों लेते हैं? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसका उत्तर यह कहकर दिया जा सकता है-नशे का व्यसन बुरी बात है। उससे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, आर्थिक तथा सामाजिक सब प्रकार की हानियाँ होती हैं, तब भी लोग क्यों नशा खाते-पीते हैं। इसीलिए कि उनका वह दुर्व्यसन वैसा करने के लिए बलात् प्रेरित करता है। बात दरअसल यह नहीं होती कि मद्यप मद्य त्याग का लाभ नहीं जानता अथवा वह उसको बुरा नहीं मानता-बात दरअसल यह होती है कि अभ्यासवश उनका स्वभाव खराब हो जाता है। व्यसन की बुराई उन्हें इस प्रकार शिकंजे में जकड़कर निर्बल कर देती है कि उनमें उससे बचने का उत्साह नहीं रहता। वे उससे आसक्त होकर उसे छोड़ने का प्रयत्न नहीं करते अन्यथा ऐसी बात नहीं कि वे उससे मुक्त नहीं हो सकते।

यही तथ्य सत्य और असत्य के विषय में भी घटित होता है। लोग सत्य की विशेषता जानते हैं और उसकी उपयोगिता भी। लेकिन असावधान रहकर वे असत्य का अभ्यास कर लेते हैं। उनका स्वभाव इस अभ्यास के यहाँ तक अधीन हो जाता है कि वे लोग अनावश्यक और अकारण ही झूठ का व्यवहार करने लगते हैं। इस दोष के कारण उन्हें बहुत बार हानि भी उठानी पड़ती है, तब भी वे उस विषय में विवश ही रहते हैं। असत्य अभ्यासी जहाँ भी बैठता है, योंही अकारण झूठी बातें करने लगता है, जो भी व्यवहार करता है, उसमें असत्य का समावेश कर लेता है। सीधा, सरल और सत्य बोलना व्यवहार कर सकना, उसके वश में ही नहीं रहता। उसका सारा जीवन वाचालता, प्रलापता और अपवादिता से दूषित हो जाता है।

मनुष्य का यह स्वभाव अच्छा नहीं। इससे बड़ी गहरी और दूरगामिनी हानियाँ होती हैं। सबसे स्थूल और प्रत्यक्ष हानि तो यही होती है कि लोग उसे झूठा और मिथ्यावादी समझकर उसका विश्वास करना छोड़ देते हैं। उसके प्रति अविश्वास की स्थिति इस सीमा तक पहुँच जाती है कि एक बार यदि वह सच्ची बात भी कहता और सच्चा व्यवहार भी करता है तो भी उसे झूठा मानकर उस पर विश्वास नहीं किया जाता।

दूसरे प्रकार की हानियाँ जो इससे भी अधिक भयंकर होती हैं। वाणी को ईश्वर का स्वरूप माना गया है- ‘शब्दों से ब्रह्म’-इस ईश्वर रूप वाणी को असत्य से कलुषित करना ईश्वर का स्पष्ट अपमान करना है। ईश्वर की अवहेलना, उसका तिरस्कार अथवा अपमान करने वाले के लोक-परलोक नष्ट हो जाते हैं। वह अनेक जन्मों तक सद्गति प्राप्त नहीं कर सकता। वाणी और व्यवहार में असत्य को आश्रय देने वाले व्यक्ति का आत्मिक तेज नष्ट हो जाता है। वह व्यक्तित्वहीन होकर दीन-हीन और मलीन बन जाता है। सत्य को बुद्धि का नेत्र माना गया है। जो व्यक्ति असत्य का आधार लेता है, वह बुद्धि के इस नेत्र को स्वयं फोड़ लेता है। एक तो अंधा और फिर बुद्धि का अंधा। व्यक्ति पतन और पाप के किन भयंकर नरकों में गिर सकता है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता।

लोक, परलोक, मन, बुद्धि और आत्मा के कल्याण के लिए मनुष्य को असत्य का त्याग कर सत्य को ग्रहण करना चाहिए। असत्य बोलने का अभ्यास छोड़कर सत्य बोलने का साहस और अभ्यास करना चाहिए। जो कुछ बोलें, जो कुछ करें और जो कुछ सोचें उसे सत्य के प्रकाश में ही बोलें, करें और सोचें। सत्य को ही प्रश्रय दें, उसी को ग्रहण करें और उसी का पक्ष लें। असत्य को प्रश्रय देने अथवा असत्य का पक्ष लेने से मनुष्य का पतन हो जाता है। उसकी साख गिर जाती है और सामाजिक सम्मान नष्ट हो जाता है।

असत्य से बचने और सत्य का अभ्यास करने का सबसे सरल और सफल उपाय यही है कि जो कुछ बोला जाय खूब-सोच समझकर नाप-तोल कर बोला जाए। भाषण में कम से कम शब्दों का प्रयोग भी असत्य से बचने का एक अच्छा उपाय है। जो वाचाल वाणी को बे-लगाम छोड़कर उसे मनमाने ढंग से चलने देते हैं, वे असत्य के दोष में अनायास ही फंस जाते हैं। सत्य बहुत नहीं थोड़ा ही होता है। उसे व्यक्त करने के लिए बहुत बड़े वाग्जाल की आवश्यकता नहीं होती। संक्षिप्त और सधे हुए शब्दों में उसे आसानी से प्रकट किया जा सकता है।

वाणी को देवता माना गया है। उसका उपयोग उस देवता की पूजा ही है। सत्य के स्थान पर असत्य का प्रयोग करने से वाग्देवता रुष्ट हो जाते हैं, जिससे मनुष्य की वाणी उसके कथन का प्रभाव नष्ट हो जाता है। अनावश्यक रूप से बकवास करते रहने से लाभ तो कुछ होता नहीं, उलटे वाचालता का दोष लगता है। इसीलिए कम से कम भाषण करने को मनुष्य को एक गुण और वाणी का तप बतलाया गया है। कम भाषण का अभ्यास करने के लिए मौन व्रत का अवलम्ब लेना बड़ा हितकर हो सकता है। आवश्यकता भर बोलिये। बाकी सारे समय मौन रहिए। वाणी में संक्षेप आते ही सत्य का समावेश होने लगेगा। इस प्रकार कुछ दिन साधन करते रहने पर असत्य का स्वभाव छूटने और सत्य का स्वभाव बनने लगेगा। यदि सहसा सत्य-निष्ठा ग्रहण करने में कठिनाई हो तो उसको धीरे-धीरे तो ग्रहण किया ही जा सकता है। इसके लिए कहा भी गया है-

अनुगन्तुं सतां वर्त्म कृत्स्नं यदि न शक्यते। स्वल्प मप्यनुगन्तण्यं मार्गस्थो नावसीदति॥

-यदि सत-पथ पर सहसा चल सकना शक्ति के बाहर हो तो थोड़ा-थोड़ा चलते रहना चाहिए। क्योंकि मार्ग पर आगे बढ़ते रहने वाला कभी न कभी गन्तव्य स्थान पर पहुँच ही जाता है।

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