बच्चे यों न बढ़ाइये कि उन्हें पालते-पालते मर जाइये

February 1970

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साइक्लोपटेरस नाम की मछली एक बार में 8000 से लेकर 1360000 तक अंडे देती है। मनुष्यों की तरह उसकी भी यह मूढ़ मान्यता है कि बच्चे सौभाग्य का प्रतीक होते हैं। अपनी इस मूर्खता के कारण ही उसका जीवन सदैव संकट में बीतता है।

मादा अपने पति की कामुक वृत्ति का लाभ लेती है। अण्डे दिये और पति को सौंपे। आप तो घूमने-फिरने निकल गई और पति महोदय पर उस तरह बोझ आ पड़ा, जैसे अन्धाधुन्ध बच्चे करने वाले पुरुषों पर उनके भरण-पोषण, आजीविका, वस्त्र, शिक्षा आदि का दबाव पड़ता है। न तो लड़कों को पौष्टिक आहार मिल पाता है, न विकास की समुचित परिस्थितियाँ। उसका परिवार छाती का पीपल बना उसे ही त्रास देता रहता है।

नर इस बड़े ढेर को कभी सिर, कभी पूँछ से हिलाता रहता है। फिर भी कई बार उन्हें पर्याप्त शुद्ध जल नहीं मिल पाता, आवश्यक ऑक्सीजन नहीं मिल पाती। सैकड़ों अण्डे इसी में मर जाते हैं। जो बच जाते हैं वे भी अधिकाँश कमजोर और बीमार ही बने रहते हैं।

शक्तिशाली निर्बलों को खा जाते हैं, किसी को इसका उदाहरण देखना हो तो बहुसंख्यक संतानों वाली इस मछली को देख लें। छोटी-छोटी मछलियाँ भी इसे चारों तरफ से सताती रहती हैं। कौवे तथा बगुले आदि पक्षी तो इसके लिए यमराज हैं। वे चोंच मार-मारकर नर को अधमरा कर देते हैं और अच्चे-बच्चे खा पीकर बराबर कर देते हैं।

फिर भी शायद प्रकृति ने उसे इसलिए पैदा किया है कि मानो वह मनुष्य के लिए उदाहरण छोड़ना चाहती हो-देख लो संतान की संख्या बढ़ाने, अपनी समर्थता का बिलकुल ध्यान न देने का यही परिणाम होता है।

इतना होने पर भी न नर जानता है, न मादा। हर तीसरे महीने फिर वही, उतने ही अण्डों की फौज तैयार कर देते हैं। नर अपनी कामुकता का शिकार होता है। मादा तो फिर घूमने निकल जाती है और नर महोदय को फिर वही संकट और संकट वाला जीवन। सबसे अधिक बच्चे पैदा करने वाला, जीवन भर भय-ग्रस्त कमजोर और आपत्तियों में डूबा हुआ। उसे न कभी समुद्र में सैर का आनन्द मिल पाता है, न तरह-तरह की वस्तुयें खाने-पीने का। थोड़े ही दिन में परलोक की तैयारी करने लगता है।

कार्डफिश भी ऐसी ही मछली है, एक बार में 6000000 अण्डे देने वाली। इस मछली का ही तेल है जो औषधियों के काम में लिया जाता है। कमजोर होने के कारण अपनी सुरक्षा भी नहीं कर पाती। सारे समुद्र में कुल पाँच होतीं पर स्वस्थ और समर्थ होतीं तो क्योंकर यह दवा होती।

तरबोट मछली 9000000 अण्डे देती हैं। बच्चे भोजन के टुकड़ों पर ऐसे लड़ते हैं, जैसे माँस के एक टुकड़े के लिए कई चीलें। यादवों की तरह का मुशल पर्व मनता है, सारे बच्चे लड़-झगड़कर मर जाते हैं। यही दशा कमजोर नस्ल वाली लिंग मछली की होती है, यह एक बार में 28000000 अंडे देती है।

परिवार नियोजन की चर्चा होती है, तब अनेक भावुक हिन्दू यह आक्षेप लगाते हैं कि सरकार पक्षपात करती है मुसलमानों पर वह संतान सीमा बंध का दबाव नहीं डालती। ऐसे लोगों को अनुभव करना चाहिए कि संसार में संख्या नहीं, समर्थता जीतती है। एक भेड़िया सैकड़ों बकरियों को मार डालता है। कहते हैं कि सिंह के सारे जीवन में दो ही बच्चे होते हैं पर उनकी शक्ति और सामर्थ्य के सामने जंगल के हाथी, गैंडे जैसे भीमकाय जीव भी पानी भरते हैं। भले ही पक्षपात हो पर हमें मुसलमानों की संतान सीमा का भय नहीं करना चाहिए। थोड़ी संतान हो पर स्वस्थ और समर्थ हो तो हम विश्व-विजयी बन सकते हैं। पर सत्तर करोड़ चीनी बनने से तो हम अपने आप में ही संकट खड़ा कर लेंगे।

संख्या ही बलवान होती तो आइस्टर सीप संसार में सबसे शक्तिशाली होती। एक जोड़ा आइस्टर एक वर्ष में 66000000000000000000000000000000000 अंडे देता है। इनका ढेर बनाया जाये तो यह पृथ्वी के आकार से आठ गुना बड़ा हो पर यह स्थिति आने ही नहीं पाती। समुद्र के छोटे जीव भी इनकी असमर्थता का लाभ उठाते हैं, थोड़े ही दिन में वे इन्हें खा-पीकर बराबर कर देते हैं।

यदि इन समुद्री जीवों में हम शिक्षा ले पाये तो फिर संख्या का लोभ न कर अपनी जाति की समर्थता विकसित करने का प्रयत्न करें, उसी से हम संसार में विजयी हो सकते हैं। संसार में सिंह के सदृश सिरमौर हो सकते हैं।

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