जीवन क्रियाशील और ऊर्ध्वगामी बने

February 1970

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यों संसार में जीवों की संख्या 84 लाख है परमात्मा के दिये गये अनुदानों का अधिकाँश भाग मनुष्य के हिस्से में आया। गाय, बैल, भैंस, हिरन, भालू, शेर-चीते, गधे, घोड़े, बकरियाँ, बंदर, खरगोश, तीतर, शुतुरमुर्ग, गौरैया, गुबरैला, चींटी, मक्खी-मच्छर इन सब की एक-एक प्रति इकट्ठी करें और देखें कि उनके हिस्से में रहने के लिए, सोने, पहनने, खाने, उठने-बैठने, लिखने-पढ़ने, परिवार बनाने की सुविधाएं कितनी उपलब्ध हैं तो पता चलेगा कि एक मनुष्य को प्राप्त सुविधाओं से भी उनकी सुविधायें कम बैठेंगी। ज्यादा क्रियाशील और सृष्टि के उपयोगी प्राणियों या तत्वों को भगवान ने ज्यादा सुविधाएं दीं, वह अकारण नहीं सोद्देश्य है। यह क्षमतायें और सम्पत्तियाँ इस विश्वास के साथ दी जाती हैं कि मनुष्य उनका उपयोग, अपने साथ-साथ समाज, राष्ट्र और विश्व के प्राणिमात्र के कल्याण के लिये करेगा। यदि मनुष्य इन ईश्वरीय अनुदानों का उपयोग अकेला अपने ही स्वार्थ और इन्द्रिय लिप्सा में करता है तो उसे ईश्वर का अयोग्य उत्तराधिकारी मनुष्येत्तर प्राणियों से भी गया बीता कहा जायेगा।

सभी प्राकृतिक तत्व इस ईश्वरीय नियम का पालन करते हैं तो मनुष्य को भी क्यों न करना चाहिए? नाइट्रोजन गैस प्रकृति का एक ऐसा तत्व है, जो मनुष्य को एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाता है। उससे मनुष्य को यह शिक्षा मिलती है कि बड़ी शक्तियों को सदैव क्रियाशील रहकर संसार की भलाई में जुटे रहना चाहिए। उसे संसार में स्वयं भी आसक्त नहीं हो जाना चाहिए।

नाइट्रोजन और ऑक्सीजन को वर्षाकाल में विद्युत अलग करती है। बादल आये, हवा चली, उनमें रगड़ से विद्युत चमकी और उसने उत्प्रेरक का काम किया। जिस प्रकार परमात्मा की इच्छा से यह पंचतत्व वाला भौतिक शरीर अस्तित्व में आ जाता है और फिर अपने विकास के प्रयत्नों में जुट जाता है, उसी प्रकार बिजली चमकने से ऑक्सीजन और नाइट्रोजन दोनों में प्रतिक्रिया होती है और नाइट्रोजन पंच ओषित (नाइट्रोजन पेन्टा ऑक्साइड) बन जाता है। और इस प्रकार नाइट्रोजन अपनी जीवन यात्रा के लिए सुचारु रूप से निकल पड़ता है।

मनुष्य की उत्पत्ति भी इसी प्रकार ईश्वरीय इच्छा या संयोग है। हमें मालूम नहीं कि नाइट्रोजन में क्या किसी प्रकार का जीवन है? पर मनुष्य के संबंध में ऐसा कोई धोखा नहीं। उसे जो शक्तियाँ, सुविधाएं और सामर्थ्य उपलब्ध हैं, उन्हें देखकर यह सहज ही में विश्वास हो जाता है कि उसका जन्म किसी विशेष उद्देश्य के लिए हुआ है पर न तो संरक्षण पीढ़ी ही उसके इस लक्ष्य पर ध्यान देती है और न स्वयं मनुष्य ही यह सोचता है कि हम संसार में क्यों आये, यहाँ आकर क्या करें कि मनुष्य जीवन में आना सार्थक हो।

बिना कोई लक्ष्य बनाये मनुष्य अंतरिक्ष कीट की तरह इधर-उधर भटकता, आप भी मरता और दूसरों के लिए भी संकट उत्पन्न करता है। योजना-बद्ध जीवन जीने वाले मनुष्य यदि अपना आध्यात्मिक लक्ष्य न भी पूरा कर सकें तो भी वह बिना औरों को हानि पहुँचाये अपनी उन्नति करते रहते हैं, अपनी उन्नति का लाभ वह कई समान विचार-धारा वाले मित्रों को भी देते रहते हैं।

पंच ओषित नाइट्रोजन (नाइट्रोजन पेन्टा ऑक्साइड) जल में मिलकर शोरे का तेजाब (नाइट्रिक एसिड) बन जाता है। जिन्हें संसार की कुछ सेवा करनी होती है, वह परिस्थितियों से डरते या संघर्ष में शक्ति नहीं गंवाते वरन् जो भी उन्हें मिलता उसी से मिलकर उसकी कोई न कोई अच्छाई ग्रहण कर अपनी शक्ति बढ़ाते और अपना उद्देश्य पूरा करते रहते हैं। गुणी मनुष्य को पाने की सभी की इच्छा की तरह इस शोरे के तेजाब (नाइट्रिक एसिड) को पृथ्वी सोख लेती है। पृथ्वी कोई एक वस्तु, पदार्थ या धातु नहीं भी तो अनेक खनिज लवण और धातुओं का सम्मिश्रण है।

शोरे का तेजाब पृथ्वी में पाये जाने वाले लवण से प्रतिक्रिया करता, उससे नाइट्रेट लवण बन जाता है। नाइट्रोजन का इतना सब परिश्रम पृथ्वी की सतह तक पहुँचने के लिए होता है। महापुरुष संसार का उपकार करने के लिए छोटे से छोटे व्यक्ति का भी विश्वास प्राप्त करते हैं और तब उनके अंतःकरण में प्रविष्ट होकर अपनी विशेषताओं के बीज प्रकट कर उसके विकास में सहायक होते हैं, यह अनुभूति नाइट्रोजन की इस अवस्था से सहज ही में मिलती है।

पौधों की जड़ें इस समय पास होती हैं, वह नाइट्रोजन लवण से नाइट्रोजन उसी तरह खींच लेती हैं, जिस प्रकार किसी महापुरुष के संपर्क में आने से चतुर लोग उनके स्वभाव की बारीकियों को पढ़कर अपने जीवन में धारण कर लेते और अपनी योग्यता, महत्ता एवं उपयोगिता बढ़ा लेते हैं। जड़ें नाइट्रेट लवण से खींचे हुए नाइट्रोजन का लाभ अपनी मोटाई बढ़ाने में नहीं करती वरन् सन्त-पुरुष जिस तरह अपनी धन, सम्पत्ति, तप और योग्यता का लाभ सारे शरीर को देते रहते हैं, उसी प्रकार जड़ें नाइट्रोजन को सारे वृक्ष-तने, डालों, पत्तियों और फल-फूलों में पहुँचाती रहती हैं।

मनुष्य मर जाते हैं पर उनके कारण शरीर कभी नष्ट नहीं होते, सच पूछा जाय तो महापुरुषों के शरीर हाड़-माँस के नहीं गुणों के बने होते हैं और जन्म-जन्मान्तरों तक बरतते रहते हैं। नाइट्रोजन जिसे पत्तियों, फल-फूलों टहनियों ने सोख लिया था। उनके सूख जाने पर भी विद्यमान रहता है। पत्ते आदि सूख कर पृथ्वी में गिर जाते हैं या हरे होने पर जानवरों द्वारा चर लिये जाते हैं। दूसरी अवस्था में वह शरीर के उपयुक्त न होने पर मल-मूत्र के द्वारा अमोनिया के रूप में बाहर निकल आता है। मृत्यु हो जाने पर भी यह जानवरों के शरीर से बाहर आ जाता है, पहली अवस्था में भी वह पृथ्वी में आ जाता है और इधर-उधर बिखर जाता है।

कुसमय में लोग कई बार ऐसे हताश हो जाते हैं कि अपने हाथ-पाँव भी हिलाना बंद कर देते और विनाश को निमंत्रण दे लेते हैं पर नाइट्रोजन ऐसी अवस्था में भी धैर्य नहीं खोता। बाहर से जान पड़ता है कि पत्ते सूख गये और नाइट्रोजन समाप्त हो गया, लेकिन ऐसा नहीं होता, वह इस विषम स्थिति में अपने सहारे की खोज करते रहते हैं। जिन खोजा तिन पाइयाँ वाली कहावत चरितार्थ होती है, वर्षा का पानी गिरा और नाइट्रोसीफाइंग बैक्टीरिया नामक जीवाणु ने पत्तों को सड़ाकर नाइट्रोजन को अमोनियम नाइट्रेट या नाइट्रेट लवणों में बदल दिया। उपकारी मनुष्य को एक-एक अनेक सहयोगियों की तरह एक दूसरा बैक्टीरिया जिसे डिनाइट्रेफाइड कहते हैं, से भेंट होती है और वह अमोनिया नाइट्रेट या नाइट्रेट लवणों को नाइट्रोजन में बदल देता है और इस तरह वह नाइट्रोजन पुनः वातावरण में विलीन हो जाता है।

नाइट्रोजन मरुत देव की त्रिगुणात्मक शक्ति का एक अंश है। हमारे वेदों और उपनिषदों में मरुत देवता के गुणों की प्रशंसा की गई है, उसका कारण यही है कि उनकी यह शक्ति ही पृथ्वी पर वृक्ष और वनस्पति को जीवन देती रहती है। काल-चक्र रुक सकता है पर वह शक्ति अपने नियम व्रत का उल्लंघन यों नहीं करती कि उससे सारे प्राणी जगत को पोषण और शक्ति मिलती है।

ब्रह्मांड की एक विलक्षण शक्ति के रूप में नाइट्रोजन का अवतरण और एक जीवन व्रत बनाकर प्राणि मात्र के कल्याण के लिए आवागमन के चक्र में पड़े रहने से मनुष्य को बड़ी प्रेरणायें मिलती हैं। हम भी किसी अज्ञात शक्ति की इच्छा और अंश से जीवन धारण कर रहे हैं पर हम न तो मनुष्य शरीर में आने के उद्देश्य को पहचानते हैं, न उसे पूरा करते हैं, होना यह चाहिए था, साँसारिक प्रपंच से उतना फंसते हैं, जितना आत्म-विश्वास के लिए आवश्यक होता है। सेवा औरों का उत्थान और आत्म-प्रगति के लिए सहयोगी तत्वों का अर्जन नाइट्रोजन की तरह मनुष्य को भी इन तीनों में समरूप बने रहकर अपना लक्ष्य पूरा करना चाहिए पर ऐसा होता कहाँ है, हम तो अपने ही स्वार्थों की इन्द्रिय सुखों की अधोगामी मृग मरीचिका में भटकते रहते हैं।

सद्गुणों का विकास करने वाले व्यक्ति को दैवी प्रतिभायें साथ देती हैं, वह मनुष्य से क्रमशः देवत्व और ईश्वरत्व को श्रेणी में बदलता चला जाता है, यही आत्म-कल्याण, मोक्ष, परमपद, स्वर्ग-मुक्ति या ब्रह्म-निर्वाण की स्थिति है। जिसमें एक ही अणु-आत्मा की शक्ति करोड़ों गुना परिवर्द्धित हो जाती है।

दुर्गुणों में ग्रस्त आत्मायें पशु-शरीरों में गये उस नाइट्रोजन की तरह हैं, जो अमोनिया आदि के रूप में पृथ्वी पर गिरती, पृथ्वी द्वारा सोख ली जातीं और फिर उन्हीं वृक्ष-वनस्पतियों की योनियों में भ्रमण करती रहती हैं। नाइट्रोजन-चक्र में तो यह संभावना बहुत थोड़ी होती है पर बुद्धिमान होते हुए भी मनुष्य इतना मूर्ख और अज्ञानग्रस्त है कि वह अनेक बार फिर उन्हीं द्वेष दुर्गुणों में आकर्षित होता रहता, पाक पंक में फँसता और निकृष्ट योनियों का जीवन जीता रहता है।

हम ऊर्ध्वगामी प्रवृत्तियों द्वारा आत्मा का विकास कर अजय आनन्द और पूर्णता प्राप्त करें अथवा बार-बार कष्टदायक योनियों में मारे-मारे फिरें, यह अपने वश की बात है, उसके लिए न तो बाह्य परिस्थितियाँ दोषी हैं, न परमात्मा। मनुष्य अपना अधःपतन आप करता है। और अपने उद्धार का उत्तरदायी भी वह स्वयं ही है।


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