मद्यपान महामारी और महायुद्ध से भी अधिक भयंकर

February 1970

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इंग्लैंड के प्रधान-मंत्रियों में सबसे प्रसिद्ध प्रधानमंत्री श्री लिस्टर ग्लैडस्टन हुये हैं। उन्होंने इंग्लैंड और यूरोप में बढ़ रही मद्यपान की दुष्प्रवृत्ति का गहराई तक अध्ययन किया। जो निष्कर्ष उन्होंने निकाले उनसे वह स्वयं भी चौंके बिना नहीं रह सके। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा- “हम जब मनुष्य जाति पर आई विपत्तियों का ध्यान करते हैं तो पता चलता है कि तीन बड़े से बड़े ऐतिहासिक युद्ध, महामारी और अकाल ने भी मनुष्य को शायद उत्पीड़ित नहीं किया जितना शराब ने।

इन आँकड़ों से यह सहज ही पता लगाया जा सकता है कि शराब मनुष्य के लिए पेय पदार्थ नहीं है। शराब जिन वस्तुओं से बनाई जाती है, वह अपने स्वाभाविक रूप में सभी खाद्य हैं, किन्तु यदि उन्हें सड़ाकर किसी को खाने को दिया जाए तो वह मनुष्य, खाना तो दूर उन्हें सूँघेगा भी नहीं, किन्तु कितना बड़ा दुर्भाग्य है मनुष्य जाति का, कि वह सी सड़े हुये पदार्थ के आसव—शराब को शौकिया पीना अपने स्वास्थ्य और जीवन को कष्ट करता रहता है।

डॉक्टरों की रिपोर्ट के अनुसार शराब पीने वालों में से 27.1 प्रतिशत मस्तिष्क रोग से 26.99 प्रतिशत फेफड़े के रोग से, 23.30 प्रतिशत अपच रोग से मर जाते हैं, जीवित भी रहते हैं, वह अर्द्ध-मृत अवस्था में। भारत वर्ष के पागलखानों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि पागलों की संख्या का 60 प्रतिशत भाग वह है, जिसने शराब पी-पीकर अपना मस्तिष्क विकृत कर लिया है। दुर्भाग्य है हमारे देश का कि आज वह पश्चिम की बुरी आदत को तेजी से अपनाता और बुराइयों की जड़ सींचता चला जाता है, जबकि इन बुराइयों से अवगत होने के बाद करोड़ों अंग्रेज शराब छोड़कर शुद्ध शाकाहारी जीवन की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

शराब एक ऐसा तरल (लिक्विड) है, जिनमें शरीर के लिए आवश्यक प्रोटीन आदि कोई भी तत्व नहीं होता। यकृत उसे पचा नहीं सकता, इसलिए उसे सीधे हृदय में पहुँचा देता है। हृदय में वह खून के साथ मिलकर मस्तिष्क की ओर चल पड़ता है। मस्तिष्क को उसके प्रवाह की सूचना तो मिल जाती है पर वह उसे रोकने में असमर्थ होता है, क्योंकि शराब के प्रभाव को रोकने वाला कोई अवरोधक उसके पास नहीं होता, फलतः वह शराब के दुष्प्रभाव में आ जाता है। उसके ज्ञान एवं तर्क तंतुओं की क्षमता नष्ट हो जाती है। वाणी, हाथ-पैर की क्रिया दृष्टि आदि सभी इन्द्रियाँ अनियन्त्रित हो जाती हैं। मनुष्य को भगवान ने बुद्धि, विवेक तर्क और ज्ञान की यह शक्तियाँ किसी महत्वपूर्ण उपयोग के लिये दी होती हैं पर जब वही मनुष्य के कल्याण के विपरीत काम करने लगती हैं तो मनुष्य की मूर्खता स्पष्ट हो जाती है। मस्तिष्क ईश्वरीय चेतना का युक्त रूप और बड़ा संवेदनशील होता है। उसकी यह दुर्दशा कितनी लज्जाजनक है, इसे प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को सोचना तथा समझना चाहिए।

मानवीय प्रकृति और भगवान् का दिया हुआ शरीर आत्म-चेतना की शक्ति सुख सुविधायें बढ़ाने के लिए होते हैं पर ऐसी अवस्था में सारी व्यवस्था को शरीर की अधिकतम सफाई में लगा देना पड़ता है। गंदगी इतनी बढ़ जाये कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सबको भंगी का काम करना पड़ जाये तो समाज की दूसरी व्यवस्थायें जैसे ज्ञान और सद्बुद्धि, शक्ति और सुरक्षा उत्पादन और समृद्धि की आवश्यकतायें कैसे पूरी की जा सकती हैं? स्पष्टतया ऐसे समाज को अकाल और महामारी का मुख देखना पड़ जाता है। हमारे शरीर की भी ठीक वैसी ही दशा है, यदि तमाम आन्तरिक अवयव (इन्टरनल आर्गन्स) शरीर को साफ करने में ही लगे रहें तो शरीर को रोग से बचाना, उसे बलवान और बुद्धिमान बनाना कहाँ संभव होगा? निश्चित ही वह दुर्दशा का शिकार हो जायेगा, आज पाश्चात्य देशों में यही तो सब कुछ हो रहा है।

प्रकृति ने नाड़ी संस्थान द्वारा यह व्यवस्था तो की है कि कुछ दण्ड देकर शरीर की गंदगी और विष को बाहर निकाला जाता रहे पर यह अस्वाभाविक दबाव की स्थिति में नहीं हो सकता। शराब गुर्दों में पहुँचा दी जाती है। गुर्दों के बीस लाख कोष (सेल्स) इस शराब के विष को किसी तरह छान तो डालते हैं पर उसकी प्रतिक्रिया में स्वयं संरक्षण नहीं कर सकते और वे धीरे-धीरे अस्वस्थ होने लगते हैं। यह विष गुर्दों की कोशिकाओं (कैपलरीज) को खरोंचता रहता है, जिससे उनमें खुरदरापन आ जाता है। इस खरोंचे हुए भाग में कैल्शियम जमने लगता है और रक्त प्रवाह में बाधा पहुँचाने लगती है, इससे गुर्दे में दर्द भी बढ़ता है और यहाँ की कोशिकायें मोटी भी हो जाती हैं।

इन दो बीमारियों के लिए स्थिर निवास स्थान बना कर ही शराब शरीर से बाहर निकलती है। हाई-ब्लड प्रेशर भी इसी कारण बढ़ता है। गुर्दे में इस कार्यवाही के कारण जननेन्द्रिय (जैनिटल आर्गेनिज्म) में उत्तेजना (इरीटेशन) बढ़ती है। आज पाश्चात्य देशों में कामवासना एक स्वतंत्र समस्या बन खड़ी हुई है, देखना पड़ेगा क्या उसे मद्यपान की दुष्प्रवृत्ति को रोके बिना हल किया जा सकता है?

जेनेवा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. एल. रेविलियोड और डॉ. पालबिनेट ने डाक्टरी अनुसंधान के आधार पर बताया कि शराब पीने वालों का पेट भीतर ही भीतर सिकुड़कर ऐसे हो जाता है, जैसे उसमें चर्बी बढ़ जाती है, जिससे पेट में कोई न कोई शिकायत बनी रहती है, शराब यकृत (लिवर) के कोषों (सेल्स) को नष्टकर डालती है, जिससे शराबियों को और उनकी संतानों को लिवर की बीमारी प्रायः हो जाती है। क्षय की यह मात्रा हर बार शराब पीने से बढ़ती ही जाती है।

शराब के स्थान पर यदि जल की पर्याप्त मात्रा लेते रहें तो उसमें स्वास्थ्य और सौंदर्य की वृद्धि होती है, शक्ति का भी विकास होता है। यदि हम बराबर पानी पीते रहें अर्थात् प्यास न लगे, तब भी थोड़ा-थोड़ा पानी पीने का अभ्यास रखें तो अपने आपको आजीवन नीरोग रख सकते हैं। डाक्टरों के अनुसार पानी पीते रहने से 24 घंटे में हृदय की धड़कन 100000 बार होती है, यदि कोई एक औंस शराब पी ले तो यह धड़कन 1043000 होने को बाध्य होगी। 2 औंस में 8600 धड़कनें बढ़ती हैं, यदि और मात्रा बढ़ाकर तीन औंस कर दी जाए तो कुल धड़कनों की संख्या 112900 हो जायेगी और इससे हृदय की कार्य क्षमता पर असाधारण दबाव पड़ेगा। किसी से भी आवश्यकता से अधिक काम लेने का अर्थ होता है, उसे मारना। शराब पी-पी कर हम अपने आपको मारते रहते हैं।

बराबर शराब पीते रहने से शरीर के कोमल तन्तु जो जल, भोजन एवं रसों को पचाकर रक्त बनाते और सारे शरीर को शक्ति देते रहते हैं, मुरझाने लगते हैं थोड़े दिन में यह अपना काम बंद कर देते हैं, कई तन्तु तो मर ही जाते हैं, रक्त बनना बंद हो जाने से शरीर में पीलापन आने लगता है। शराब का प्रभाव प्रजनन कोषों पर पड़ता है, जिनसे जन्मजात बीमार बच्चे पैदा होते हैं, उनके पेट और मूड़ बड़े होते हैं, जबकि पसलियाँ, हाथ-पाँव और गर्दन की हड्डियाँ बहुत कमजोर और सूखी होती हैं, उनमें से कई को निमोनिया, श्वास, तपेदिक सूजन आदि की बीमारियाँ भी होती हैं, इस तरह अपनी बुराई अपनी सन्तान को दुख देती है, आने वाली पीढ़ियों को कमजोर और बीमार बनाने का पाप भी उसे उसी प्रकार लगता है, जिस तरह वह अपने शरीर को रुग्ण बनाने का दोषी होता है।

डॉ. फोरबेस बिन्सली ने अनेक शराबियों के जीवन का अध्ययन करके बताया- ‘शराब से कामोत्तेजना बढ़ती जाती है, इससे स्त्री-पुरुष के बीच काम-वासना संबंधी पाप की संभावना बहुत तीव्र हो उठती है।’

सन् 1808 में अमेरिका में इस दुष्प्रवृत्ति के कारण इतनी समस्यायें उठ खड़ी हुईं कि वहाँ की लोकसेवी समस्याओं को इस ओर व्यापक रूप से ध्यान देना पड़ा। चर्चों और धार्मिक प्रतिष्ठानों के माध्यम से वहाँ ‘कम पियो’ आँदोलन चलाया गया। उसके लिए 1851 में ‘इन्डिपेंडेंट आर्डर आफ गुड टैम्पलर्स न्यूयार्क’ में एक संस्था खोली गई, उसकी शाखायें देखते-देखते आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, कनाडा, स्केंडीनेवियन उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका एवं भारतवर्ष में खुलीं और उन्होंने कम आय के लोगों और मजदूरों को तरह-तरह से इस बात के लिए राजी किया कि वे अपने और परिवार, समाज एवं राष्ट्र के हित में शराब या तो बिलकुल न पिया करें अथवा कम पिया करें।

दूसरे देशों में इस दिशा में व्यापक प्रयत्न चल रहे हैं। वहाँ का प्रबुद्ध और विवेकशील वर्ग इस बात के लिए प्रयत्नशील है कि शराब का पान जितना कम किया जा सके, उतना ही अच्छा है। किन्तु भारतवर्ष जैसे शुद्ध शाकाहारी देश में यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। यहाँ के लोक-सेवी सज्जनों को इसके लिए व्यापक आँदोलन चलाना चाहिए था पर राज्य सरकारों की छूट के कारण उनमें शिथिलता ही रही और इस तरह यहाँ यह बुराई बढ़ती ही गई। यदि भारतवर्ष का यह हाल हो सकता है तो दूसरे देशों का तो कहना ही क्या, इसलिए यदि हम संपूर्ण विश्व को महामारी और महायुद्ध जैसे पातक से बचाना चाहते हैं तो मानव स्वभाव के इस दूषित अंग को उखाड़ने का पुरजोर प्रयत्न करना ही होगा।

=कोटेशन======================================================

और आनन्द तो सर्वत्र है। आनन्द धरती के हरित दूर्वादुकूल में है, आकाश की अक्षोभ्य नीलिमा में है, वसंत की अविचारी उर्वरता में है, आभा विहीन शिशिर की कठोर व्रतचर्या में है, काया के पंजर में प्राण-संचार करने वाले जीवन्त माँस-मज्जा में है, उदात्त और उच्छृत मानव-शरीर के अनिंद्य संतुलन में है।

आनन्द जीने में है, अपनी समस्त शक्तियों का उपयोग करने में है, ज्ञान के उपार्जन में है, बुराई से लड़ने में है, और ऐसी उपलब्धियों के लिए प्राणोत्सर्ग करने में है, जिनका उपयोग हम करने वाले नहीं हैं।

वह देह और आत्मा की भाँति है। आनन्द अद्वैत की-विश्व के साथ आत्मा के, और परम प्रेमी के साथ विश्वात्मा के अद्वैत की-सत्यता की अनुभूति है।

—रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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