स्वावलम्बी जीवन

February 1970

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भूखे-प्यासे साधु के मन ने कहा - ‘काया को कष्ट क्यों देते हो, किसी के घर से भीख माँग लो।’ साधु अभी एक ओर मुड़ने ही वाले थे कि आत्मा बोली- ‘जिससे माँगोगे वह भी तो तुम्हारे जैसा ही होगा। तुम स्वयं क्यों नहीं कमा लेते।’

मन ने कहा - ‘तुम तो तपस्वी हो, अपरिग्रही हो, तुम्हें कमाना नहीं चाहिए।’

आत्मा ने तत्काल उत्तर दिया - ‘जो अपरिग्रह हो, परिग्रह का दास हो उससे अच्छा तो परिग्रह ही है, जो कम से कम हाथ तो नहीं फैलाता।’

साधु ने आत्मा की बात सुनी और उस दिन से साधना, उपासना के साथ स्वावलम्बी जीवन का अभ्यास भी प्रारंभ कर दिया।

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अपनों से अपनी बात—


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