संगठित जातियाँ चट्टानवत् सुदृढ़ होती है

February 1970

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चट्टान के भीतरी भाग में कोमलता भरी हुई पर ऊपर सुदृढ़ता क्यों? यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है। भीतर के सब जीव श्रम विभाजित कर अपना-अपना काम करते रहते हैं। कोई खाद्यान्न जुटाता है तो कोई बच्चे सेता है। बाहरी रक्षा पंक्ति के एन्थोजोआ कैल्शियम कार्बोनेट का बहुत भारी आवरण अपने ऊपर चढ़ा लेते हैं, इस तरह वे एक चट्टान की आकृति में मजबूत दुर्ग के समान सुरक्षित बने रहते हैं, यदि उन्होंने परस्पर मिलने की सुदृढ़ता न दिखाई होती आपस में बिखरे और विशृंखलित बने रहते तो आज उनकी वंशावली या तो होती ही नहीं, होती भी तो बहुत सम्भव है, पूर्व भारतीयों के समान पराधीन या विश्व में अल्पसंख्यक रह गये होते।

आवश्यकतानुसार यह विभिन्न आकृतियां बनाते रहते हैं, कभी पंखे जैसे होकर ‘सीफैन’ कहलाते हैं तो कभी प्राचीनकाल के मोरपंख की लेखनी जैसे जिन्हें ‘सीपेन’ कहते हैं। इसी जाति का ‘एटाल’ नामक जीव बैलों व घोड़ों के खुरों में जड़े जाने वाले नाल जैसा होता है, जिसकी दोनों भुजाओं के बीच की दूरी 50 मील तक हो सकती है। विभिन्न आकृतियों में संगठन का स्वरूप यह इंगित करता है कि हम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि कैसे ही स्वरूप में रहें, शासन और सामाजिक व्यवस्थाओं के स्वरूप भले ही बनते-बिगड़ते रहें पर धर्म व संस्कृति की दृष्टि से अपनी एकता कभी भंग न करें, तभी हम संसार की भयंकरताओं से, द्वन्द्वों और आक्रमणों से टक्कर ले सकते हैं।

काम वितरण करके भी एक जाति एक परिवार की तरह रह सकती है। संसार के अनेक जीवों में यह सिद्धाँत पाया जाता है, जिसका नाम ‘पोली मार्फिजम’ है। एक ही जीव कई प्रकार का आकार बनाकर रहते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य अपने समाज व समुदाय की सुरक्षा व विकास करना ही होता है।

सीलेन ट्रेटा समुदाय के ‘साइफोनोफोरा’ वर्ग में पाये जाने वाले फाइसेलिया, बेलेला, पोरपिटा, टेन्टिला कैलिकोफोरा आदि जीव श्रम का वर्गीकरण करके जीते हैं पर पारस्परिक एकता व मैत्री भी इतनी घनिष्ठ होती है कि कोई भी बाहरी जीव उंगली नहीं उठा सकता। किसी समय भारतीय समाज में भी यही व्यवस्था भी। सारी हिन्दू-जाति एक पिता की संतान की तरह रहती थी। सुविधा की दृष्टि से कोई ब्राह्मण का समाज को संस्कारवान बनाने का कार्य करता था, कोई देश की सुरक्षा का क्षत्रिय कर्म। कुछ भरण-पोषण का उत्तरदायित्व संभालते थे, कुछ सेवा, सुश्रूषा के स्थूल कार्य। काम बंटे थे, एकता नहीं। जब तक वह व्यवस्था रही भारत विश्व में अपराजेय रहा पर जब संगठन टूटा तो अपने घर में मुसलमान, अंग्रेज, पुर्तगाली आदि कितनी ही जातियाँ घुस बैठीं और हम पर शासन करने लगीं।

फाइसेलिया जीव पुर्तगाल के खिलाड़ी की हैट (पुर्तगीज मैन आफ वार) की तरह आकृति बनाकर अपनी जाति के सब अंडे बच्चों को समेट कर सुरक्षित कर लेता है। इनमें जो उदर-पोषण के लिए समुद्र से आहार लेते रहते हैं, उन्हें ‘गैग्ट्रोजूइड’ कहते हैं। अन्य कुछ सुरक्षा का कार्य करते हैं। अकेले तो यह कीड़े को भी नहीं मार सकते पर संगठित होने के कारण वे बड़ी-बड़ी मछलियों को उसी प्रकार मार भगाते हैं, जैसे संगठित भारतीय कभी आक्रमणकारी अफगानों, चीनियों को मार भगाते थे। ‘गोनो जूइड’ नामक इन्हीं जीवों की एक श्रेणी प्रजनन का काम करती है, शेष सब संयमित जीवन यापन करते हैं उनका एक ही काम रहता है, अपने समाज की सेवा और सुरक्षा। हमारी आन्तरिक व्यवस्था भी ऐसी ही थी। जब तक संयमी व सेवाशील समाज सुधारकों की कमी न रही, देश विश्व का सिरमौर रहा पर अब जब सारे लोग पेट और प्रजनन की निकृष्ट प्रक्रियाओं में ग्रस्त हो गये, हमारी सारी विशेषताएं ही नष्ट हो गईं। धर्म, संस्कृति और तत्वदर्शन अभी वैसा ही सामर्थ्यवान है पर अपनी जातीय एकता से विमुख होने के कारण हम उस समर्थता को धारण करने में भी समर्थ नहीं रहे।

संगठित जातियाँ संख्या में थोड़ी ही हों तो भी वे सारे संसार में अंग्रेजों की तरह छा सकती हैं। मुसलमान भारत वर्ष में कुल सात सौ आये थे और आज भारतीय प्रदेश में ही दस करोड़ मुसलमान हैं। एक पाकिस्तान बन गया सो अलग यह सब संगठन की महिमा है। मनुष्य क्या जीवों में भी उसके बड़े अनूठे उदाहरण हैं। ‘बाल बाक्स’ नामक प्रोटोजोआ (जिन जीवों के शरीर एक ही कोष के होते हैं, उन्हें प्रोटोजोआ कहते हैं) जीव भी है और कुछ वैज्ञानिक उसे वनस्पति भी मानते हैं, इसको भोजन प्रकाश-संश्लेषण (फोटो संथेसिस) द्वारा प्राप्त होता है, यह हमेशा एक कालोनी में संगठन बद्ध रहता है। इनकी कालोनी गोल गेंद के आकार की होती है। परस्पर मिले-जुले न रहें तो एक जीव तैर भी नहीं सकता पर वे जब परस्पर मिल कर गेंद की आकृति बना लेते हैं तो कहीं भी समुद्र भर में घूमते रह सकते हैं। सुरक्षा, आजीविका और प्रजनन के सब कार्य इनमें भी वितरित होते हैं।

शीत ऋतु में तापक्रम गिर जाने के कारण मक्खियाँ जीवित नहीं रह पातीं। कमजोर वाली मक्खियाँ अकेली अकेली रहती हैं और भारतीयों की तरह नष्ट होती रहती हैं लगता है हमारी समझ से उनकी समझ अच्छी है कि वे अपनी भूख शीघ्र ही अनुभव कर लेती हैं। जाति, उपजाति, प्रजाति के भेद-भाव भूलकर वे लाखों की संख्या में संगठित होकर एक पत्ते की सी आकृति बना लेती हैं। अब वे एक जाति एक वंश, एक कुनबे की तरह रहती, खाती पीती, उठती बैठती, दिखाई देने लगती हैं, इससे वे प्रकृति के आघात हंसते-खेलते सहन कर लेती हैं। सटे रहने के कारण हवा उसी प्रकार प्रवेश नहीं कर पाती जिस प्रकार संगठित जातियों में भेदिये, जासूस और तोड़ फोड़ की कार्यवाही करने वाले कुछ नहीं बिगाड़ पाते। इस प्रकार वे ठण्ड से अपने शरीरों की रक्षा कर लेती हैं।

संगठन और जातीय एकता, शक्ति और सुरक्षा के आधार हैं। कोई भी देश और जाति तब तक विकसित नहीं हो सकती, जब तक उनका यह प्राथमिक आधार ही सुदृढ़ न हो।

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