प्राचीनकाल में भारत अपनी उन्नति के चरम शिखर पर विराजमान था। यह ऋषि-मुनियों का देश जगतगुरु कहा जाता था। किसी देश का वास्तविक गौरव उसकी भूमि, वनस्पति, प्राकृतिक वैभव अथवा जलवायु के आधार पर निश्चित नहीं होता है। वह होता है, वहाँ के जनगण के विकास उसके आचार-विचार और आचरण के आधार पर। प्राचीनकाल में इस देश के निवासी आध्यात्मिक जीवन पद्धति अपनाकर नर-रत्नों, महापुरुषों, पराक्रमियों, सदबुद्धियों के रूप में सुखी, सम्पन्न और दीर्घ-जीवन का गौरव पाते थे। गरीब से लेकर अमीर तक और श्रमिक से लेकर शासक वर्ग तक ऐसा कदाचित ही कोई व्यक्ति होता था, जो जीवन में अध्यात्मवाद का समावेश करके न चलता हो। इसी आध्यात्मिक जीवन पद्धति के कारण ही यहाँ के लोग बड़े ही आदर्श और उच्च भावी होते थे। और अपने साथ-साथ अपने देश को भी गौरवान्वित करते थे।
अध्यात्म मानव-जीवन की सफलता का बहुत बड़ा आधार है। जीवन में अध्यात्म का समावेश किये बिना कोई मनुष्य सच्ची सफलता का अधिकारी नहीं बन सकता। लौकिक अथवा भौतिक विभूतियों की उपलब्धि ही जीवन की सफलता नहीं है। मानव-जीवन की वास्तविक सफलता है अखण्ड एवं अक्षुण्ण आँतरिक सुख-शाँति एवं संतोष की उपलब्धि। अंतर की यह माँगलिक स्थिति आत्मिक स्वास्थ्य पर निर्भर है। आत्मिक स्वास्थ्य के बिना बाह्य जीवन निःशक्त असफल एवं संतापयुक्त ही रहता है, फिर चाहे उसमें भौतिक विभूतियाँ और लौकिक सम्पदायें कितनी ही प्रचुर मात्रा में क्यों न उपलब्ध हों।
भारत के समाज हितैषी ऋषि मुनि मनुष्य की वास्तविक सफलता और उसके लिए अध्यात्मवाद की आवश्यकता में अच्छी तरह अवगत थे। वे अवश्य ही चाहते थे कि यदि जन-साधारण अध्यात्म के अलौकिक स्तर पर भले ही न पहुँचे तथापि वे अपने जीवन में इतना अध्यात्म तो अवश्य ही ग्रहण करें, जिससे वे अपने सामान्य जीवन में पूरी तरह से सुखी, सन्तुष्ट और शाँत रह सकें। इसी मन्तव्य के अन्तर्गत उन्होंने अपने जनगण के लिए सामान्य साधना, स्वाध्याय और प्रातः तथा सायंकालीन संध्या-वंदन का नियम अनिवार्य बना दिया था। जो लोग प्रमादवश इस अनिवार्य नियम का पालन नहीं करते थे, उन्हें या तो समाज-बाहर माना जाता था अथवा पतित तथा पापी।
भारतीय समाज आज जिस हीनावस्था में दिखलाई दे रहा है, उसका कारण यही है कि उसने अपने जीवन से आध्यात्मिक आदर्शों का एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया है। कोरे भौतिक-आदर्श को अपनाकर चलने से जीवन के हर क्षेत्र में उसकी गतिविधि दूषित हो गई है। उसका चरित्र और आचरण निम्नकोटि का हो गया है। इस आदर्शहीन जीवन का जो परिणाम होना चाहिए, वह रोग-दोष, शोक-सन्ताप के रूप में सबके सामने है। साधन सामग्री और अवकाश व अवसर होने पर भी कहीं भी किसी ओर सुख-शाँति के दर्शन नहीं हो रहे हैं। दुर्भाग्य से आज देश में उल्टी विचार-धारा चल पड़ी है।
पहले जो लोग अध्यात्मवाद का आश्रय लेकर चलते थे, वे ही सभ्य, शिष्ट और सुसंस्कृत माने जाते थे। किन्तु आज सभ्यता का तमगा उन लोगों के पास माना जाता है, जो अध्यात्म के प्रति उपेक्षा और तिरस्कार का भाव रखते हैं। जो लोग अध्यात्म की, लोक-परलोक की, धर्म-कर्म की बात करते हैं, उसे मूर्ख, प्रतिगामी और पिछड़ा हुआ समझा जाता है। आध्यात्मिक विचारधारा के लोगों का उपहास किया जाता है। जिस समाज की विचारधारा इस प्रकार प्रतिकूलतापूर्ण हो गई हो, उसके सुख-सौभाग्य अस्त हो ही जाना चाहिए।
अध्यात्मवाद की उपेक्षा का जहाँ मुख्य कारण यह है कि लोग अज्ञानवश भौतिकवाद के वशीभूत हो गए हैं। उन्हें विषय-वासना और भोग, एषणाओं ने बुरी तरह जकड़ लिया है। एक कारण यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि आज अध्यात्मवाद का सच्चा स्वरूप लोगों के सामने नहीं है। यदि अपनी यह प्राचीनकाल वाली उपयोगिता अध्यात्मवाद आज भी उपस्थित कर सकें, अपना वास्तविक स्वस्थ और सच्चा महत्व प्रकट कर सकें तो निश्चय ही उसके प्रति समाज की सारी उपेक्षा और तिरस्कार भाव तिरोहित होते देर न लगे। किन्तु अप्रकटन की स्थिति से किसी सत्य सिद्ध विज्ञान का न तो महत्व ही घट जाता है और न उसकी उपयोगिता ही नष्ट हो जाती हैं। अध्यात्म एक सत्य सिद्ध विज्ञान है। उसका महत्व सदा बना रहा है और सदा बना रहेगा। यह मध्यकालीन अंधकार शीघ्र ही दूर होगा और अध्यात्मवाद मानव-जीवन में अपना समुचित स्थान पाकर समाज का शोक-सन्ताप हरेगा कोई भी अध्यात्मवादी व्यक्ति इस विश्वास से विचलित नहीं हो सकता।
भारतीय अध्यात्मवाद कितना शक्तिशाली विज्ञान है- यदि इसका प्रमाण पाना है तो भारतीय ऋषियों, तपस्वियों और साधकों का जीवन और उनकी घटनाओं को देखना होगा। भारतीय ऋषि-मुनि यदा-कदा आवश्यकता पड़ने पर ऐसे-ऐसे विलक्षण और आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाते थे, जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है। उनके आशीर्वाद से दूसरों का भला और शाप से अहित होने के असंख्यों उदाहरण पुराणों और इतिहासों में भरे पड़े हैं। महात्माओं की आध्यात्मिक शक्ति से भयभीत रहकर बड़े-बड़े बलधारी राजा-महाराजा उनकी प्रसन्नता के लिए विविध उपचार करते रहते थे।
आज भी समाज जिन महात्माओं तथा साधकों की पूजा-प्रतिष्ठा करता है, उसका कारण भी उनका आध्यात्मिक तेज ही है। वैसे सामान्यतः पूजा-प्रतिष्ठा का हेतु धन-वैभव और शक्तिसत्ता आदि का तो उनके पास लेश मात्र भी नहीं होता।
योग शास्त्रों में जिन सिद्धियों और विभूतियों का वर्णन किया गया है, वे वस्तुतः आध्यात्मिक साधना की ही उपलब्धियाँ हैं। योग शास्त्र के अध्येता भली प्रकार जानते हैं कि उक्त शास्त्र की दक्षिण-मार्गी और वाम-मार्गी जिन अलौकिक विभूतियों और सिद्धियों का विस्तार से वर्णन किया गया है, उसके विधि-विधाता के अन्तर्गत अध्यात्म साधना का सार ही सन्निहित है। अध्यात्म साधना में जो व्यक्ति जितनी सीमा तक अग्रसर हो जाता है, वह उस सीमा तक चमत्कारी व्यक्ति बन जाता है। वे ऐसी समर्थ सूक्ष्म-शक्तियों का उपार्जन कर लेते हैं, जिनके द्वारा अभाग्य ग्रस्त लोगों का भी कल्याण सम्पादन किया जा सकता है। अध्यात्म की शक्तियाँ अपार एवं अपरिमेय हैं। इस शक्ति के आधार पर संसार के ऐसे कार्य भी सरलतापूर्वक किए जा सकते हैं, जिन्हें संसार असंभव कह सकता है। अध्यात्म एक सर्वांगीण संपूर्ण विज्ञान है। जिसकी आराधना से साधारण मनुष्य एक चमत्कारी दिव्य पुरुष बन सकता है। अपने इस महान विज्ञान की उपेक्षा करने से ही आज का भारतीय समाज इस अधोगति को प्राप्त हुआ है।
निश्चय ही अध्यात्म की चमत्कारी स्थिति तक सबको पहुँचने की आवश्यकता नहीं है। तथापि इतनी आवश्यकता तो सबके लिए ही है कि वह इसकी साधना से अपने जीवन में सुख-शाँति का समावेश कर सके। ऋषि-मुनियों की अखण्ड आत्म-साधना की हिसु करना उचित नहीं। क्योंकि वह सर्वसाधारण के वश की बात नहीं होती और जो लोग लोभ, स्पर्धा अथवा अहंकार के वशीभूत होकर अपने सामान्य जीवन की साधना से हटकर असाधारण साधना में चले जाते हैं, वे न तो इधर के रहते हैं और न उधर के। यद्यपि अध्यात्म की असाधारण साधना किसी के लिए वर्जित नहीं है तथा यह तब तक उचित नहीं, जब तक मनुष्य उस साधना के योग्य मानसिक स्तर में न पहुँच जाए। ऋषि-मुनियों की तरह चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने के लोभ से जो लोग हठपूर्वक साँसारिक कर्तव्य त्याग कर योग साधनाओं में लग जाते हैं, वे भूल करते हैं और उस ओर का कोई विशेष लाभ तो नहीं ही उठा पाते, इस ओर वे संसार से भी वंचित हो जाते हैं।
ऋषित्व की प्राप्ति किसी एक जन्म की साधना का फल नहीं होता। वह तो जन्म जन्मान्तरों की निर्बाध साधना का ही संचित सत्फल होता है। साधना की सिद्धि साहसिक घटना नहीं है। यह तो जन्म-जन्म की साधन परम्परा का एक सुनिश्चित परिणाम ही होता है। कोई साधक अपने पूर्वजन्मों की परंपरा में अपने आवश्यक कर्त्तव्यों के साथ थोड़ी-थोड़ी अध्यात्म साधना भी करता चलता है। धीरे-धीरे उनका विकास होता और संस्कार संचय होते जाते हैं। कालान्तर में जब संस्कारों की निधि संचय हो जाती है, तब किसी एक जन्म में सारी संचित साधना सिद्धि के रूप में परिपक्व हो जाती है और यह व्यक्ति चमत्कारी शक्तियों का विधान बन जाता है। सामान्य स्थिति से चमत्कारी स्थिति पर पहुँचने की यही सुन्दर, सरल और असंदिग्ध निधि है। साहसिक साधना से किसी लाभ के होने की आशा संदिग्ध ही रहती है।
सामान्य व्यक्तियों के लिए यही उचित है कि जीवन में चमत्कारी सिद्धि के लोभ से विमुख होकर अध्यात्मवाद के उस व्यावहारिक आदर्श को अपनाया जाए जिससे जीवन में शोक-संताप की मात्रा कम हो और सुख शाँति की वृद्धि होती चले। लौकिक जीवन में जितने भी सुख-साधन और प्रसन्नतादायक अवसर हैं, उनका मूल अध्यात्म ही है। जब मनुष्य जीवन में आध्यात्मिक विचार-धारा का समावेश कर लेता है तो उसका अंतर तथा बाह्य सर्वथा निर्दोष तथा उदार हो जाता है। वह सबके साथ आत्मीयता तथा आत्म-भाव अनुभव करने लगता है। किसी को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी भी प्रकार से कष्ट दे सकना उसके वश की बात नहीं होती। परोपकार, पुण्य तथा परमार्थ में उसका विश्वास अटल तथा अडिग हो जाता है। ऐसे विचार तथा व्यवहार वाले व्यक्ति के लिए चारों और अनुकूलता ही अनुकूलता उत्पन्न हो जाती है। यह अखण्ड नियम है कि जो व्यक्ति संसार में सबके लिए अनुकूल होगा उसके लिए सारा संसार भी अनुकूल ही रहेगा। अनुकूलता को सुख-शाँति तथा कल्याण की जननी माना गया है। जिसने अपनी आध्यात्मिक विचार-धारा से स्त्री, पुत्रों, परिवार, परिजनों, मित्रों, सुहृदयों, सम्बन्धियों और सम्पर्कों को अनुकूल बना लिया, उसने मानो इस भूमि पर ही अपने लिए स्वर्ग की भूमिका तैयार कर ली।
लौकिक जीवन में आरोग्य, सम्पत्ति, धन और स्नेह सौजन्य-इन तीन विभूतियों को सुख-शाँति का आधार माना गया है। जिनको इन तीन विभूतियों की प्राप्ति हो जाती है। वह निश्चित रूप से अपने को सुखी और संतुष्ट अनुभव करता है। यह तीनों विभूतियाँ अध्यात्म की साधारण सी सिद्धियाँ हैं। कोई भी अध्यात्मवादी इन्हें बड़ी सरलता से अनायास ही प्राप्त कर सकता है। अध्यात्मवाद के सत्परिणाम चिर-प्रसिद्ध हैं उसके आधार पर लौकिक तथा पारलौकिक, भौतिक एवं आत्मिक दोनों प्रकार की सुख-शाँति प्राप्त होती है।
आध्यात्मिक विचार-धारा और तदनुरूप आचरण करने वाले को शाँति, संतोष, हर्ष-उल्लास, निर्भयता और प्रसन्नता की स्थिति प्राप्त होना अनिवार्य है। यद्यपि यह स्थिति आत्म-भूत भी होती है तथापि आध्यात्मिक चरित्र वाला व्यक्ति भौतिक साधनों से भी वंचित नहीं रहता। अब किसी सत्पुरुष को उपरोक्त स्थिति प्राप्त ही होनी है तो उसके साथ उसके स्थूल साधनों का जुड़ा रहना भी उसी प्रकार अनिवार्य है, जिस प्रकार आकार के साथ उसका प्रकार जुड़ा रहता है। इस प्रकार अध्यात्मवादी अंतर और बाह्य दोनों ओर से सुखी और सम्पन्न बना रहता है।
अपनी और अपने समाज की वर्तमान अधोदशा का सुधार करने के लिए हम सबको पूर्वजों से निर्देशित आत्मा के महाविज्ञान अध्यात्मवाद को अपने व्यावहारिक जीवन में सिद्ध करते चलना चाहिए। इससे भौतिक उन्नति के साथ-साथ आत्मिक उन्नति भी होती चलेगी। और एक दिन हम सब अपने परम-कल्याण की प्राप्ति कर लेंगे।
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लोग कहते हैं कि महाराज! मेरा मन चला गया। किसने देखा कि वह चला गया। किसने देखा, वह तुमने देखा। देखकर कहते हो या बिना देखे। फिर कहते हो मन स्थिर नहीं, हमारा मन शाँत नहीं है। फिर बताओ मन कहाँ गया। ऐसी कोई जगह है जहाँ मन चला गया हो। मन के चले जाने के देखने वाले तुम हो, कार्य में कर्म में तुम हो, सबमें तुम हो, इसलिए तुम्हारा नाम भगवान। जो सबका मैं मैं न हो तो नाश हो जाय।
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