बदलती परिस्थितियों में स्वयं भी बदलें

February 1970

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वैटसिन नकल करने की कला (दि आट्र आफ वैटसिन एडाप्शन) जीव विज्ञान का एक बहुचर्चित सिद्धाँत है, जिसका अर्थ होता है, सामाजिक बुराइयों से आत्म-रक्षा के लिए अपने आपको बदलना। बुराइयाँ कमजोर मन वालों पर आक्रमण करती हैं, हमें अभ्यास से अपने मन को ऐसा बनाना चाहिए, जिसमें कोई भी अप्रिय परिस्थिति टकराकर ऐसे लौट जाए जैसे पहाड़ की खाड़ी से समुद्री लहरें।

जर्मन वैज्ञानिक श्री मुलर ने बहुत दिन तक अध्ययन करने के बाद बताया कि वंश परम्परा से कुछ तितलियाँ भिन्न जाति की होती हैं, किन्तु वे अपना रंग-रूप और आकार इस तरह बनाती हैं, जैसे वह तितलियाँ जो स्वाद में कटु होती हैं और दुश्मन जिन्हें खाना तो दूर पास तक नहीं आते। इस तरह वे कमजोर होने पर भी अपना बचाव कर लेती हैं। हमारे जीवन में कैसा ही उतार क्यों न हो, इतिहास से हम उन पुरुषों के जीवनवृत्त ढूंढ़ सकते हैं, जिन्होंने हमारी जैसी परिस्थितियों में ही अपने आपको बदलकर सफलता के द्वार खोज निकाले हों। उनका अनुकरण और अनुशीलन करें तो गई-गुजरी स्थिति में भी हम अपने स्वत्व की रक्षा और विकास कर सकते हैं, जो वर्तमान परिस्थिति में हमारे लिये कभी भी संभव न होता।

ऐसी ही कला ‘मुलैरियन’ नकल करने की कला (दि आट्र आफ मुलेरियन एडाप्शन) कहते हैं, इसमें समान प्रकृति के लोगों के साथ मिलकर ऐसा संगठन बनाया जाता है, जिससे दुश्मन अपने आप ही पीछा करना छोड़ दे। धर्मशास्त्र में उसे तितीक्षा की संज्ञा दी जाती है। स्वामी विवेकानंद जिन दिनों योगाभ्यास कर रहे थे उनके मन में कई प्रकार की वासनायें भी भड़कती रहती थीं। कई बार यह गंदे विचार इतने तीव्र हो उठते थे कि उनको हटाना कठिन हो जाता था। विवेकानन्द हैरान थे, क्या करें-तभी उन्हें एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया। उन्होंने देखा एक ऐसा कीड़ा है, जो चींटियों को बार-बार पकड़कर ऐसे खा जाता है, जैसे वासनायें सद्गुणों को खा जाती हैं। दुश्मन से बचने के लिए इन चींटियों ने एक तरकीब निकाली। पास ही कुछ ऐसी मकड़ियाँ रहती थीं, जिनका आकार और रंग−रूप इन चींटियों की तरह का था। चींटियों ने उनसे मेल-मिलाप कर लिया और उनके साथ ही रहने लगीं। चींटियों और मकड़ियों के पास-पास आ जाने से उनकी संख्या भी अधिक हो गई।

लोभी व्यक्ति को जिस प्रकार हित-अनहित का अच्छे बुरे का विवेक नहीं रहता, उसी प्रकार उस कीड़े ने भी चींटियों की बढ़ोत्तरी देखी तो उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने घात लगाई ओर टप से चींटों के धोखे में एक मकड़ी को पकड़ लिया। उस मकड़ी का स्वाद इतना जहरीला था कि कीड़े को मूर्छा आ गई। होश आने पर वह इतना डर गया कि फिर उसने दुबारा चींटियों को छेड़ने का साहस नहीं किया। अच्छे की संगत और संगठन में रहने का तब से इन चींटियों ने स्वभाव बना लिया।

इस दृश्य ने स्वामी विवेकानन्द को इक नई सूझ प्रदान की। उन्होंने निश्चय कर लिया कि यदि अब दुबारा कभी मन ने दुर्भावनायें उठाईं तो उसे भी ऐसा ही कड़ुवा स्वाद चखायेंगे। दैववश उसी दिन जब वे भोजन बना रहे थे एक लड़की उनके पास आ गई। उसे देखते ही उनका मन चंचल हो उठा। स्वामी जी तो पहले से ही घात में थे। उठे और जलते तवे पर बैठ गए। सारा चूतड़ जल गया। लड़की चीख मारकर भाग गई। विवेकानन्द एक महीने अस्पताल में तो पड़े रहे पर फिर दुबारा उनके मन में कभी कोई पाप भावना नहीं आई।

डोनाउस क्राइसीपस नामक तितली, ततैये और टिड्डे आदि अपने दुश्मनों से बचने के लिए बहुत चमकीले भड़कीले, लाल, काले, पीले, रंग बदलने सुगंध छोड़कर अपने आपके क्रोधी और जहरीला दिखाने की क्रिया करते हैं। दुश्मन डर कर भाग जाता है। इसी प्रकार मन में उठने वाली बुराइयों को उनके अप्रिय परिणाम दिखाकर डराया और धमकाया जा सकता है। उदाहरण के लिए पढ़ने में मन न लगे तो फेल हो जाने की निराशा का चित्रण, काम न करने पर भूख-प्यास और कपड़े-लत्ते की तंगी का चित्रण, काम-वासना भड़के तो रोग बुढ़ापा और दुर्बलता का चित्रण करके उन्हें हटा देना चाहिए।

हेनरी फोर्ड ने इसी सिद्धाँत के रचनात्मक अभ्यास से औद्योगिक सफलता अर्जित की थी। उन्होंने अपने एक संस्मरण में लिखा है- ‘व्यापार के प्रारम्भिक दिनों में मुझे बड़ा आलस्य और अनुत्साह रहता, उस समय मैं अच्छे सम्पन्न भविष्य की कल्पना करता। मेरे बंगले होंगे, कार होगी, दास-दासियाँ होंगे, सुख के सब साधन होंगे तो कितना अच्छा होगा। इन कल्पनाओं से आलस्य का अंत हो जाता और मैं फिर दुगुने उत्साह से काम करने लगता। इसी तरह बढ़ते-बढ़ते मैं वर्तमान स्थिति तक पहुँचा।

जीव-जन्तु अपने बचाव के लिए इस सिद्धाँत का बहुत उपयोग करते हैं, उदाहरण के लिए कटलमछली या सीपिया शरीर की एक थैली में स्याही जैसा एक तरल पदार्थ भरकर रखते हैं। अपने इस संचित संस्कार के कारण वे निर्भय विचरण करते रहते हैं, यदि उन्हें सामने से कोई दुश्मन आता दिखाई दिया तो उस थैली का रंगीन तरल पदार्थ काफी दूर तक उड़ेल कर पानी को रंगीन करके आप उसी में छिपकर बैठ जायेंगे। शत्रु शिकार को देख नहीं पायेगा या एक और खड़ा ताकता रहेगा, मछली अपनी मस्ती से दूसरी ओर से निकल जायेगी। जिन लोगों में ऐसे रचनात्मक स्वभाव होते हैं, वे ही संसार में उच्च सफलताएं प्राप्त करते हैं, जो निराशावादी हर परिस्थिति के फंदे में फंस जाने वाले होते हैं, उन्हें तो छोटे-छोटे आघात ही मारकर नष्ट कर देते हैं।

कछुआ, सीप, घोंघा, मगर आदि अपनी त्वचा के ऊपर सुरक्षात्मक आवरण रखते हैं और जी चाहे जहाँ विचरण करते हैं, उनका बड़े से बड़ा शत्रु भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। संसार में माना विषम परिस्थितियों के अम्बार लगे हैं पर मनस्वी व्यक्तियों के लिए जैसे परिस्थितियाँ होती ही नहीं, वे मन को इतना मजबूत बना लेते हैं कि चाहे लाभ हो या हानि, सुख हो या दुख, यश मिले या अपयश वे अपने आदर्श-सिद्धाँतों से उन सबको दबाकर मस्ती और निश्चिंतता का जीवन जीते हैं। ऐसे जीवन क्रम की गीता में बड़ी प्रशंसा की गई है। कर्मयोगी के लिए साँसारिक गतिविधियों से बचाव के लिए ऐसा ही सुरक्षात्मक आवरण रखना नितान्त आवश्यक होता है।

संसार ऐसा विलक्षण है कि यहाँ बहुत शक्तिशाली और रूप-गुणशील भी कई बार बुराइयों की, आक्रमण की लपेट में आ जाते हैं इसीलिए कहते हैं, न्याय और आत्मा की आवाज के लिए सबको समान रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। दोनों समाज में रहते हैं, दोनों को ही सामाजिक उत्तरदायित्वों का पालन अनिवार्यतः करना चाहिए।

शेर जंगल का राजा होता है, बड़ा शक्तिशाली और एकान्तवासी। तो भी कुछ मक्खियाँ और कीड़े उसे ऐसे काटते हैं कि कई बार उसकी जान के ग्राहक ही बन जाते हैं। उत्तरी अमेरिका में एक खूबसूरत रंगीन-पक्षी ‘स्कनस’ पाया जाता है और सूक्ष्मदर्शी चमगादड़ भी अपने दुश्मनों से बच नहीं पाते। वह अपनी आत्म-रक्षा के लिए अपने शरीर से एक विशेष प्रकार की दुर्गन्ध निकालकर दुश्मन को भगाते हैं तात्पर्य यह है कि हमें संघर्ष के क्षणों में उन परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए जो हमारी आदत के अनुकूल नहीं हों। इसके लिए ‘पारक्यूपाइन’ की तरह पहले से ही तैयार रहना चाहिए। इस जन्तु के शरीर पर छोटे-छोटे काँटे होते हैं। स्याही के शरीर पर भी काँटे होते हैं, साधारणतया वे उसके काम नहीं आते। क्रोध और नाराजी भी मनुष्य के लिए हितकारक नहीं पर जिस तरह आत्म-रक्षा के लिए यह जीव अपने काँटों को तरेर कर उन्हें डराकर भगा देते हैं, उसी तरह मनुष्य को परिस्थितियों में क्रोध और नाराजी भी व्यक्त करना ही चाहिए। उस समय यही हमारे धर्म हो जाते हैं। राष्ट्र रक्षा, सामाजिक जीवन में व्याप्त बुरे तत्वों चाहे वह चोर-डकैत हों अथवा दहेज, रिश्वत लेने वाले क्रोध ओर नाराजी के काँटे तरेरने ही चाहिएं, यदि प्रजा अपना यह अस्त्र नहीं संभालती तो अवाँछनीय तत्व बढ़ते हैं और समाज पर छाकर सर्वत्र त्रास देते हैं।

एटम बम विनाशकारी है, अन्य शस्त्रास्त्र लगता है, मानवता के हित में नहीं हैं पर सशस्त्र दुश्मन से बचाव की आवश्यकता आ पड़े तो प्रकृति यह बताती है कि आत्मरक्षा के लिए वैज्ञानिक अस्त्रों का भी प्रयोग करना धर्म है। टारपीडो ओर नारसीन नामक मछलियों में शरीर से विद्युत उत्पन्न करने की क्षमता होती है। साधारणतया वह ऐसा करती नहीं पर यदि कोई दुश्मन पीछा करे तो वे विद्युत करेंट उत्पन्न कर उन्हें मार भगाती हैं। मनुष्य इन सभी गुणों का विचित्र सम्मिश्रण है, प्रकृति अपने नन्हें जीवों के द्वारा उसे यह प्रेरणा देती है कि परिस्थिति के अनुसार मनुष्य को अपनी प्रत्येक क्षमता का प्रयोग कर मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।

अमेरिका में ‘हागनोज्ड’ नामक एक सर्प पाया जाता है, वर्जीनिया में ‘अपोसम’ नामक कंगारू पाया जाता है, दोनों में परले सिरे की चतुराई होती है, यह जब अपने शिकारी को देखते हैं तो ऐसे निश्चेष्ट हो जाते हैं, मानो मर गये हों। शिकारी इन्हें मृत समझकर मुड़ता है तो यह पीछे से आक्रमण कर देते हैं। कई बार हमारे सामने भी ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं, जब कोई क्षमता काम नहीं देती, उस समय ‘देखि दिनन को फेर रहिमन चुप ह्वै बैठिये’ वाली कहावत के अनुसार चुप पड़ जाये पर जैसे ही परिस्थिति अनुकूल आये फिर क्रियाशील हो जाये। आत्म-रक्षा, आत्म-विकास और सामाजिक संघर्ष हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें हैं, उसके लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न स्वरूप बनाकर नाटककारिता का परिचय और अभिनय का आनन्द लेते हुए जीना चाहिए। ऐसा रंग-बिरंगा जीवन ही सफल और सार्थक होता है।

स्वायत्ता इन सब गुणों से ऊपर है। संसार में सामर्थ्यवान् लोग जीते हैं। ‘वीरभोग्या वसुन्धरा’ का उद्देश्य सबसे पहले हम भारतीयों ने दिया था, उसका आधार हमारी समर्थता थी। सामर्थ्यवान मनुष्य ही अपने आपको अपनी बुराइयों व शत्रुओं को भी जीत सकते हैं। शेर, चीता, हाथी, मगर, सूअर यह जंगल के बलवान जीव जंगल में सर्वत्र स्वच्छन्द विचरण करते हैं, उन्हें केवल मनुष्य का ही भय रहता है और किसी का नहीं, क्योंकि उन्हें अपनी सामर्थ्य पर भरोसा होता है, यह अपनी शक्ति से आत्म रक्षा ही नहीं, आक्रमण भी कर सकते हैं, इसी प्रकार मनुष्य को भी शक्तिशाली होना चाहिए। पाप और दुष्कर्म से बचे रहने के लिए हम भगवान से तो डरें पर अच्छे उद्देश्य, आदर्श और पार्थिव सुखोपभोग के लिए वर्तमान परिस्थितियों में हमें अपनी आन्तरिक सामर्थ्य को इतना स्वायत्त बनाना चाहिए कि आवश्यकता पड़े तो विरोधियों को बलपूर्वक भी मारा और भगाया जा सके। जनसंख्या बढ़ाने से नहीं, आन्तरिक सामर्थ्य बढ़ाने से ही हम बदली हुई परिस्थितियों में अपने आपको स्थिर और सम्मानित रख सकते हैं, दुर्बलों के लिए तो संसार में पग-पग पर कठिनाइयों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

संसार परिवर्तनशील है। पल-पल पर परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, उनसे हम प्रभावित भी होते रहते हैं, इसलिए प्रकृति ने हमें वह सारी क्षमताएं दी हैं, जिनका सम्यक् उपयोग करके हम सुरक्षित, सफल और समर्थ व्यक्ति और जाति बन सकते हैं। प्रकृति के असंख्य छोटे-छोटे जीव हमें इसी बात की प्रेरणा देते हैं।


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