अध्यात्म विकृत नहीं-परिष्कृत रूप में ही जी सकेगा

February 1970

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अध्यात्म की तुलना अमृत, पारस और कल्प-वृक्ष से की गई है। इस महान तत्व-ज्ञान के संपर्क में आकर मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को- बल और महत्व को- पक्ष और प्रयोजन को ठीक तरह समझ लेता है। इस आस्था के आधार पर विनिर्मित कार्य पद्धति को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने पर वह मानव बन जाता है, भले ही सामान्य परिस्थितियों का जीवन जीना पड़े। अध्यात्मवादी की आस्थायें और विचारणायें इतने ऊँचे स्तर की होती हैं कि उनके निवास स्थान अन्तःकरण में अमृत का निर्झर झरने जैसा आनन्द और उल्लास हर घड़ी उपलब्ध होता रहता है।

अध्यात्म निस्संदेह पारसमणि है। जिसने उसे छुआ वह लोहे से सोना हो गया। गुण, कर्म और स्वभाव में महत्तम उत्कृष्टता उत्पन्न करना अध्यात्म का प्रधान प्रतिफल है। जिसकी आन्तरिक महानता विकसित होगी, उसकी बाह्य प्रतिभा जहाँ कहीं भी होगी, वहाँ सफलतायें और समृद्धियाँ हाथ बाँधे सामने खड़ी दिखाई देंगी। लघु को महान बनाने की सामर्थ्य और किसी में नहीं, केवल अन्तरंग की महत्ता, गुण-कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता में है। इसी को अध्यात्म उगाता बढ़ाता और संभालता है, फल स्वरूप उसे पारस कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं, अध्यात्म अमृत ही नहीं, पारस भी है। उसे पाकर अन्तरंग ही हर्षोल्लास में विमग्न नहीं रहता। बहिरंग जीवन भी स्वर्ग जैसी आभा से कीर्तिमान होता है। इतिहास का पन्ना-पन्ना इस प्रतिपादन से भरा पड़ा है कि इस तत्व-ज्ञान को अपनाकर कितने कलुषित और कुरूप लौह-खण्ड स्वर्ण जैसे बहुमूल्य, अग्रिणी एवं प्रकाशवान बनने में सफल हुए है।

कल्पना की ललक और लचक ही मानव-जीवन का सबसे बड़ा आकर्षण है। कल्पना लोक में उड़ने और उड़ाने वाले ही कलाकार कहलाते हैं। सरसता नाम की जो अनुभूतियाँ हमें तरंगित, आकर्षित एवं उल्लसित करती हैं उसका निवास कल्पना क्षेत्र में ही है। भावनाओं में ही आनन्द का उद्गम है। आहार, निद्रा से लेकर इन्द्रिय तृप्ति तक की सामान्य शारीरिक क्रियायें भी मनोरम तब लगती हैं जब उनके साथ सुव्यवस्थित भाव कल्पना का तारतम्य जुड़ा हो, अन्यथा वे नीरस एवं भार रूप क्रिया-कलाप मात्र बनकर रह जाती हैं। उच्च कल्पनायें अभाव-ग्रस्त, असमर्थ जीवन में भी आशायें और उमंगे संचारित करती रहती हैं। संसार में जितना शरीर सम्पर्क से उत्पन्न सुख है, उससे लाख-करोड़ गुना कल्पना, विचारणा एवं भावना पर अवलंबित है। उस दिव्य संस्थान को सुव्यवस्थित करने और परिस्थितियों के साथ ठीक तरह ताल-मेल मिला लेने की पद्धति का नाम अध्यात्म है। इसलिए उसे कल्प-वृक्ष भी कहते हैं।

कल्पनाओं को क्रमबद्ध रूप से उठाना और परिष्कृत दिशा में गतिशील रखना मात्र अध्यात्म तत्व-ज्ञान का काम है। अन्यथा वे अस्त-व्यस्त दिशाओं में बिखर कर जी का जंजाल बनती हैं और अकारण शोक-संताप का कारण बनती हैं। वासना और तृष्णा की आग में सारा संसार जल रहा है, असंतोष और उद्वेग ने मनःक्षेत्र में श्मशान जैसी वीभत्स परिस्थिति उत्पन्न कर रखी है-संसार अभावों से इतना दुखी नहीं, जितना उद्वेगों से। इसका वास्तविक कारण कुछ भी नहीं-कल्पना तत्व की विकृत अवस्था ही हमें नरक की आग में निरंतर जलाती-झुलसाती चली जाती है। इस स्थिति को बदल कर परिष्कृत कल्पनाओं के मंगल-लोक में पहुँचाने की क्षमता अध्यात्म में ही सन्निहित है इसलिए उसे कल्प-वृक्ष कहा जाता है।

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अध्यात्म ही जीवन लक्ष्य की पूर्ति का एकमात्र आधार है, जिसने इसे प्राप्त कर लिया वही बाह्य और अंतरंग जीवन में सुख-शाँति से ओत-प्रोत होने का सौभाग्य प्राप्त कर सकने में सफल हो सका है।

भारत की एकमात्र विशालता एवं सम्पदा उसकी अध्यात्मवादी आस्था ही रही है। इसी से उसे ‘पृथ्वी का स्वर्ग’ और देवताओं का निवास-स्थल कहलाने का सौभाग्य प्रदान किया और समस्त संसार के सामने हर क्षेत्र में हर दृष्टि से सम्मानित अग्रिणी बना रहा। जहाँ आन्तरिक उत्कृष्टता होगी, वहाँ बाह्य सामर्थ्य एवं समृद्धि की कमी रह ही नहीं सकती। यही विशेषताएँ हमें समस्त विश्व का मार्गदर्शन करने एवं विविध अनुदान दे सकने योग्य बनाये रह सकीं। अपनी इस विशेषता को खोया तो मणिहीन सर्प की तरह खोखले हो गए।

संसार वालों ने अध्यात्म का प्रथम पाठ पढ़ा है और वे साँसारिक उन्नति की दिशा में बहुत आगे बढ़ गये। साहस, पुरुषार्थ, श्रम, तन्मयता, मधुरता, व्यस्तता, स्वावलम्बन, नियमितता, व्यवस्था, स्वच्छता, सहयोग जैसे गुण अध्यात्म के प्रथम चरण में आते हैं। इन्हें यम नियम की परिभाषा में अथवा धर्म के दस लक्षणों में गिना जा सकता है। पाश्चात्य देशों ने उतना भर सीखा है। इन्हीं गुणों से उन्हें शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, संगठनात्मक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों से भरपूर कर दिया। जो देश कुछ समय पहले तक गई-गुजरी स्थिति में पड़े थे, उन्होंने अध्यात्म का प्रथम चरण सद्गुणों के रूप में अपनाया और आश्चर्यजनक भौतिक उन्नति कर सकने में सफल हो गए। यदि वे दूसरे चरण उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता की भूमिका में प्रवेश कर सके होते, आस्तिकता एवं आत्मवादी तत्व-ज्ञान को भी अपना सके होते, अध्यात्मवाद का अगला चरण भी बढ़ा सके होते तो उनकी भी वही महानता विकसित हुई होती, जो कभी इस भारत भूमि के निवासी महामानवों में निरन्तर प्रस्फुटित होती थी।

हम हर दृष्टि से पिछड़ गये। क्यों न हम अध्यात्म के पथ पर एक चरण भी आगे न बढ़ा सके। यों इस देश में धर्म और अध्यात्म का आडम्बर आकाश को छूने जैसा बढ़ता चला जाता है पर यह रामलीला में खड़े किये जाने वाले विशालकाय कागज और बांस की खपच्चियों से बनाये गये रावण की तरह है। जो देखने भर के लिए बड़ा है, भीतर उसके खोखलापन ही खोखलापन भरा हुआ है।

प्राचीनकाल में थोड़े से ऋषि थे, उनके प्रभाव से सारा देश ही नहीं, सारा विश्व प्रभावित हुआ था। सभी लोग अपने बच्चों का शिक्षण और विकास उन्हीं की छाया में करते थे, ताकि वे प्रखर व्यक्तित्व से सुसंपन्न बन सकें। उनका परामर्श और निर्देश राजा-प्रजा सभी को मान्य होता था। उनका पुरुषार्थ और कर्तृत्व समाज के हर वर्ग और हर पहलू को प्रभावित करता था। आशा भी यही की जा सकती है। जब आरोग्यवान्, विद्वान और धनवान लोग असंख्यों को प्रभावित करते हैं तो कोई कारण नहीं इन सब सम्पन्नताओं में लाखों-करोड़ों गुनी शक्तिशाली क्षमता को पाकर स्वयं प्रकाशवान न हों और असंख्यों को प्रकाशित न करें? प्राचीनकाल के गृहस्थ और विरक्त अध्यात्मवादियों के ऊँचे स्तर इस वास्तविकता के प्रमाण भी हैं।

आज की स्थिति सर्वत्र विचित्र है, धर्म का कलेवर ओढ़े 56 लाख सन्त-महात्मा इस देश में मौजूद हैं। पंडित पुरोहितों, धर्मोपदेशकों, कथा-वाचकों, कीर्तनकारों की संख्या भी लगभग इतनी है। इस प्रकार 50 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में हर पचास व्यक्ति के पीछे एक व्यक्ति धर्म और अध्यात्म के नाम पर अपना समय पूर्ण करता और निर्वाह चलाता है। यह विशाल जनसमूह यदि वस्तुतः अध्यात्म के तत्व-ज्ञान से परिचित रहा होता तो आज अपना देश न जाने कहाँ की अपेक्षा कहाँ पहुँचा होता। भारत में 7 लाख गाँव हैं। 56 लाख संत। हर गाँव के पीछे 8 संत हैं और इतने पण्डे-पुरोहित। अर्थात् हर गाँव पीछे 16 व्यक्ति पलते हैं। यदि इन विशाल धर्मध्वजी जनसमूह ने रचनात्मक कार्यक्रम अपनाकर लोक-मंगल के लिए काम किया होता तो देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शारीरिक, आत्मिक, पारिवारिक, नैतिक स्थिति न जाने कितनी समुन्नत हुई होती और न जाने उसका समस्त संसार पर कितना आशाजनक प्रभाव पड़ा होता।

धर्म स्थलों, धर्म संस्थाओं एवं धार्मिक कर्मकाँडों में भारत की गरीब जनता प्रायः 300 अरब रुपया हर वर्ष व्यय करती है। इतने धन से संसार की 3 अरब जनता सद्ज्ञान देने और सद्प्रवृत्तियाँ उभारने के लिए हर व्यक्ति के पीछे 100 रु. व्यय किया जा सकता था, हमारे देश के धर्मध्वजी एक करोड़ लोग 300 व्यक्तियों को प्रकाश देने में अपना समय लगा रहे होते तो संसार के हर व्यक्ति को अपने महान तत्व-ज्ञान से परिचित और प्रभावित करने में सफल हो गये होते और तब संसार की स्थिति आज की अपेक्षा सर्वथा भिन्न ही हुई होती। पर हो सब कुछ प्रतिकूल रहा है। धर्मध्वजी लोग दूसरों को प्रकाश देने की अपेक्षा स्वयं ही दयनीय स्थिति में पड़े हैं और परावलम्बी दीन−हीन जीवन जी रहे हैं। स्थिति को बारीकी से देखने वाला यही सोचता है कि प्रस्तुत अध्यात्मवाद निरुपयोगी एवं निरर्थक है।

नई पीढ़ी में आस्तिकता एवं धार्मिकता के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह गया है, इस स्थिति का उत्तरदायित्व इन महान आस्थाओं के उस विकृत स्वरूप का है, जिसने परीक्षा की कसौटी पर अपनी निरर्थकता सिद्ध कर दी है। अब प्रगतिशीलता का अर्थ धर्म और अध्यात्म के प्रति अनास्थावान होना भी बनता चला जाता है।

अध्यात्म का तत्व-ज्ञान मनुष्य को आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता की विचारणा से ओत-प्रोत भावनाओं से विभोर एवं प्रक्रिया से तत्पर बनाये रखने वाला दार्शनिक अवलम्बन है। हम ईश्वर के सत्चित् आनन्द स्वरूप अविनाशी अंग हैं, अस्तु अपनी महानता को अक्षुण्य बनाये रखें। मानवजीवन महान प्रयोजन के लिए चिरकाल उपरान्त मिला है, उसका उपयोग उच्च प्रयोजनों के लिये करें। ईश्वर सर्वव्यापी, निष्पक्ष एवं न्यायकारी है, उसके दण्ड एवं कोष से बचने के लिए दुर्भावनाएँ एवं दुष्प्रवृत्तियाँ त्यागें। समस्त प्राणी ईश्वर के पुत्र और अपने भाई हैं, इसलिए उनके साथ सद्व्यवहार करें। अपने पाशविक कुसंस्कारों को हटाने के लिये संघर्ष साधना, तितीक्षा, संयम एवं तपश्चर्या का अभ्यास करें। फैली हुई दुष्प्रवृत्तियों को हटाने का पुरुषार्थ कर अपने आत्म बल को विकसित करें। आदर्श जीवन जीकर दूसरों के लिए प्रकाश प्रदान करने वाले उज्ज्वल नक्षत्र सिद्ध हों। उन विचारों से ओत-प्रोत रहें, जिनसे शाँति मिले। उन कार्यों को अपनायें जिनसे यशस्वी जीवन जीने का अवसर मिले और परलोक में सद्गति को प्राप्त हों। ईश्वर की सृष्टि को सुन्दर, सुगन्धित एवं सुसज्जित बनाने की सेवा साधना में संलग्न रहकर प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करें। हृदय कमल पर भाव भगवान की उच्च-स्तरीय स्थापना करें। अपनी मनोभूमि ऐसी बनायें जिससे सद्भावना सम्पन्न सद्भक्त कहला सकें। अपने को शरीर नहीं आत्मा समझें और शरीरगत वासना-तृष्णा से ऊँचे उठकर आत्म-कल्याण की गतिविधियाँ अपनायें। काम-क्रोध, मोह-मद मत्सर रूपी षटरिपुओं से सावधान रहें। भीतर और बाहर स्वर्गीय वातावरण का सृजन करने के लिए सद्भावनाओं की रीति-नीति अपनायें। तृष्णा और वासना के बंधनों से युक्त होकर संकीर्णता से मुक्ति पायें। आदि आस्थाएँ आध्यात्मिकता की पृष्ठ-भूमि हैं। इन्हीं को हृदयंगम कराने के लिए सारा धर्म कलेवर खड़ा किया है। समस्त कर्मकाँडों के पीछे इन्हीं आस्थाओं को हृदयंगम कराने का मनोवैज्ञानिक उद्देश्य छिपा पड़ा है।

पर आज के प्रचलित तथाकथित अध्यात्म की दिशा बिल्कुल उलटी है। वह व्यक्ति को भावनात्मक उत्कर्ष की ओर उठाने की अपेक्षा पतनोन्मुख बनाने में सहायक हो रहा है। भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए तीर्थ स्नान, देव-दर्शन, भजन-कीर्तन आदि के कर्मकाँड ही, पर्याप्त मान लिये गये हैं, लोगों ने यह सोचना छोड़ दिया है कि इन कर्मकाँडों का उद्देश्य भगवान की न्यायकारी सर्वव्यापक सत्ता का हर घड़ी स्मरण दिलाते रहना मात्र है। इस स्मरण का प्रयोजन यह है कि व्यक्ति सबमें ईश्वर की झाँकी करके हर किसी से सद्व्यवहार में निरत रहे। न्यायकारी के न्याय से डरें और कुछ का कुछ करके फलभोग से बच जाने की बात न सोचें। यदि देव-दर्शन, भजन-कीर्तन आदि के द्वारा उपरोक्त सदाचरण एवं परमार्थ की भावना उदय हो तो हो इन कर्मकाँडों का महत्व है। अन्यथा प्रशंसा करके या प्रसाद खिलाकर परमेश्वर के वरदान, आशीर्वाद पाने की ललक एक भ्रम भरी विडम्बना ही कही जाएगी।

भाग्यवाद एवं ईश्वर की इच्छा से सब कुछ होता है जैसी मान्यताएँ विपत्ति में असंतुलित न होने एवं सम्पत्ति में अहंकारी न होने के लिए एक मानसिक उपचार मात्र है। हर समय इन मान्यताओं का उपयोग अध्यात्म की आड़ में करने से तो व्यक्ति कायर अकर्मण्य और निरुत्साही हो जाता है। सोचता है, अपने करने से क्या होगा, जो भाग्य में होगा, ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा। पुरुषार्थ की दौड़-धूप करने से क्या लाभ? इस प्रकार की मान्यता वाले की प्रगति का क्रम समाप्त हो गया ही समझना चाहिए। आक्रमणकारियों, शोषकों और अत्याचारियों में उपरोक्त मान्यता अपने समय के भ्रष्ट धर्मध्वजियों द्वारा रिश्वतें देकर इसलिए चलाई कि शोषित वर्ग उनके अन्याय से लड़ने खड़ा न हो जाय और उन अन्यायों को ईश्वर की इच्छा तथा भाग्य का खेल मानकर चुप बैठा रहे।

संसार को स्वप्न, माया, बंधन, भवसागर कहकर पारिवारिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने एवं भिक्षाजीवी निरर्थक जीवन बिताने की पलायनवादी मान्यता अध्यात्म के साथ जब से जुड़ी तब से साधु-ब्राह्मणों और वानप्रस्थों का अति महत्वपूर्ण लोक-सेवी वर्ग मिथ्या आडम्बरों में फंसकर तरह-तरह की भ्राँतियाँ फैलाने वाला समाज के लिए भारभूत बन गया। उपरोक्त मान्यताएँ केवल वासना और तृष्णा की निरर्थकता बताने के लिए थीं पर उनकी व्याख्या उलटी की गई और व्यक्ति समाज से विमुख होकर संकीर्ण स्वार्थपरता के दायरे में-स्वर्ग मुक्ति और सिद्धियाँ प्राप्त करने की बात सोचने लगा फलतः, अध्यात्मवाद की उपयोगिता अनुपयोगिता में बदल गई।

देव शक्तियों से लोग अपने में देवत्व के अवतरण की माँग करते, उनकी विशेषताओं, प्रेरणाओं एवं महानताओं को अपने में जागृत करने की आशा रखते तो देव-पूजन का प्रयोजन सिद्ध होता। पर अब तो लोग देव-पूजन इस शर्त पर करते हैं कि हमारी अमुक मनोकामना बिना पुरुषार्थ किये अथवा योग्यता उत्पन्न किये ही देव कृपा से अनायास ही पूरी हो जाय। आमतौर से लोग धन, स्वास्थ्य, विवाह, पुत्र, परीक्षा में उत्तीर्ण, नौकरी, शत्रु नाश, विपत्ति निवारण जैसी मनौतियाँ देवता से माँगते हैं और इसके लिए रिश्वत के रूप में कुछ पूजा-पत्री अर्पित करते हैं। इस विकृति का परिणाम यह हुआ कि लोग अपनी योग्यता बढ़ाने एवं पुरुषार्थ करने में जो प्रयत्न करते उन्हें छोड़कर परावलम्बी होते चले गये और उन्हें दीन-दरिद्र रहना पड़ा। विकृत मान्यताएं किसी को कुछ लाभ नहीं दे सकतीं केवल दुर्बलता और हानि ही प्रस्तुत कर सकती हैं।

अध्यात्म का तात्पर्य है आत्मा की परिधि का विस्तार। अपने अहम् को स्वार्थपरता को संकीर्ण परिधि को विश्व-मानव के लिए परमात्मा के लिए उत्सर्ग कर देना यही आत्मिक प्रगति का एकमात्र चिन्ह है। अनादिकाल से यही परम्परा चली आ रही है कि जो अपने व्यक्तिगत लोभ-मोह, यश एवं सुख को जिस हद तक विश्व-मंगल के कृत्य में परित्याग करता है, वह उसी सीमा तक परमात्मा के सान्निध्य में पहुँचा माना जाता है। यह मान्यता हर अध्यात्मवादी को समाज के लिए अधिक उपयोगी एवं उपकारी बनाकर सर्वजनीन सुख-शाँति का अभिवर्द्धन करती थी, पर अब तो ठीक उलटा है। जो जितना स्वार्थी, संकीर्ण, अनुत्तरदायी अकर्मण्य है, वह उतना ही त्यागी-तपस्वी है। सबके सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझकर-आत्म-सुख को लोक-मंगल में घुला देने की प्रवृत्ति अब अध्यात्मवादियों में दिखाई नहीं पड़ती वरन् लोग अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं की अभिवृद्धि के लिए ईश्वरीय सहायता की याचना-कामना किया करते हैं और उसी तराजू पर दैवी कृपा या अकृपा का - अपनी पूजा-पत्री की सफलता, असफलतावाद का—मूल्यांकन करते हैं। फलस्वरूप अब अध्यात्म व्यक्तिवाद को पोषक बनता जाता है और ऋषि-सिद्धियों से लेकर स्वर्गमुक्ति तक विभिन्न स्तर के स्वार्थों की पूर्ति के लिए लिप्साएँ उत्पन्न करता है। यह स्तर बदला न गया तो तत्व-ज्ञान का महान् दर्शन मानव-जाति के लिए और अधिक विपत्ति उत्पन्न करने वाला बनता चला जाएगा।

पाप से बचने और डरने का शिक्षण देना अध्यात्म का प्रयोजन है। पर जब से यह मान्यता चली है कि अमुक नदी-सरोवर में स्नान करने, अमुक तीर्थ की यात्रा या अमुक पुस्तक का पाठ करने से पाप फल भोगने से छुटकारा मिल जाता है, तब से लोग पाप से डरने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते। सोचते हैं अब थोड़ा-सा व्यय करके पाप फल से बचा देने वाले कर्मकाँड करके दुष्कर्मों के दंड से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है तो फिर कुकर्मों का आकर्षण और लाभ, लोभ क्यों छोड़ा जाय? पाप के दंड से बचने की मान्यता केवल अनैतिकता का ही अभिवर्धन करेगी और उससे अनाचार एवं विग्रह, विक्षोभ ही बढ़ेगा।

किसी वर्ग विशेष को दान-दक्षिणा देने और उसी को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर यह सोचना कि उन्हें जो दिया जाएगा, वही कहलायेगा, एवं अविवेकपूर्ण भ्राँति है। ईश्वर के सभी पुत्र समान हैं, वह अधिक प्यार केवल अधिक संयमी और अधिक सेवी-भावी को कर सकता है। वंश के आधार पर कोई उसका प्रतिनिधि नहीं हो सकता। ब्राह्मण को ही दान देने की मान्यता ने समाज के उपयोगी कार्य में प्रयुक्त होने वाली उदारता को रोककर निहित स्वार्थों को मुफ्तखोर बनने और गुलछर्रे उड़ाने का द्वार खोल दिया। इससे समाज की उपयोगी प्रवृत्तियों को पोषण न मिलने पर सूख जाना पड़ा और निठल्ले लोग मसखरी करके उस उदारता एवं दान प्रवृत्ति को निरस्त करते चले गये। और उसका दुष्परिणाम सारे समाज को भोगना पड़ा।

अध्यात्म दर्शन में उत्पन्न हुई विकृतियों ने हमारा मानसिक और सामाजिक ढाँचा चरमरा कर रख दिया है। विद्या, सदाचार, लोक-सेवा और उदात्त मनोभूमि के कारण पूजे-जाने वाले साधु-ब्राह्मण जब वंश और वेष के आधार पर प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगे तो उन महान गुणों की ओर ध्यान देना ही बंद हो गया। ओछे लोग जहाँ भी पूजे जायेंगे, वहाँ विकृतियाँ ही बढ़ेंगी, कर्म के आधार पर आरंभ हुआ वर्णाश्रम धर्म जब वंश पर अवलम्बित हो गया और उसमें नीच-ऊँच का भेदभाव घुस गया तो ब्राह्मण दुर्गुणी होने पर भी पूजा जाने लगा और शूद्र सद्गुणी होने पर भी दुत्कारा जाने लगा। जहाँ गुणों का वर्चस्व समाप्त हो जाय और अकारण ही लोगों को मान या अपमान मिलने लगे तो वह समाज अपनों की और दूसरों की दृष्टि में अधःपतित होगा ही। झूठ मान्यताओं ने एक ओर तथाकथित उच्च वर्ग को अनावश्यक सम्पत्ति देकर उन्हें दान-दक्षिणा की मुफ्तखोरी का चस्का लगाया, दूसरी ओर तथाकथित नीच वर्ग को मानवता के न्यायोचित अधिकारों से भी वंचित करके अछूत बना दिया। इसी तिरस्कृत वर्ग का एक बड़ा भाग विधर्मी होता चला गया और हिन्दू समाज से प्रतिशोध लेने के लिए पिल पड़ा। अपनी सामाजिक दुर्बलता का यह एक बहुत बड़ा कारण है।

नारी जाति को अविश्वस्त प्रतिबन्धित, बन्दिनी और रमणी की दुर्दशा में धकेल देने वाली संकीर्ण विचार-धारा हमारे धर्म की आड़ में न जाने कहाँ से वह कंटीली झाड़ियों की तरह उठ आई और आधे समाज को लकवा के रोगों की तरह अपंग करके रख दिया। विवाह-शादियों में धर्म के नाम पर इतना अपव्यय करने को मजबूर होना पड़ा कि व्यक्ति को बेईमान और दरिद्र बनने के अतिरिक्त और कोई चारा न रह गया। मरने के बाद उसके कुटुम्बी लम्बी-चौड़ी दावत देकर मृतक-भोज करें, यह कैसी घृणित और दयनीय प्रथा है। भूत-पलीत, कुटुम्ब-कुटुम्ब और गाँव-गाँव के अगणित देवता, लोगों का मनोबल दुर्बल करने, आतंक उत्पन्न करने और अपव्यय कराने के लिए धर्म की आड़ में ही उगे हैं। अपनी कुरीतियों का अंत नहीं। और यह एक तथ्य है कि कुरीतियों का अंत नहीं। और यह एक तथ्य है कि कुरीतियों के साथ अनैतिकता का अविच्छिन्न संबंध है। आज के विकृत धर्म ने हमें अन्ध-विश्वासी ही नहीं अनैतिक एवं दीन, दरिद्र भी बना दिया।

इस दयनीय दुर्दशा से अब निकलना ही होगा और दार्शनिक विकृतियों से पिण्ड छुड़ाने के लिए आगे बढ़ना ही होगा। अन्यथा हमारी दुर्दशा ग्रस्त मनोदशा व्यक्ति एवं समाज का स्तर दिन-दिन गिराती और बिगाड़ती ही चलेगी और इस पतनोन्मुख पथ पर चलते हुए अन्ततः हम कहीं के भी न रहेंगे। भूतकाल में हम 30 करोड़ व्यक्ति इसी दार्शनिक भ्रष्टता के शिकार होकर 15 हजार विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा पद-दलित होकर एक हजार वर्ष तक गुलामी के बंधनों में बंधे रहे हैं। अब भी यदि इन्हीं विकृतियों को छाती से चिपकाये बैठे रहे तो अगले दिनों हमारे दुर्भाग्य का ठिकाना न रहेगा।

ओछा तत्व-दर्शन अपनाए रहने वाला व्यक्ति और समाज कभी भी ऊँचा नहीं उठ सकता। दर्शन ही प्रेरणाओं का आधार है। उसी के अनुरूप विचारणायें, आकांक्षायें और क्रियायें उत्पन्न होती हैं। दर्शन ही व्यक्ति को ढालता और उसी ढाँचे में समाज का कलेवर खड़ा होता है। हम अपने समाज और संसार को समर्थ समृद्ध और सुविकसित बनाना चाहते हों तो उसका सर्वप्रमुख उपाय यही है कि वर्तमान दार्शनिक विकृतियों का परिशोधन किया जाए।

यदि इस स्थिति को सुधारा, संभाला और बदला न गया तो भावी परिस्थितियाँ दिन-दिन अधिक भयावह होती चली जाएंगी। वैयक्तिक जीवन में आदर्शवादिता और उत्कृष्टता उत्पन्न वाला जब प्रकाश ही बुझ जाएगा तो अन्धकार में भटकने वाला दुर्दशाग्रस्त ही होगा। लोग बुराई की ओर बढ़ते और बुरी परिस्थितियाँ पैदा करेंगे। इससे सर्वत्र दुर्गन्ध और दुर्गति ही दृष्टिगोचर होगी। और हम सब पारस्परिक विद्वेष, असहयोग एवं छल−छद्म की आग में जलकर सामूहिक आत्म-हत्या कर लेंगे।

आज की महत्तम आवश्यकता यह है कि हमारा तत्वज्ञान और दर्शन अपने सौम्य पथ से भ्रष्ट होकर जिस अवाँछनीय दिशा में चल पड़ा है, उसे रोका और टोका जाय। दिग्भ्राँत जन-मानस को वस्तुस्थिति से परिचित कराया जाय और अध्यात्म के महान स्वरूप, उपयोग एवं प्रतिफल से भलीभाँति परिचित कराया जाय। आत्मा की आकाँक्षा पूर्णता के लक्ष्य पर बढ़ने के लिए स्वभावतः उल्लसित होती रहती है, यदि उसे सही मार्ग मिले तो निस्सन्देह उससे व्यक्ति को आत्म-शाँति और समाज को समर्थता एवं सम्पन्नता का लाभ मिल सकता है। पर जब उसे बहका-भटका दिया जाय तो फिर विपथगामिनी धारा विग्रह एवं अवाँछनीय परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करेगी। अस्तु हम अपना सारा प्रयत्न इस तथ्य पर केन्द्रित करें कि जनमानस की आस्थाओं, मान्यताओं, दिशाओं एवं गतिविधियों को प्रभावित करने वाली अध्यात्म पथ भ्रष्टता से विरत होकर उस दिशा में चलें, जिस पर लाखों करोड़ों वर्षों तक हमारे महान पूर्वज चलते और गौरवान्वित होते आये हैं।

चिन्तन की दिशा बदलना ही युग परिवर्तन है। परिवर्तन का केन्द्र-बिन्दु चिन्तन ही है। चिन्तन की बदली हुई दिशायें ही व्यक्ति को विविध विधि भली-बुरी गतिविधियाँ अपनाने के लिए प्रेरित एवं प्रस्तुत करती हैं। निकृष्ट चिन्तन व्यक्ति को दुष्ट, दुराचारी, पतित, पिशाच, उच्छृंखल एवं अवाँछनीय स्तर का बना सकता है और यदि चिन्तन की धारा उत्कृष्टता की ओर मुड़ जाय तो वही व्यक्ति सन्त, सज्जन, महान, विचारवान, विद्वान एवं परमार्थ परायण बनकर देवत्व की भूमि का सम्पादन कर सकता है।

अशुद्ध चिन्तन मनुष्य को लोभी, स्वार्थी, कृपण, शोषक तथा संग्रही बनाता है, यदि वह अशुद्ध, शुद्ध हो जाय तो वही व्यक्ति अपनी संपदा एवं विभूति को लोक-मंगल के लिये उत्सर्ग करके अपना जीवन धन्य बनाने तथा दूसरों को आदर्शवादी प्रेरणायें देने में समर्थ हो सकता है। व्यक्ति तथा समाज का हित अनहित वर्तमान और भविष्य उनकी आस्थाओं तथा चिन्तन की धाराओं पर निर्भर है। हमें इसी मर्म स्थल का स्पर्श करना चाहिए और उन उपायों को खोज निकालना चाहिए कि समग्र चिन्तन की—अध्यात्म की धारा सत्पथ गामिनी बनकर विश्व-मंगल की संभावनाएँ मूर्तिमान कर सके।

विवेकवान दूरदर्शी और प्रबुद्ध वर्ग के समस्त प्रयास उसी दिशा में केन्द्रीभूत होने चाहिएं कि जनमानस का प्रवाहित होने वाला समग्र चिन्तन अध्यात्म वर्तमान निकृष्ट स्तर से ऊँचे उठे तथा उत्कृष्टता की आस्थाओं से अनुप्रमाणित रह सके। इसी एक प्रक्रिया पर मानव-जाति का भविष्य निर्भर है। सुख-सुविधाएँ बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किया जाता रहा है, किन्तु चिन्तन न बदला तो विज्ञान तथा धन द्वारा उपलब्ध हो सकने वाली विपुल सुविधाएं भी हमें सुख-शाँति से वंचित ही करती रहेंगी। अंतरंग में जलने वाली दुर्बुद्धि की आग शाँति और सुव्यवस्था को भस्म करके ही छोड़ेगी।

हमारा ज्ञान-यज्ञ इसी महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए है। इसकी सफलता, असफलता पर भावी शाँति अथवा विपत्ति की सम्भावनाएँ जुड़ी हुई हैं। प्रबुद्ध परिजनों का कर्त्तव्य है कि वे इस महान अभियान को सर्वांगीण सफलता की ओर अग्रसर करने में अपना योगदान देने में कुछ उठा न रखें।

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