जलो और जग को उजाला जुटाओ (Kavita)

February 1970

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जलाकर स्वयं को, उजाला जुटाना, मिटाना कठिन कालिमाएं धरा की।

प्रदीपो! जगत् सीखना चाहता है। लिये पंचभूतों की काया निराली,

नयी चेतना मर गिरी गर्द छाई। अहंकार की तामसी वृत्तियों को,

नहीं स्वार्थ के ओर देता दिखाई॥ लगाना लगन, स्नेह सबको लुटाना,

जलाना दुखद वेदनायें जरा की। प्रदीपो! जगत सीखना चाहता है।

तिरोहित मनुजता, विवश भावनायें, दुरुपयोग मति का, प्रगति की कहानी।

अधःपात के आवरण से झलकती, सुखद सत्य की आह! धूमिल निशानी॥

निभाना सरल प्रीति, पहरा दिलाना, भुलाना विषमता विषम अन्तरा की।

प्रदीपो! जगत् सीखना चाहता है। विहँसना, लिये मौत का द्रुत निमंत्रण

कनक-वीणा पर भैरवी गुनगुनाना। बहिर्व्योम-अन्तर्मनःस्थित विरसता

सभी को विमल ज्योति से जगमगाना॥ सुलाना, बिलखती हुई बाल, उन्मद,

बिकल चेतना आज विश्वम्भरा की। प्रदीपो! जगत् सीखना चाहता है।

जलाकर स्वयं को, उजाला जुटाना, मिटाना कठिन कालिमाएं धरा की। प्रदीपो! जगत् सीखना चाहता है॥

-श्री डॉ. रामस्वरूप त्रिवेदी,

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*समाप्त*


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