वंश, कुल, गोत्र

February 1970

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नगर-वधू आम्रपाली अब वैशाली ही नहीं सुदूर राज्यों के लिए भी आकर्षण बन चुकी थी। उसके रूप रस, सौन्दर्य, स्वर और कला की ख्याति कलिंग, कौशल, पंचनद और मगध तक फैल चुकी थी। अनेक राजकुमार अपना सर्वस्व देकर भी आम्रपाली को पाने के लिए बेचैन थे। वैशाली विलासियों से पट रही थी। पड़ोसी देशों की राज-मुद्रायें वैशाली भागी चली आ रही थीं। मगध के धनिक नरेश बिम्बिसार स्वयं भी आम्रपाली के सौंदर्य की गाथायें सुन-सुनकर अपनी सुध-बुध खो बैठा था।

मगध के प्रमुख नागरिकों को इस बात की चिन्ता हुई। प्रबुद्ध और साधन सम्पन्न व्यक्तियों की पतनोन्मुख स्थिति के फलस्वरूप मगध का व्यापार भ्रष्ट हो चला था मुद्रायें वैशाली खिंची चली जा रही थीं, जो मगध के निर्धन हो जाने और व्यापार गिर जाने का स्पष्ट खतरा प्रकट हो चुका था।

जब बड़े लोग आत्म-नियंत्रण खो देते हैं, तब उसका प्रायश्चित छोटों को करना पड़ता है। निदान सारी स्थिति पर विचार-विमर्श के लिए प्रमुख नागरिकों की बैठक बुलाई गई। यह निश्चय करना था कि इस असंतुलन को कैसे ठीक किया जाये। बहुत देर विचार करने के बाद वृद्धजनों ने निश्चय किया, आम्रपाली के टक्कर की ही कोई अन्य नगर-वधू मगध में ही पोषित की जाये। धनिक वर्ग उस समय विलासिता में ऐसा आकण्ठ डूबा हुआ था कि वह किसी के समझाने से मार्ग पर आने के लिए तैयार न था, इसलिए इस उपाय के अतिरिक्त और कोई उपाय सूझा नहीं।

शालवती उन दिनों यौवन के द्वार पर थी। उसके लावण्य की हल्की चर्चायें तभी से चल पड़ी थीं। उसके पास केवल साधनों का अभाव था, उसे नगर-परिषद ने पूरा कर दिया और इस तरह पड़ौसी होते-होते शालवती नगर-वधू के पद पर प्रतिष्ठित कर दी गई।

चरित्र निष्ठा जीवित न रही तो राज्य की दुर्दशा हो जाएगी, इस पर किसी ने ध्यान न दिया। शालवती के नगर वधू घोषित होते ही विलासियों की बाढ़ आ गई। वैशाली की ओर खिंची जा रही मुद्रा का निर्यात तो रुक गया, किन्तु मगध ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिद्वन्द्विता और बीमारियों का घर बन गया। कामुक व्यक्ति शालवती पर उस तरह मंडराने लगे, जैसे भौंरे कलियों पर। देखते-देखते उसकी ख्याति सारे मगध में वर्षा के बादलों की तरह सर्वत्र छा गई।

अभी कुछ दिन ही बीते थे कि शालवती गर्भवती हो गई। वह इस अप्रत्याशित घटना के लिए तैयार नहीं थी पर ईश्वरीय विधान को रोक सकने की सामर्थ्य उस बेचारी में थी ही कहाँ? कहीं ऐसा न हो कि पुनः मगध-वासियों में आम्रपाली के प्रति आकर्षण बढ़ जाये, वह बहुत दिनों तक इसी चिंता में डूबी रही।

आखिर उसने कुछ दिन के लिए बीमारी का बहाना बनाकर एकान्त ले लिया। नव महीने बीते, शालवती ने सुँदर पुत्र को जन्म दिया पर हाय री लिप्सा-लिप्सा जो न चाहे सो पाप कराये। शालवती ने नवजात शिशु को एक वस्त्र में लपेटकर दासों के हाथों जंगल भिजवा दिया। किसी को कानों-कान खबर न हुई। सब कुछ यथावत चलने लगा। वही मूल्य, गीत और काम-क्रीड़ा। हजारों नर-पशु अपने शील, स्वास्थ्य, सौन्दर्य की वासना के अग्निकुण्ड में आहुति देने लगे।

राजकुमार अभय उस दिन मृगया से लौट रहे थे। मार्ग में उन्होंने बच्चे को पड़ा हुआ देखा तो उनकी करुणा उमड़ पड़ी। समाज के उन कुमार्गगामी पुरुषों के प्रति उनकी घृणा उमड़ उठी, जिन्हें अपने क्षणिक सुख के आगे सामाजिक मर्यादाओं का भी ध्यान नहीं रहता। जो भी हो उन्होंने निश्चय किया कि वे ऐसी दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। अपने इस निर्णय के साथ ही उन्होंने उस बालक को उठा लिया और उसे घर ले आये। उन्होंने बच्चे का नाम ‘जीवक’ रखा, उसकी शिक्षा-दीक्षा का भार स्वयं उठाया, साथ ही अविवाहित रहकर समाज की इन दूषित परम्पराओं के विरुद्ध धार्मिक विद्रोह की प्रतिज्ञा की।

जीवक बड़ा हुआ। एक दिन उसने राजकुमार अभय से पूछ ही लिया- ‘मेरे माता-पिता कौन हैं।’ अभय ने वह सारी घटना कह सुनाई जिस तरह जीवक जंगल में पड़ा मिला था। अपने को मातृ, पितृ-हीन अनुभव कर जीवक को गहरी वेदना हुई। उसने अभिभावक अभय से कहा- महापुरुष! आपने मेरी रक्षा न की होती तो अच्छा था। आत्म-हीनता का भार लेकर बोलिये मैं कहाँ जाऊं?

राजकुमार को एक बार यह सोचकर बड़ा दुख हुआ कि समाज में ऐसे कितने बच्चे होंगे, जो बड़ों की भूल और असावधानी के कारण आत्म-हीनता के भार से दब रहे होंगे। पर केवल दुख करने से तो काम नहीं चल सकता था। उन्होंने धैर्य दिलाते हुए कहा-वत्स! दुख करने की अपेक्षा अच्छा हो, हम दोनों मिलकर प्रायश्चित करें। तुम्हारे लिये प्रायश्चित यह है कि तुम तक्षशिला जाओ और वहाँ विद्याध्ययन कर अपने में वह पात्रता उत्पन्न करो, जिससे पद-दलित समाज को कुछ प्रकाश दे सको और मैं आज से मगध के नैतिक उत्थान के लिए अपने आपको समर्पित करता हूँ।

जीवक ने यह मात मान ली और विद्याध्ययन के लिए तक्षशिला के लिए चल दिया। प्रवेश के नियमानुसार जीवक अब प्रधान आचार्य के सम्मुख आया तो उन्होंने प्रश्न किया - वत्स! तुम्हारा नाम, पिता का नाम, कुल और गोत्र क्या है। जीवक कुछ बोल नहीं सके। आँख डबडबा आईं। भरे हुए गले से उन्होंने कहा-आचार्य प्रवर! मुझे मगध के राजकुमार अभय ने पाला है, मैं उन्हें जंगल में कहीं, पड़ा हुआ मिला था, मुझे स्वयं भी पता नहीं है कि कौन मेरा पिता है और कौन माता।

बालक की इस निष्कपटता और सत्यनिष्ठा से आचार्य बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-तात्! जो अपने मन में बुरी से बुरी बातें भी नहीं छिपाते, वह एक दिन महान बनते हैं। तुम विद्या के सच्चे अधिकारी हो। आज से तुम विश्वविद्यालय में मन लगाकर पढ़ो। तुम्हें प्रवेश की अनुमति दी जाती है।

जीवक ने परिश्रम से अध्ययन प्रारंभ किया। एक तथ्य सदैव उसकी आँखों के सामने घूमता था, मुझे संसार को प्रकाश देना है, इसलिए वह अपना मन केवल अपनी योग्यता बढ़ाने में केन्द्रित किये रहा और एक दिन आयुर्वेद का प्रकाँड पंडित बनकर तैयार हो गया।

जीवक ने आयुर्वेदाचार्य की उपाधि ले ली। कल उन्हें मगध के लिए प्रस्थान करना था। गुरु के स्नेह और अपने जीवन की निराशाओं ने आज उन्हें बहुत दुखी बना रखा था। रात को देर तक नींद नहीं आ पाई। तभी प्रधानाचार्य उनके कोष्ठ में प्रविष्ट हुए। उन्होंने पूछा-‘वत्स! तुम्हारी आंखें लाल और मुखाकृति उदास क्यों है। जीवक ने उपेक्षित हंसी के साथ कहा-देव! आप जानते हैं, मेरा कोई कुल और गोत्र नहीं। मैं जहाँ भी जाऊंगा, लोग मुझ पर उंगलियाँ उठायेंगे। क्या आप इतना प्रायश्चित मुझे यहीं न करने देंगे कि मैं आपकी सेवा में ही बना रहूँ।

आचार्य गंभीर थे। बोले-वत्स! तुम्हारी योग्यता प्रतिभा और ज्ञान ही तुम्हारा कुल और गोत्र है, तुम जहाँ भी जाओगे, वहीं तुम्हें सम्मान मिलेगा। प्रायश्चित ही करना है तो इससे अच्छा प्रायश्चित क्या होगा कि तुम दुर्भाग्य-ग्रसित प्राणियों की सेवा में अपने आपको समर्पित कर दो।

जीवक ने गुरुदेव के चरणों की धूलि मस्तक पर लगाई और उस ओर चल पड़े, जहाँ हजारों-लाखों दुर्गुणों और दुष्प्रवृत्तियों से ग्रस्त लोग उनकी राह देख रहे थे। जीवक ने आचार्य जीवक बनकर मगध में प्रवेश किया और उपलब्ध ज्ञान के द्वारा हजारों पथ-भ्रष्ट लोगों का भला कर यश और गौरव प्राप्त किया।

=कोटेशन======================

पाप में पड़ने वाला मनुष्य होता है, जो पाप पर पश्चाताप करता है, वह साधु है, जो पाप पर अभिमान करता है, वह शैतान है।

-फुलर

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